त्रिपताकी चक्र वेध से ग्रहों का शुभाशुभ विचार - Astrologer Dr Sunil Nath Jha | Tripataki Chakra Vedh
त्रिपताकी चक्र वेध से ग्रहों का शुभाशुभ विचार
Tripataki Chakra Vedh
अयासा भरणं मूढाः प्रपश्यन्ति शुभाशुभ |
मरिष्यति यदा दैवात्कोऽत्र भुंक्ते शुभाशुभम् ||
अर्थात् जातक के आयु का ज्ञान सबसे पहले करना चाहिए | पहले जन्मारिष्ट को विचारने का प्रावधान है उसके बाद बालारिष्ट पर जो स्वयं पूर्वकृत पाप से या माता-पिता के पाप से भी मृत्यु को प्राप्त होता है | उसके बाद त्रिपताकी वेध जनित दोष से जातक की मृत्यु हो जाती है |
शास्त्रों में पताकी दोष से २९ वर्षों तक मृत्यु की बात है -
नवनेत्राणि वर्षांणि यावद् गच्छन्ति जन्मतः |
तवाच्छिद्रं चिन्तितव्यं गुप्तरुपं न चान्यथा ||
ग्रहदानविचारे तु अन्त्ये मेषं विनिर्दिशेत् |
वेदादिष्वङ्क दानेषु मध्ये मेषं पुर्नर्लिखेत् ||
अर्थात् त्रिपताकी चक्र में ग्रह स्थापन में प्रथम पूर्वापर रेखा के अन्त्य दक्षिण रेखाग्र से मेषादि राशियों की स्थापना होती है | पुनः दो-दो रेखाओं से परस्पर क्रम से कर्णाकर छह रेखा लिखे अग्निकोण से वायव्यकोण तक छह तथा ईषाण कोण से नैऋत्य कोण तक छह रेखाओं का निर्माण करे | इस तरह ३ पूर्वापर ३ याम्योत्तर तथा ६-६ कर्णाकार= १८ रेखाओं से यह त्रिपताकी चक्र बनता है |
जन्मलग्ने यदा वेधः पापदण्डे मृतिर्वदेत् |
दक्षवामाग्रमानने पुर्वाभावे परं विंदुः ||
यदा वेधस्त्रयाणाञ्च जन्मलग्नेऽशुभग्रहे |
प्राप्तिस्तत्र बलाधिक्याद्वामदक्षिणासम्मुखैः ||
अर्थात् त्रिपताकी में जन्म कुंडली के भावों में स्थित ग्रहों की स्थापना मेषादि राशियों की स्थापना कर जन्म समय में जो जो ग्रह जिस-जिस राशि में हों उनको उन-उन राशियों में स्थापित करे | एक रेखा में स्थित ग्रह से तीन स्थानों में अर्थात् ग्रह से दक्षिण और वाम गत तिर्यक रेखा में तथा सम्मुख गत रेखा में स्थित ग्रहों से वेध होता है |
अर्थात् जन्मलग्न से दक्षिण वाम और सम्मुख रेखा गत ग्रह हो तो शिशु के अरिष्ट निश्चय करना चाहिए | सबलेऽत्र ग्रहे पापे दिनमात्रं विधीयते अर्थात् इतने वर्ष माह और दिन पर अरिष्टादि होगा |
त्रिपताकी चक्र का निर्माण कर जातक के लग्न की राशि चक्र में जहाँ है वही लग्न को स्थापित कर उस स्थान की रेखा से वेध का विचार करना चाहिए लग्न राशि से दक्षिण वाम और सम्मुख स्थित राशि का वेध होता है यह समझना चाहिए | इस तरह तीन वेध होगें | इन तीनों वेध स्थानों में ग्रह हो तो उस से वेध होता है | त्रिपताकी चक्र में यदि कर्क लग्न हो तो उसका धनु और मीन राशि में स्थित ग्रहों से वेध होता है |
क्योकि कर्क से सम्मुख मीन राशि तथा कर्णाकार धनु राशि स्थित रहता है | अतः कर्क -धनु और मीन का परस्पर वेध होता है- कर्के धनुषि मीने | उसी प्रकार सभी राशियों का वेध पठित है जैसे सिंह राशिस्थ ग्रह का वृश्चिक - कुम्भ से, कन्या राशिस्थ ग्रह का मकर- तुला से, तुला राशिस्थ ग्रह का मीन - कन्या से, वृश्चिक राशिस्थ ग्रह का कुम्भ-सिंह से, धनु राशिस्थ ग्रह का मकर - कर्क से, मकर राशिस्थ ग्रह का धनु - कन्या से, कुम्भ राशिस्थ ग्रह का सिंह - वृ श्चिक से, मीन राशिस्थ ग्रह का कर्क-तुला से, मेष राशिस्थ ग्रह का कन्या, धनु और मीन वेध होता है | मेष राशि जन्म लग्न हो तो कन्या राशि में दक्षिण वेध, धनु राशि में सम्मुख वेध तथा मीन राशि में वाम वेध होता है |
वृष राशिस्थ ग्रह का सिंह, वृश्चिक और कुम्भ राशि में दक्षिण, सम्मुख और वाम वेध होता है | मिथुन राशिस्थ ग्रह का तुला, मकर और कर्क राशि में सम्मुख वाम और दक्षिण वेध होता है | यहाँ पर जातक को यथा योग अर्थात् दक्षिण-वर्ष, सम्मुख - मास और वाम दिन वेध यथा न्याय अर्थात् स्वोच्चनीचादि के बलादि यथा भाग अर्थात् वर्ष, मास और दिन के बालारिष्ट होता है | वेध होने पर उस स्थान में स्थित अंक के समान दिन, मास या वर्ष में जातक का अरिष्ट होता है |
त्रिपताकी चक्र में जो अङ्क स्थापित होते है उन अङ्कों और ग्रह स्थापन चक्र के अनुसार वेधानयन विधि से मेषादि - मेष -१६, वृष-१७, मिथुन-३९, कर्क-१९, सिंह-१७, कन्या-३६, तुला-२६, वृश्चिक-१७, धनु-२९, मकर-२६, कुम्भ- १७ और मीन -२९ है | अङ्क स्थापन चक्र में जो अङ्क होते है उनका पूर्वोक्त वेधानुसार तीन-तीन स्थानों के अङ्कों का योग करकर उनके मानों के अनुसार जो संख्या आवे उतने दिन,मास और वर्ष पर ग्रहों के बलानुसार बालारिष्ट के समय को निश्चित करना चाहिए --
स्वक्षेत्रस्थे बलं पूर्णं पादोनं मित्रभे स्थिते |
अर्ध समगृहे ज्ञेयं पादं शत्रु गृहे स्थिते ||
एतदुक्तं बलं सौम्ये क्रूरे ज्ञेयं विपर्ययात् |
शत्रुगेहस्थिते पूर्णं पादोनं समवेश्मनि ||
अर्धं मित्रेगृहे ज्ञेयं पादं पापे स्ववेश्मनि |
अर्थात् शुभ ग्रह अपने गृह में हो तो ६० कला, मित्र राशि में हो तो चतुर्थांशोन ४५, सम ग्रह की राशि में हो तो अर्द्ध ३० तथा शत्रु की राशि में होतो १५ चतुर्थांश बल होता है | यह बल शुभ ग्रह के लिए होता है इससे विपरीत में पाप ग्रह के बल को समझना चाहिए | यथा पाप ग्रह शत्रु राशि का हो तो पूर्ण बल, समराशि का हो तो पादोन बल मित्र राशि का हो तो अर्धबल और स्वराशी का हो तो चतुर्थांश बल होता है | ग्रहों का फल अपने राशि गत काल के अंतर्गत जातक को फल भोगना पड़ता है | जिन ग्रहों से शुभाशुभ फल यथा -सूर्य से एक महिना,चन्द्र से सवा दो दिन, गुरु से एक वर्ष तक |
पापग्रहयुते लगने युते वा शत्रुवीक्षिते |
तदा दिनं भवेत्तस्य मरणाय सुनिश्चितम् ||
अर्थात् त्रिपताकी चक्र में जन्म लग्न यदि पाप ग्रह से अथवा शत्रु से युक्त या दृष्ट हो तो जन्म लग्न राशि के गतांश तुल्य दिन पर बालक की मृत्यु होती है | पराशर में आयु का विचार अष्टमेश अष्टम भाव तृतीयेश, तृतीय भाव और अष्टम भाव का कारक शनि से किया जाता है | जैमिनी में आयु का विचार लग्नेश और चन्द्रेश =अल्प, लग्नेश और अष्टमेश= मध्य और लग्नेश और शनिस्थ= दीर्घ | मार्केश विचार - सप्तमेश और द्वितीयेश मारक कष्ट ग्रह है | वैसे कष्ट के लिए कभी-कभी तृतीयेश, षष्ठेश, एकादशेश तथा पापी ग्रह होते है |
वर्गोत्तमे स्वतुङ्गे वा केंद्रे च गुरु भार्गवौ |
तथापि प्रबले पापे वर्ष भागो न लभ्यते ||
अर्थात् गुरुशुक्र वर्गोत्तम नवांश में या निचोच्च में स्थित होकर केंद्र में हो तब भी यदि वेध कारक पाप ग्रह बलवान हो तो प्राप्त संख्या तुल्य वर्ष नही अपितु तत्तुल्य दिन ही अरिष्ट के लिए समझना चाहिए |
वेध विचार से पूर्व यामार्द्धेश और दण्डेश की जानकारी करनी होगी | जातक का जन्म जिस दिन समय में हों उसके अनुसार जन्मेष्ट, जन्मपत्री, दिनमान और रात्रिमान आदि की जानकारी कर लेनी चाहिए | दिनमान का आठव भाग यामार्द्ध होता है | इसी प्रकार रात्रिमान का आठवा भाग रात्र्यार्द्ध कहलाता है | इन भागों के अधिपति का ज्ञान कैसे किया जाय | जिस दिन बालक का जन्म हुआ, उस दिन के आठ भाग करने पर प्रथम यामार्द्ध का स्वामी वही दिन होता है, उसके बाद में यामार्द्ध का स्वामी दिन में प्रथम यामार्द्धेश से छठा होता है |एवं उससे छठा तृतीय का होता, उससे छठा चतुर्थ का इस प्रकार आठों यामार्द्धों का अधिपति होता है | दिन में यामार्द्धेश षष्ठ से होता है और रात्रिमान में पञ्चम से होता है |
यथा जातक का जन्म गुरुवार के दिन हुआ है तो प्रथम यामार्द्धेश गुरु होगा | प्रथम यामार्द्धेश गुरु, द्वितीय यामार्द्धेश गुरु से षष्ठ मंगलवार हुआ यानी द्वितीय यामार्द्धेश का स्वामी मंगल हुआ इसी तरह मंगल से षष्ठ तृतीय यामार्द्धेश सूर्य, सूर्य से षष्ठ चतुर्थ यामार्द्धेश शुक्र, शुक्र से षष्ठ पञ्चम यामार्द्धेश बुध, बुध से षष्ठ षष्ठ यामार्द्धेश सोम चन्द्र, चन्द्र से षष्ठ सप्तमयामार्द्धेश शनि, शनि से षष्ठ अष्टम यामार्द्धेश गुरु होगा | आठो यामार्द्धेश गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु होगे | रात्रि में रात्रिमान भी अष्टभाग को पञ्चम से होता | प्रथम गुरु यामार्द्धेश, गुरु से पञ्च द्वितीय यामार्द्धेश सोम, सोम से पञ्च तृतीय यामार्द्धेश शुक्र, शुक्र से पञ्च चतुर्थ यामार्द्धेश मंगल, मंगल से पञ्चम पञ्चम यामार्द्धेश शनि, शनि से पञ्चम षष्ठ यामार्द्धेश बुध, बुध से पञ्चम सप्तम यामार्द्धेश सूर्य, सूर्य से पञ्चम अष्टम यामार्द्धेश गुरु होगे | प्रत्येक यामार्द्ध काल का चतुर्थ भाग दण्ड कहलाता है |
सबलेत्र ग्रहे पापे दिनमात्रं विधीयते |
मध्ये बले तथा मासों वर्षं चैवाबले तथा ||
बालान्विते शुभे वापि वर्ष विद्याद्यथातथम् |
मध्ये बलं तथा मासं क्षीण वीर्ये तथा दिनम् ||
अर्थात् वेधकारक पापग्रह यदि बलवान रहे तो वेध कारक पाप ग्रह जिस राशि में हो तद्भव एकोन विंशतिः कर्के वचन के अनुसार उस राशि संख्या तुली दिन पर बलारिष्ट समझना चाहिए | पाप ग्रह मध्यबली हो तो ग्रह राशि के गताङ्क तुली मास पर बालारिष्ट समझना चाहिये |यदि दुर्बल ग्रह हो तो वेध कारक पाप ग्रह गताङ्क राशि तुल्य वर्ष पर बालारिष्ट समझना चाहिए | यदि वेध्कारक शुभ ग्रह बलि हों तो शुभ ग्रह गताङ्क राशि तुल्य वर्ष पर मध्यबली हो तो तद्राशि गताङ्क तुल्य मास पर और क्षीण बली हो तो तद्राशि तुल्य दिन पर बलारिष्ट समझना चाहिए |
असद्ग्रहयोगे लक्षणाद्यैर्दिनानि |
विमिश्रेण मासा बलात्तारतम्यमिति ||
जन्म लग्न शुभग्रह तथा पाप ग्रह दोनों से दृष्ट हो अथवा युक्त हो तो जन्म लग्न गताङ्क तुल्य मास पर बालारिष्ट समझे | यदि शुभग्रह अधिक बलवान् हो तो मास संख्या तथा यदि पाप ग्रह अधिक बलवान् हो तो तत्संख्या तुल्य दिन पर ही अरिष्ट समझना चाहिए |
शुभदृष्टे शुभयुते शुभस्थानस्थितेऽपि वा |
तदा वर्ष विजानीयात्स्वामिना दृश्यते यदि ||
जन्म लग्न शुभ ग्रह से विद्ध तथा शुभ ग्रह से ही दृष्ट युक्त हो तो अथवा जन्म लग्न शुभ ग्रह की राशि हो तो लग्न गताङ्क तुल्य वर्ष पर बालारिष्ट समझना चाहिए | यदि जन्म लग्न शुभ ग्रह से विद्ध हो तथा अपने स्वामी से दृष्ट हो तो लग्न गताङ्क तुल्य वर्ष पर बालारिष्ट समझना चाहिए | जन्म लग्न तीनों राशि उच्च नीच स्वग्रह गत ग्रह से विद्ध हो तो तद्गत अंक तुल्य दिन पर ही अरिष्ट समझना चाहिए |
तात्पर्य यह कि यदि राशित्रय गत ग्रहों से जन्म लग्न विद्ध हो तो अवश्य ही तत्द्गाताङ्क तुल्य दिन पर अरिष्ट होता है | गुरु शुक्र दोनों वर्गोत्तम नवांश में या निचोच्च में स्थित होकर केंद्र में हो तब भी यदि वेध कारक पाप ग्रह बलवान् हो तो प्राप्त संख्या तुल्य वर्ष नहीं अपितु तत्तुल्य दिन ही अरिष्ट के लिए ही अरिष्ट के लिए समझना चाहिए | शान्त्यर्थ नव ग्रह शांति करे | जातक के कुंडली में जो सबसे ज्यादा पापी ग्रहों का दान उतरोत्तर कम पापी होने चाहिए उसके बाद उसके बाद शुभ ग्रहों का दान दे |
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें