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आपका लग्न, भावों और राशियों का अद्भुत समन्वय: ज्योतिषीय दृष्टिकोण

आपका लग्न, भावों और राशियों का अद्भुत समन्वय: ज्योतिषीय दृष्टिकोण 

आपका लग्न, भावों और राशियों के सम्बन्ध है



आकाशस्थ भचक्र को द्वादश भावों में बाँट कर प्रत्येक भाग को मेषादि द्वादश राशि माना गया | उन द्वादश राशियों का गुण दोष का विवेचन कर ग्रहों के साथ समन्वय करके उनके अनुसार भावों का स्वामी ग्रहों का निर्देशन किया गया | लग्न भाव यानि जन्म के समय क्रान्ति मण्डल का जो भाग क्षितिज में संलग्न हो वही हो और कोई ;-

चन्द्र लग्नं शरीरं स्यात्, लग्नं स्यात् प्राण संज्ञकम्

ते  उमेसंपरिक्ष्यैव   सर्वं  नाड़ी   फलम्स्मृतम्   ||

   अर्थात् चन्द्र लग्न शरीर है, लग्न प्राण है, सूर्य लग्न आत्मा होता है | सुदर्शन चक्र से परिचय और नवमांश कुण्डली से जीवन जिया जाता जिसका सम्यक विचार करने के बाद ही कुण्डली का फल कहना चाहिए | भावादि की गणना में भी इन लग्नों को स्थान देना चाहिए तथा इससे भी वे विचार करने चाहिए जो लग्न से किये जाते है | उन द्वादश राशियों का गुण दोष का विवेचन कर ग्रहों के साथ समन्वय करके उनके अनुसार भावों का स्वामी ग्रहों का निदर्शन किया गया | राशियों में जिन जिन ग्रहों का गुण पाया गया उन्हें उसका अधिपति कहा गया | यथा- मेष और वृश्चिक का मंगल, वृष और तुला का शुक्र, मिथुन और कन्या का बुध, कर्क का चन्द्र, सिंह का सूर्य, धनु और मीन का गुरु, मकर और कुम्भ का अधिपति शनि होता है | ज्योतिष के अनुसार लग्न प्रथम भाव होता है जिसे तनु शरीर कहते है | तथा अन्य भावों को धन, सहज, सुहृत, सूत, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय और व्यय कहा है | जो जीवन के विभिन्न समस्याओं को ग्रहों के प्रभाव से उत्पन्न स्थितियों के आधार प्रस्तुत करते है | ये द्वादश भाव वैज्ञानिक दृष्टि से अपना क्रम बनाए हुए है |  


प्रथम भाव जन्म तनु भाव कहलाता है मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घटना जन्म होती है | जन्म लेने के बाद जिन-जिन वस्तुओं की मानव की- जाती, रंग, रुप, कद, जन्म स्थान, जन्म समय आदि | मनुष्य जन्म प्राप्त कर ही शरीर धारण करता है और उसी शरीर से सभी सुख- दुखों का भोग कर अन्त में मोक्ष पाता है | इस यात्रा में उसे जिन -जिन वस्तुओं की उत्तरोत्तर आवश्यकता पड़ती है, उन सबों को बीच वाले भावों से क्रमशः प्राप्त करता है | यथा शरीर धारण के बाद उसकी रक्षा के लिए उसे दूध या खाद्य सामग्री या अन्य धन का विचार द्वितीय भाव से किया जाता है | द्वितीय भाव स्वयं का और धन की होती जो परिश्रम के नहीं होती | अतः तृतीय भाव परिश्रम, बल बाहू आदि का है | शरीर, धन और परिश्रम तभी सार्थक होता है | जब कार्य करने की रुचि और भावना हो तथा उसे संपन्न बनाने के लिए साथियों का सहयोग हो | अतः भावनाओं, कामनाओं अर्थात् मन का स्थान विकास क्रम के अनुसार चतुर्थ भाव होता है जो सुहृद भाव से प्रसिद्ध है | व्यक्ति के पास शरीर, धन, परिश्रम, इच्छा शक्ति सब कुछ हो लेकिन उसकी कार्य - विधि का ज्ञान अर्थात् विद्या प्राप्त न हो तो जीवन आगे नहीं चल सकता | अतः पञ्चम भाव में विद्या को मन के बाद स्थान दिया गया | फिर शरीर, धन, परिश्रम, इच्छाशक्ति, विद्या शक्ति सब कुछ से संपन्न हो पर मनुष्य सांसारिक विरोधी - शक्तियों, अड़चनों कठिनाइयों में से अपने को न निकल सकें तो उसकी कुशलता और सफलता नहीं ठहर पायेगी | अतः षष्ठ भाव को कठिनाइयों और अड़चनों अर्थात् शत्रुता का स्थान माना गया | इसी तरह मनुष्य में वीर्य शक्ति तथा दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो तो भी वह संसार में असफल ही समझा जाएगा | अतः जीवन साथी, भागीदार, वीर्य आदि का विकासोचित आधार पर सप्तम भाव से किया जाता है | मनुष्य के उपर्युक्त सभी गुण और उसकी साधनाए निष्फल हो जाएगी, यदि वह अपने साथ आयु लेकर न आया हो | अतः विकास क्रम से आयु का विचार अष्टम भाव से करना उचित ही है | हमारे शास्त्र में आयु को धर्म की देन समझते हैं | अतः शुभ जीवन, आध्यात्मिक उन्नत्ति ही जीवन की गारन्टी है | अतः नवम भाव धर्म का है | धर्म निःस्वार्थ जीवन के बिना, यज्ञीय परोपकार मय कर्मों के बिना ठीक नहीं हो सकता | अतः कर्म का स्थान दशम भाव को दिया गया | पर यज्ञीय कर्मों को एक नैसर्गिक शुभता स्वाभाविक हो जाये तथा पूर्णतया प्राप्त हो जाय प्राप्ति स्थान का काम है, अतः एकादश भाव को लाभ भाव कहा है और द्वादश तो परिणाम स्वरूप मोक्ष अपवर्ग है ही | अतः मनुष्य के संसार में आने के उदेश्य की जहाँ धर्म बनाता है वहां कुण्डली भी अपने विकास क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है | 



इस प्रकार कुण्डली के द्वादश भाव जीवन के विशिष्ट पहलुओं को अपने आप में समेटे हुए है |

इनके प्रत्येक भाव अपने आप में स्वतन्त्र होते हुए भी एक दूसरे से पूर्णतः सम्बंधित हैं | इन द्वादश भवों का कर्म भी एक निश्चित योजना लिए हुए है. | इनके पीछे वैज्ञानिक चिंतन है | हमारे महर्षियों और आचार्यों का चिन्तन का प्रतिफल फलित ज्योतिषशास्त्र है | 


आपका जन्म समय पूर्व क्षितिज में सूर्य भ्रमण मार्ग यानि क्रांति वृत्त का जो प्रदेश संलग्न होता है, उसे लग्न कहते है | या लग्न भचक्र का वह बिन्दु कहलाता जो इष्टकाल जन्म समय में पूर्व क्षितिज नमे संयुक्त होता है | भचक्र में ३६० अंश होते है | जिसके द्वादश भाग ३० - ३० अंश एक- एक राशि के नाम से जाना जाते है | इष्टकाल में उस राशि का जो अंश कलादि क्षितिज में संलग्न होता है वह लग्न राशि का अंश कलादि से अभिव्यक्ति होता है | इस प्रकार भचक्र के उक्त द्वादश भागों को क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, आदि राशियों के नाम से पुकारते है | उन राशियों में से जन्म के समय में जो राशि लग्न में पड़ती है उसे तनु भाव और उससे द्वितीय स्थान में जो राशि पड़ती है उसका धन भाव एवं तृतीय भाव स्थित राशि को पराक्रम भाव, चतुर्थ भाव की राशि को सुख, पञ्चम भाव से विद्या पर संतान, षष्ठ भाव की राशि को शत्रु भाव, सप्तम भाव की राशि को मृत्यु भाव, नवम भाव की राशि को भाग्य भाव, दशम भाव की राशी को कर्म भाव, एकादश भाव की राशि को लाभ भाव और द्वादश भाव की राशि व्यय भाव कहते है | इष्टकाल क्षण क्षण में बदलता रहता है | तदनुसार लग्न राशि और उनकी भाव राशियाँ बदलती रहती है | अत एव तनु आदि द्वादश भावों में मेषादि द्वादश राशियाँ क्रमशः आती जाती रहती है | जब लग्न की राशि मेष राशि होगी तब धनादि भावों में क्रमशः वृष,  मिथुन, आदि राशियाँ पड़ेगी एवं जब लग्न में वृष राशि पड़ेगी तब धनादि भावों में मिथुन एवं कर्क आदि राशियाँ क्रमशः स्थापित होगी | इस प्रकार अन्य लग्न राशियों के भी भावों एवं राशियों का न्यास किया जाता है | 

लग्नों और भावों में राशियों को सतत परिवर्तित होते रहने से उसके फलों में भी परिवर्त्तन होता रहता है | साथ ही ग्रह भी इन भावों और राशियों को अपने प्रभाव से प्रभावित कर फलों में परिवर्त्तन लाते रहते है | इस परिवर्त्तनशील लग्न और भाव वाली कुण्डलियों को चल और मेष लग्न से बनी कुण्डलियों को स्थिर माना जाता  है | फल का विचार करते समय स्थिर और चल कुण्डलियों से विचार करना चाहिए | कुण्डली के द्वादश भावों की संरचना मेषादि द्वादश राशियों से होती है | और ये मेषादि द्वादश राशियां और उनके स्वामी ग्रह अपना प्रभाव भावों पर सतत डालते रहते है | लग्न से द्वादश भावों और उसकी संघियों की जानकारी की विधि के सम्बन्ध में पाश्चात्य और भारतीय आचार्यों के विचार में अंतर पड़ता है | पाश्चात्य ज्योतिषी सायन लग्न मानते है और लग्न स्पष्ट को लग्न यानि प्रथम भाव का प्रारंभ मानते है परन्तु भारतीय ज्योतिषी निरायण लग्न मानते है और लग्न स्पष्ट को लग्न यानि प्रथम भाव का मध्य मानते हैं और द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि द्व्द्श बवों के स्फुट को उन उन भावों के मध्य मानते है | भाव स्पष्ट से लगभग १५ अंश पहले भाव का प्रारंभ और लगभग १५ अंश के बाद उसका अन्त मानते है, जिसे संधि कहते है | संधि कहने का तात्पर्य होता है दों भावों का योग स्थान यही शब्दार्थ से भी प्रसिद्धि प्राप्त है | इस प्रकार संधि को ज्ञात करने के लिए सुगम उपाय यह होगा कि किसी भाव के स्फुट को उससे आगे वाले भाव स्फुट में जोड़कर उसका आधा करने से दोनों भावों का मध्य संधि ज्ञात हो जाएगा | भाव और सन्धि का परिचय इस प्रकार होगा कि भाव स्पष्ट उस भाव का मध्य होता है, उसी तरह सन्धि स्पष्ट सन्धि का मध्य होगा | फलतः भाव स्पष्ट से ७ अंश आगे और पीछे भाव का प्रभाव तथा सन्धि के आगे-पीछे ७ अंश सन्धि का प्रभाव क्षेत्र होगा | मेषादि राशियाँ में ग्रहों का जातक के उपर किस प्रकार -प्रभाव डालती है | इसका निर्णय आचार्यों के ऊपर निर्भर ओ कितने ज्ञानी है |  हम विचार करेगे कि:-


प्रथम भाव में किस प्रकार मेषादि द्वादश राशियां प्राणी को अपने द्वादश भावों के माध्यम से प्रभावित करती है | सुदर्शन चक्र और नवमांश में सबसे बलवान ग्रहों के अनुसार जातक का जीवन मार्ग रहता है | यथा  ;- जब लग्न  ;- इसमें मेष राशि होती है तब प्राणी या मनुष्य पर मंगल का प्रभाव विशेष रुप से पड़ता है, क्योंकि मंगल लग्नेश होता है, फलतः वह मनुष्य को काम करने में तेज, क्रूर, क्रोधी, लड़ाकू और उग्र स्वभाव प्रदान करता है | अष्टमेश होने के कारण उस पर जिन-जिन ग्रहों का प्रभाव पड़ेगा उनकी प्रकृति स्वभाव और तत्त्व आदि से मृत्यु होगी | किन्तु प्रमुख रुप से दों भावों के अधिपति होने से मंगल बली होकर अल्पायु बनता है | मंगल का प्रभाव चतुर्थ भाव और चन्द्र पर पड़ने से मनुष्य को व्यसनशील बना देता है | लग्न में वृष राशी का स्वामी शुक्र बन जाता है | शुक्र एक सुन्दर आह्लादायक और विलासी ग्रह है | अतः वह मनुष्य को अपने प्रभाव से सुन्दर आकर्षक और विलासी बनाता है | शुक्र की दूसरी राशि लग्न से षष्ठ भाव में पड़ती है, जो अन्यता का प्रतीक है | साथ ही शत्रु एवं चोर का भी पप्रतीक है, अतः इसके प्रभाव से जातक गैर जाती से सम्बन्ध बनता है | लग्नेश शुक्र पर जब लग्न से अष्टम और द्वादश भावों के स्वामी गुरु और मंगल का प्रभाव पड़ेगा तब वह चोट या दुर्घटना भी करेगा | शुक्र बली होकर मनुष्य को परिश्रमी और कार्य करने में दक्ष बनाता है | 

लग्न में मिथुन राशि का स्वामी बुध है | बुध प्रतिभा और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है | अतः बली होकर बुद्धि को तीव्र बनता है, निर्बल होकर बुद्धिमान बनाता है | बुध पर पाप ग्रहों, अष्टमेश और द्वादशेश आदि का प्रभाव पड़ने पर बुद्धि विकृत होती है, घर से दूर रहता है, बुध के साथ चन्द्र पाप प्रभावी बनकर माता की कष्ट देता है | राजकर्मचारी को बदली अधिक करवाता है | बुध और चन्द्र पाप प्रभाव से रहित होकर चतुर्थ भाव से सम्बन्ध बनाएं तो राज्यकार्य संपन्न करनेवाला बन जाता  है | बुध मामा का भी प्रतिनिधित्त्व करता है | अतएव जब षष्ठ भाव यानि मातृभाव से तीसरा भाव और बुध पर पाप प्रभाव अधिक हो तो मामा का कष्ट माना जाता और अन्य विचार करना चाहिए | अगर मिथुन लग्न में बुध पर यदि मंगल का प्रभाव पड़ेगा तो उसका जीवन संघर्षमय हो जाता है | क्योंकि मंगल षष्ठ और एकादश का स्वामी बनकर अधिक अनिष्ट कारक बन जाता है | इस लग्न वालों की कुण्डली में मंगल चतुर्थ भाव और चन्द्र पर अपना स्वभाव डाले तो उसे हिंसा प्रिय बना देता है | लग्न में कर्क राशि हो तो उसका स्वामी चन्द्र होता है | स्त्री रुप में स्वीकार माता, मृदुल और प्रेमी स्वभाव रहता है | चन्द्र स्वच्छ, चंचल, शीतल विचार से युक्त माने जाते है परन्तु नीच होने पर विपरीत स्वभाव हो जाता है | चन्द्र सर्व प्रिय होते है जिस भाव में रहता है उत्तम फल देता है यथा - द्वितीय धन भाव में जाकर कुटुंब से, तृतीय पराक्रम जाकर सोदर, चतुर्थ में जाकर जनता, माता, घर और वहां आदि से अच्छा सम्बन्ध बनाता है |  

सिंह लग्न वाले व्यक्ति पर सूर्य का प्रभाव पड़ता है | सूर्य एक तेजस्वी ग्रह है, सूर्य बली और शुभ प्रभाव में होकर जातक के हृदय, हड्डी,सात्त्विक प्रवृति, उदारता, प्रशासनिक क्षमता आदि को मजबूत बनाता है, और निर्बल बनकर आँख का रोग, अपमान, पेट का रोग और प्रशासनिक क्षमता में कमजोर बनाता है | लग्न कन्या राशि हो तो उसका स्वामी ग्रह बुध होता है | जो बली होकर अपने प्रभाव से जातक को बुद्धिमान, सुन्दर, गायक, पदाधिकारी बनाता है | अशुभ स्थिति में चर्मरोग, बुद्धिमान, पेट और अतड़ी के रोग आदि से परेशान करता है | तुला लग्न हो तो स्वामी शुक्र होता है | शुभ शुक्र बली होता है | शनि पाप ग्रह होकर इसके लिए अतिशुभ कारक बन जाता है | शुक्र का प्रभाव जातक को सुन्दर, विलासी, व्यसनप्रिय आदि बनाता है | इस शुक्र पर जब शुभ बुध, गुरु और चन्द्र का प्रभाव पड़ता है तब जातक को ज्ञानी, सत्यवादी, न्यायप्रिय आदि बनाता है | शुक्र को अष्टमेश होने के कारण इस पर पड़ने वाले ग्रहों के प्रभाव से जातक की मृत्यु या कष्ट की जानकारी होगी | यानि शुक्र पर मंगल या गुरु का प्रभाव पड़े तो दुर्घटना का संयोग बन जाता है | 


लग्न में वृश्चिक राशि हो तो उसका स्वामी मंगल होता है | मंगल उग्र ग्रह है | अतः बली मंगल उग्र स्वभाव, कर्मठ, हठी चोरी से व्यापार करनेवाला, मनमानी करनेवाला आदि बनाता है, इस जातक का मंगल और शनि दोनों मिउलाकर जिस भावेश और भाव से सम्बन्ध बनाता है, उससे जातक का कड़ा विरोध हो जाता है | कारण मंगल षष्ठेश और शनि तृतीयेश होकर अशुभ होता है | धनु लग्न का स्वामी गुरु होता है | जो ज्ञान महत्त्वाकांक्षा, धर्म आदि का प्रतीक माना गया है | शुभ स्थिति में विकास करता है | अशुभ परिस्थिति में गुरु बाधा करते है | शारीरिक दृष्टि से पेट, का रोग, वायु विकार आदि से पीड़ित करता है | मकर लग्न का स्वामी शनि होता है | इसमें शनि क्षुद्र विचार का प्रतीक है | ये संकीर्ण विचार वाले होते, पूर्ण आयु और नीच जाती या नीच कर्म करने वाले होते है | कुम्भ लग्न वाले का भी शनि स्वामी होतो है |जो नीच भावनाओं का प्रतिनिधित्त्व करता है | अतएव जातक का विचार नीच, स्वार्थी और कुछ कर सकते है परन्तु दिखाने में कुछ और रहता है |अगर शुभ तो सम्पत्तिशाली, दीर्घायु और भोगी प्रवृति के होते है | कुम्भ लग्न में गुरु अतिशुभ होता है, वह जिस भाव से सम्बन्ध बनाता है उसे पूर्णरुप से बढ़ता है | शनि और मंगल क्रूर ग्रह है पर क्रियात्मक निजत्व का प्रतिनिध्हित्त्व करते है | इन दोनों का सम्बन्ध जिस किसी भाव से बनाता है,उससे उसका कदा विरोध होता है | मीन लग्न में गुरु का राशि हो उसका स्वामी गुरु बली हो तो उच्च पद वाले, धनी, यशस्वी, धार्मिक, राजसम्मान युक्त बनता है | गुरु पापी या नीच हो जाय तो अपमानित, राज्यविरोधी बनाता है | इसी तरह सूर्य और चन्द्र लग्नों से भी विचार करना चाहिए | 

इस प्रकार प्रत्येक राशि, लग्न भाव में आकर अपने स्वामी ग्रहों के प्रभावों से जातक पर प्रभाव डालती है | या तो कहा जाय कि राशि, भाव और ग्रह भिन्न भिन्न प्रकार से आपस में मिलते है और उन मिलनों से नाना प्रकार के परिणाम को उत्पन्न करते है | ज्योतिष, उन परिणामों काअध्ययन करता है और उसके परिणामिक रुपों को समाज के सामने मूर्त्तरूप में प्रस्तुत करता है | मेषादि द्वादश राशियों का अपना अपना गुण, धर्म, रंग रुप, विचार,आहार, व्यवहार जाति आदि होता है, उसके अनुसार ये राशियाँ जातक पर अपना प्रभाव डालती है | इन प्रभावों का अध्ययन पूर्व के प्रकरणों में हमने किया है | अतः इससे स्पष्ट हो जाता है कि राशियों भावों में जाकर विशिष्ट प्रभावों से जातक को निश्चित रूप से प्रभावित करती है | 


द्वितीय भाव में मेषादि राशियाँ में ग्रहों का जातक के उपर किस प्रकार -प्रभाव डालती है | इसका निर्णय आचार्यों के ऊपर निर्भर करता है कि ओ कितने ज्ञानी है |  द्वितीय भाव से स्वयं का और पैतृक सम्पदा का विचार किया है उसमे जब मेष राशि होती है तब धनेश और भाग्येश दोनों ही मंगल होता है, मंगल बलवान् होकर जातक की पूर्ण धन देता है पर निर्मल मंगल मनुष्य को भिखारी बना देता है | धन नाश करने में स्त्री के छोटे भाई का हाथ विशेष रुप से होता है | शत्रुओं के विषय में असावधान रहने से भी धन का विनाश होता है | विवाह के बाद भाग्योदय होता है | वृष राशि हो शुक्र बलवान् हो तो व्यापार और स्त्री से धनागमन होता है | पर द्वितीयेश होकर वह रोग कारक भी होता है | सुन्दर चेहरा, उत्तम धन और खर्चीला स्वभाव होता है | द्वितीय भाव में मिथुन राशि रहने से बुध द्वितीय एवं पञ्चम भाव का स्वामी होने से जातक वक्ता, बुद्धिमान और धनी बनता है | बुध निर्बल होकर स्त्री के लिए अनिष्ट करता है विचार गाम्भीर्य में कमी होती है | उद्योग, बिजली, विश्वविद्यालय, टेक्नीकल आदि क्षेत्र में सफल होते है | द्वितीय भाव में कर्क राशि होने से जातक सुन्दर, कंजूस, अकस्मात अपव्यय होता रहता है | सांसारिक कार्यो में सहयोग से भी इन्हें परेशानी होती है | सिंह राशि द्वितीय भाव में होने से सूर्य उसका प्रतिनिधित्व करता है फलतः धनार्जन में राजकीय नौकरी या राजकीय कार्य से अधिक सहयोग मिलता है | सूर्य बलवान् होकर जातक को प्रसासनिक कार्यों में लगवाता हैं | वाणी में ओजस्विता लाता है | सूर्य निर्बल होकर आँख में कष्ट, कुटुम्ब से विरोध और राज्य से धन हानि करवाता है |  

द्वितीय भाव में कन्या राशि हो तो उसका स्वामी बुध होता है जो एकादशेश भी होता है | बुध जिन भावों या भावेशों से सम्बन्ध बनाता है उन्हें उत्तमोत्तम फल देता है | निर्बल बुध विद्याध्ययन में बाधा, धन नाश, माता-पिता से दूर या आशीर्वाद नहीं, वाचा शक्ति में दोष रहता है | टेक्नीकल वस्तु, कपड़ों की व्यवसाय, फैंसी स्टोर से लाभ मिलता है | तुला राशि द्वितीय भाव में होने जातक सुख सुविधा प्रेमी, शुक्र नवमेश भी होता है जिससे अचानक धन लाभ मिलता है | शुक्र का सम्बन्ध यदि केतु से हो तो फिर उत्तम राजयोग बनता है | खाने पिने से आप धन कमाने में लाभ होता है | इनकी आकृति मनमोहक और वाणी शिष्ट होती है |  वृश्चिक राशि द्वितीय भाव में होने से जातक बली, सुखी, पराक्रमी, दीर्घजीवी और युवावस्था में सुखी समय रहता है | ये लघु उद्योग में सफलता मिलती है | धनु राशि द्वितीय भाव में रहने से विद्वान्, धनी, वक्ता, तथा कार्य कुशल होते है | गुरु कमजोर और पापी होने से जातक धन का नाश करता और चिंता करवाता है | इन्हें साझेदारी का नहीं करना चाहिए | द्वितीय भाव में मकर राशि होने से जातक पाक्रामी, धनी और बड़े लोगों से संपर्क बनाने वाला है | पापी होने पर डरपोक, आलसी और अनेक बाधाओं से युक्त जीवन चलता है | कुम्भ राशि को द्वितीय भाव होने से आर्थिक दृष्टि से संपन्न बनाता है परन्तु पापी शनि विपरीत फल देता है | साझेदारी में काम करने से पूर्ण लाभ मिलता है | गुरु के साथ उत्तम संयोग बनने पर सम्पूर्ण सुख देता है ;-

लाभे शुक्रे धने जीवे अवयोग शतैरपि |

धनिकः कीर्तिमाश्चैव राजद्वारे प्रसिद्धिमान् ||  द्वितीय भाव में मीन राशि होने से तथा धनु का शुक्र होने से अशुभ योग के बाबजूद जातक धनवान् बनता है |


तृतीय भाव में मेष राशि होने से जातक अपने अनुज पर ज्यादा ध्यान रखता है | पराक्रमी, राजसी प्रकृति, राजकीय क्रियाओं में निपुण, स्व अर्जित संपत्ति, और प्रशन्न रहने वाले होते है | वृष राशि होने पर उच्च पद प्राप्त करता है | इसमें शुक्र दोनों आयु तृतीय और अष्टम भावों का अधिपति होता है | बली होकर पूर्ण दीर्घायु प्रदान करता है | शुक्र पीड़ित और निर्बल होकर अल्पायु बनाता है | तृतीय भाव में मिथुन राशि होने से बुध  ३ / ६ भाव का स्वामी बना है उससे बुध कमजोर हुआ जिससे रोग, क्रोध और अनिष्ट आदि अशुभ भावों का प्रतिनिधि बनकर जितना कमजोर बनेगा पाप फल कम होगा | अतः विपरीत राजरोग बनाएगा एवं जातक को अतिसमृद्ध शाली बना देगा | अतः जातक राजकीय सेवा में उन्नत पदों पर जाता है, धनी और सम्मान प्राप्त करता है | कर्क राशि अगर तृतीय भाव में हो  तो जातक हास्य कलाकार बनता है और चन्द्र जिस भाव में रहता उससे सम्बन्धित लाभ प्राप्त करता | सिंह राशि यहाँ होने से जातक साहसी, उच्च पद और बड़े लोगों के साथ अच्छा सम्बन्ध रहता है | कन्या राशि होने से बुध का जिन भावों और भावेशों से इसका सम्बन्ध बनेगा उसकी हानि होगी | परन्तु जब वह पाप सम्बन्ध में आकर स्वयं निर्बल बनकर जिन भावों और भावाधिपों से बनेगा उन्हें पूर्ण रूप से सुखी संपन्न बना देता है | यह योग विपरीत राजयोग का है | मारकेश भी बन जाता है | तुला राशि वाले अपने भुजा के प्रयोग से राजकार्यों के संपादन में योगदान करता है | इस अवस्था में शनि तृतीय भाव में हो तो अनुज को पूर्ण लाभ मिलता है | वृश्चिक राशि से जातक नीच विचार वाले या नीच जाति या नीच कर्म करने वालों से सम्बन्ध बनाता है | फलतः ऐसे जातक व्यसन, क्रोध, अनुचित कार्यों के सम्पादन आदि से नष्ट कर देता है | इससे जातक में हिंसा की प्रवृति भी लगती है | धनु राशि अगर तृतीय भाव में होने षष्ठ भाव का भी स्वामी बनता है जिससे बली होकर कष्ट और परेशानी का कारक होता है | वह गुरु जिससे सम्बन्ध बनाता है | उसे अनिष्ट फल देता है | निर्बल होकर विपरीत राजयोग बनाता है एवं राजयोग देता है | मकर राशि के आने से शनि बलवान् होता है | सुख सुविधा का विस्तार होता है | कुम्भ राशि शनि बली होकर आयुष्मान्, धनी, शक्तिशाली होता है | परन्तु विपरीत होने से सब कुछ उलटा फल | मीन राशि से गुरु अशुभ भावों का स्वामी होने से गुरु निर्बल होकर पूर्ण संपत्ति शाली बनाता है | 


चतुर्थ भाव में मेष राशि होने से जातक भूमि, मकान और वाहन से आर्थिक लाभ कराता है | पापी मंगल जीवन चक्र को क्रोध या जिद्द से काफी नुकसान कराता है | चतुर्थ भाव में वृष राशि हो और  बली शुक्र पूर्ण राजयोग देता है | जातक आदर्श व्यक्ति, सुख ऐश्वर्य से युक्त बनता है अगर शुक्र निर्बल या पापी हो तो उक्त सुखों में कमी लाता है | मिथुन राशि हो और बुध बली भूमि,जायदाद, वाहन आदि का व्यवसाय या मालिक बनता है | विवाह के बाद भाग्योदय होता है | कर्क राशि होने से जातक को जनता का सेवक बना देता है | जीवां में मित्रों की अधिकता होती है | पत्नी सुन्दर और सुव्यवस्थित होती है | स्त्री प्रेमी और लाभ भी मिलता है | चन्द्रमा मन का प्रतीक है, फलतः जिस भाव से सम्बन्ध बनाएगा | यथा;- लग्न में यश कीर्ति, धन से लाभ, पराक्रम में सहस शक्ति, चतुर्थ में मित्र को, पञ्चम में पुत्र के हितैषी, षष्ठ भाव में चन्द्रमा होने से लाभप्रिय, एवं अन्य भावों में जाकर उससे सम्बंधित फलों की चाह उत्पन्न करता है | सिंह राशि से जातक उत्तम घर से युक्त और प्रशन्न रहने वाला होता है अगर निर्बल हो तो  घर से दूर और नौकरी में बार बार बदलिया होती रहती है | कन्या  राशि से जातक कीर्ति मान, सुख -सुविधा से युक्त, ज्ञानी और सज्जन बनाता है | तुला राशि से जातक को भोग विलास करने का, दीर्घजीवी और सर्व सुख संपन्न होता है | शुक्र पापी या राहू से युक्त होने विपरीत फल और घर से दूर देखने को मिलता है | वृश्चिक राशि से जातक घर, वाहन, उच्चा पद,  राजकृपा और उन्नत्ति आदि से भाग्योदय होता है यही मंगल नीच या निर्बल होने पिता से नही बनता और सुख से वंचित रहता है | धनु राशि से जातक स्वंय सुखी, भूमि, घर द्वार से संपन्न, दीर्घजीवी होता है | गुरु पापी होने से विपरीत फल मिलता है | मकर राशि से जातक बली होकर धन, भूमि पद आदि को देता है | कुम्भ राशि हो तो जातक बली होकर बलवान् होता है | मीन राशि से गुरु हो तो जातक धन, गुण, परोपकार, जनप्रियता आदि प्रदान करता है | 

  

पञ्चम भाव में मेष राशि होने से मंगल बलवान् हो तो धन देता है | परन्तु हंगल द्वादशेश भी है जो अपने से इतर राशि को फल देता है | यदि मंगल पञ्चम भाव में होने से गर्भ पात, पति पत्नी के विचार में अंतर रहता है, तथा विचार स्थिर नहीं होता, जिससे काफी नुकसान होता रहता है | वृष  राशि होने से शुक्र पञ्चमेश और कर्मेश होकर योग कारक हो जाता है, फलतः शुक्र धन, पद, संतान सुख आदि से युक्त रहता है | अगर निर्बल हो तो विपरीत फल मिलता है | मिथुन राशि होने से बुध पञ्चमेश और अष्टमेश होता है, बुध पूर्णबली होकर संतान उच्च पद और अनायास संपत्ति को प्रदान करता है | अगर निर्बल होने से विपरीत फल मिलता है | और वायु विकार से पीड़ित है | कर्क राशि के होने से जातक के पुत्र उच्च पदाधिकारी, स्वस्थ विचार से युक्त जातक होने | सिंह राशि से जातक प्रतिष्ठित व्यक्ति होते है | सुयोग पुत्र, विशेष ज्ञान तथा धैर्यवान् होते है | निर्बल होने से विपरीत फल मिलता है | पञ्चम भाव या सूर्य शनि राहू से पीड़ित हो तो जातक रोग ग्रस्त रहते है | कन्या राशि से जातक बुद्धिमान्, धनी, विद्वान् और वक्ता होते है | निर्बल होने से पुत्र द्वारा धन की क्षति होती है | तुला राशि से जातक धनवान होते है | शुक्र सप्तम भाव में विषयी बना देता है | वृश्चिक राशि से जातक बली होकर प्रबल राजयोग कारक होता है | फलतः धन, पद, प्रताप और मन्त्रणा कार्य की सिद्धि और संसार में कीर्ति प्रदान करता है | निर्बल से जीवन में बाधा और उदर विकार रहता है | धनु राशि से पुत्र से सुख संपदा से संपन्न बनाता है | मकर राशि से संतान सुख में कमी रहता है | कुम्भ राशि से सन्तः सुयोग्य बनता है | मीन राशि से अति शुभ फल देता है | 


षष्ठ भाव में मेष राशि होने पर शत्रुत्ता होती है | वृष राशि होने से जातक इससे चोट का संयोग बनता है | और शुक्र या शनि जिस भाव या भावेश से सम्बन्ध बनाता उससे सम्बंधित रोग या रोगी बनता है | मिथुन राशि से भाग्योदय में मदद करता है | कर्क राशि से छाती से सम्बन्ध बनाता है और अष्टम का चन्द्र बुरी क्रियाओं में लगाता है | सिंह राशि से उच्च पद का योग बना देता है | अष्टम और द्वादश भावों में हो तो रोग प्रदान करता है | कन्या राशि होने से तृतीयेश और षष्ठेश बुध यदि पाप युक्त या दृष्ट होकर सिंह या वृश्चिक में हो तो जातक को विपरीत राजयोग बना देता है | अगर पापी या पीड़ित हो तो अतड़ियों का रोग, टाईफाईड, एपेन्डिसाईट, हौरानियाँ आदि रोगों से पीडिता करता है |   तुला राशि होने से शुक्र जिन जिन ग्रहों से प्रभावित होगा | वैसा जीवन में असर पड़ेगा | वृश्चिक राशि होने से मंगल हिंसा का द्योतक होता है शुक्र से सम्बन्ध दोस्त के कारण कष्ट, मिथुन राशि में मंगल हो चन्द्र की दृश हो तो चोर बनता है | धनु राशि होने से गुरु समदर्शी बन जाता है | मकर राशि होने से कर्कश ध्वनी से धनाभाव रहता है | कुम्भ राशि से कष्ट अधिक, शिक्षा का आभाव रहता है | मीन राशि से परिवार वालों को लाभ मिलता है |   

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                            

सप्तम भाव में मेष राशि होने से दीर्घ जीवी बना देता है | वृष राशि से भी दीर्घ योग बना देता है | शुक्र यदि पञ्चम, द्वितीय और द्वादश भाव में हो तो जातक काम प्रेमी बना देता है | मिथुन राशि और बुध शीघ्र ग्रह होने से विवाह या कोई कार्य जल्दी चाहता है |, बुध और गुरु पर सूर्य, शनि और राहू से अगर पापी हो जाय तो वैवाहिक जीवन अस्तव्यस्त कर देता है | कर्क राशि होने से जातक का वैवाहिक जीवन उत्तम चलता है | सिंह राशि से जातक कुलवंश से युक्त, मनस्विनी तथा रह कृपा बना रहता है | कन्या राशि होने से बुध पर शनि सूर्य का संयोग बना तो वैवाहिक जीवन खराब हो जाता है | तुला राशि से जातक दीर्घजीवी और पञ्चम और द्वादश भाव में शुक्र होने से पर- प्रेमी बना देता है | वृश्चिक राशि होने से जातक प्रेमी और खर्चीला स्वभाव के होते है | धनु राशि सप्तम भाव में होने से एक दुसरे को दीर्घजीवी बनाता है | साथ ही राज कृपा बना रह सकता है | मकर राशिसप्तम भाव में हो तो कठोर और क्रोधी बचन वाला | सेवा प्रिय भी बना देता है | कुम्भ राशि होने से मानसिक सुख नही मिलता है | मीन राशि  होने से वैवाहिक जीवन अच्छा नही चलता है | परन्तु बली गुरु धनी और सुखी बनाता है | 


अष्टम भाव में मेष राशि के होने से अष्टमेश और तृतीयेश मंगल होता है | जो दीर्घायु योग बना देता है | मंगल एवं अष्टम भावों पर जिन भावों का प्रभाव होगा तदनुसार मृत्यु होगी | वृष राशि होने से शुक्र अनिष्ट फल नहीं देती | शुक्ता और असह्तं भाव पर पड़ने वाले प्रभावों के अनुसार जातक की मृत्यु होती है | मिथुन राशि अष्टम भाव में होने से बुध दीर्घायु योग बनाता तथा धनागमन ज्यादा होता रहता है | कर्क राशि अष्टम भाव में होने से और चन्द्रमा पीड़ित के कारण रोगी बना देता है | सिंह राशि होने से बली सूर्य धन, यश और प्रतिशत पादन करता है | कन्या राशि से जातक को धन, शोध कार्य में सफलता मिलती है | विदेश भेजता है | तुला राशि से जातक यश, धन और पराक्रमी बनाता है | अष्टम भाव में वृश्चिक राशि से जातक किसी भी दिशा में जा सकते है जैसे मंगल और अष्टम भाव पर पाप प्रभाव होने से अण्डकोश में कष्ट होता है | यदि मंगल और लग्न पर शनि का प्रभाव पड़ता  हो तो जातक हत्यारा बनता है | कारण यह है कि अष्टम भाव आयु का है और षष्ट से तृतीय  भी है लग्न से घनिष्ट सम्बन्ध भी है| धनु राशि से जातक घर से बाहर या विदेश से धनागमन, दीर्घजीवी होते है | मकर राशि से जातक दीर्घायु और भाग्योदय भी अचानक होता है | कुम्भ राशि से दीर्घ बनाता है | स्त्री की आवाज कठोर होती है या स्त्री से अपमानित होना पड़ सकता है | शनि पीड़ित रहे तो अनिष्ट फल देता है | मीन राशि से जातक और गुरु बली से दीर्घायु होता है तथा विदेश, पुत्र से सुख प्राप्त करता हैं | 


नवम भाव में मेष राशि होने से मंगल राजयोग कारक बन जाता है | बली होकर सम्मान, पद,धन आदि देता है | २२ वर्ष में भाग्योदय होता है | वृष राशि होने से राज्य सम्मान और शुभ जीवन जीने वाला है | २५ वर्ष में भाग्योदय होता है | मिथुन राशि होने से परोपकारी, धार्मिक, स्वार्थहीन बनाता है | कर्क राशि होने से भाग्येश चन्द्रमा होता है | राजकृपा और २४ वर्ष के बाद भाग्योदय होता है | सिंह राशि होने से भाग्येश सूर्य बली होने से उच्च पद, राज्य सम्मान और धार्मिक कार्य करने वाले होते है | कन्या राशि होने से बुध के बाहरी लोगों से भाग्योदय ३२ वर्ष में होता है | तुला राशि होने से शुक्र बली होकर चतुर्थ भाव में होने से पूर्ण उत्तम फल देता है |  २५ वर्ष में भाग्योदय होता है | वृश्चिक राशि होने से जातक को धन कीर्ति और यश देता है | अगर गुरु से सम्नाब्ध होने से धार्मिक कार्य करता है | धनु राशि से जातक का उत्तम समय चलता अगर केंद्र और त्रिकोण से संयोग बन जाता हो तो | ४५ वर्ष में भाग्योदय योग बनता है | मकर राशि से जातक को पूर्ण राजयोग कारक बनता है | शनि मन्द ग्रह होता है धीरे-धीरे पदोंनात्ति देता है | कुम्भ राशि होने से जातक को मिश्रित फलदायक होता है | मीन राशि होने से गुरु साधारण फल देता है | कम आयु से लाभ मिलने लगता है | ये उपदेश भी हो सकते है | 


दशम भाव में मेष राशि होने से जातक राजयोग प्राप्त कर सकता है अगर शुभ और बली मंगल हो | जो राज्य, यश, वाहन, घरद्वार आदि देता है | परन्तु सप्तम भाव में हो तो पूर्ण राजयोग बना देता है |  वृष राशि से शुक्र जातक को मिश्रित फल मिलता है | मिथुन राशि होने से जातक का बुध बली होकर शुभ सम्बन्ध में हो तो धन,यश और कीर्ति का लाभ करवाता है | कर्क राशि होने से चन्द्र मकरस्थ हो जाय तो उच्च पद प्राप्त करता है | सिंह राशि से सूर्य बली और शुभ होने से पिता, यश और राज्य सत्ता का भोग करा सकते है | कन्या राशि होने से केन्द्राधिपत्य दोष होता है | उससे बुध मिश्रित फल देता है | तुला राशि से शुक्र पूर्ण राजयोग देता है | मान, यश, पद, घरद्वार आदि का फल प्राप्त करता है | वृश्चिक राशि हो तो जातक को मिश्रित फल मिलता है | धनु राशि होने से केन्द्राधि पत्य दोष पूर्ण शुभ फल देता है | अतः जिस भाव और भावश से सम्बन्ध बनाएगा उसे अभिबर्द्धित करेगा | मकर राशि होने से शनि अशुभ या मिश्रित फल देता है | कुम्भ राशि होने से  शनि शुभ फल देता है | मीन राशि होने से केन्द्राद्धिपत्य दोष बन जाता है | 


एकादश भाव में मेष राशि होने पर मंगल में पापत्व आ जाता है | फलतः मंगल जिस भाव, भावेश और कारक ग्रह से सम्बन्ध बनायेगा उसका अनिष्ट करेगा | वृष राशि होने से मिश्रित फल देता है | शुक्र राहू द्वादश भाव होने से अपनी घर छोड़ना पड़ता है | मिथुन राशि होने से बुध धन दायक होता है सूर्य बुध साथ हो गुरु की दृष्टि होने से धन, यश राज सम्मान आदि प्राप्त करता है | कर्क राशि हो तो धन देता | सिंह राशि होने से सूर्य भी धन और यश देता है | कन्या राशि होने से बुध धन देता है | तुला राशि से हानि ज्यादा होता रहता है | वृश्चिक राशि हो तो मिश्रित फल देता है | धनु राशि होने से गुरु धन प्रद ग्रह होने से पूर्ण शुभ बन जाता है | मकर राशि होने से वाणी कठोर होता है | कुम्भ राशि होने से जातक को धन और भाई का सुख देता है | मीन राशि हो तो बली गुरु अन्वेषण कार्य में सिद्धि प्रदान करता है | 

द्वादश भाव में मेष राशि हो तो मंगल मिश्रित फल देता है | वृष राशि होने से शुक्र बली होकर धन, सम्मान संतति आदि शुभ फल देता है | मिथुन राशि होने से मिश्रित फल देता है | कर्क राशि  होने से चन्द्र जिस भाव या भावेश से सम्बन्ध बनाता है उसकी वृद्धि करता है | सिंह राशि हो तो बली सूर्य होकर उसकी क्षति करता है | कन्या राशि हो तो बुध शुभ फल देता है | ये बली होकर जिस भाव या भावेश पर अपना प्रभाव डालेगा उसकी वृद्धि करता है | तुला राशि होने से शुक्र अशुभ फल देता है | वृश्चिक राशि होने से यहाँ पर मंगल पञ्चम भाव का फल देता है | धनु राशि होने से गुरु कर्म प्रधान बना देता है | मकर राशि से जातक को कर्म प्रधान बना देता है | कुम्भ राशि होने से शनि अशुभ फल देता है | मीन राशि होने से जातक धार्मिक, धन और ज्ञान आदि को प्राप्त करते है | 




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