ज्योतिषशास्त्र और ग्रहों की तत्व ज्ञान
ASTROLOGY AND THE KNOWLEDGE OF PLANETS By Astrologer Dr. S.N. Jha
शिवं प्रणम्याथ सदैव पूज्यं सदा प्रसन्नञ्च गुरुं दयालुम I
ज्योतिर्विदं शास्त्रविचक्षणञ्च,श्री सर्वनारायणमानतोस्मि II
प्रणम्य विघ्नेश्वरपादपदमं , श्री जीवनाथं जनकञ्च पूज्यं I
मीनां सुपूज्यां जननीञ्च देवीं , करोमि यत्नेन हि शोधकार्यम् II
ग्रहों की तत्व ज्ञान
पंडितो के लिए ज्योतिष ज्ञान अच्छा होने के बावजूद कुंडली देखने का उत्तरोत्तर वर्ग है जैसे सामान्य ज्ञान वालों के लिए कुंडली और राशि तथा महादशा या अन्तर्दशा को ही देख के बतायेगे, तो सामान्य फलित मिलेगा, क्योंकि ग्रह हरेक कुंडली में भाव और राशि परिवर्तन करते रहते है तो ग्रहों के स्वभाव में भी परिवर्तन होने लगता है जिससे फलित में अन्तर आने लगता है I
जैसे आप कही पर पुत्र, कही पर पिता, कही पर पत्ति, कही पर आफ़िस स्टाप है -तो परिस्थिति के अनुसार आप प्रस्तुत होते है वैसे ही जन्म कुण्डली और गोचर कण्डली में या अन्य वर्ग कुण्डली में भाव तथा राशि में ग्रहों के अवस्था का ज्ञान दैवज्ञौं को बहुत जरूरी होता है I कुंडली देखने की अनेक तरीका है :---
पराशर मुनि ने प्रथम दृष्टि से- लग्न, राशी, षड्वर्ग, सप्तवर्ग, द्सवर्ग, षोडश वर्ग है I जो विशेष ज्ञान वाले विद्वद वर्ग इन वर्गो का तथा महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यान्तर, सुक्ष्मान्तर और प्राणपद का सदुपयोग करते है I जैसे=
( १.) लग्न और राशी से देखना ( जिसको सामान्य स्तर कहा जाता है यानि मैट्रिक पास पंडित माने जाते ) 50% सही बतायेगे I
( २.) लग्न, राशी, नवांश आदि यानि 6 प्रकार के कुंडली से देखेगे तो, वो ( B A पास पण्डित माने जाते ) 60 % सही बता पायेगे I
( ३.) लग्न और दसवर्ग आदि दस प्रकार के कुंडली से देखेगे ( तो M A पास माने जाते ) 70 % सही बता पायेगे I
( ४.) लग्न और षोडशः वर्ग आदि सोलह प्रकार के कुंडली देख कर फलित बताने वाला ( Ph.D वाला 85 % सही बता पायेगे I
साथ ही फलित करते समय ....देश ,काल और पात्र तथा भाव, भावेश और भावस्थ पर पूर्ण ध्यान देकर आप अपने फलित पर विश्वास कर पायेगे, वैसे सभी को पता होगा ही|
वेदों में ज्योतिष का महत्वपूर्ण स्थान है महर्षि पाणिनि ने “ज्योतिष” को वेदपुरुष का “नेत्र” कहा है:-ज्योतिषामयनं चक्षु : I अर्थात मनुष्य बिना चक्षु इन्द्रिय के किसी दर्शनीय वस्तु का दर्शन करने में असमर्थ होता है I
अप्रत्यक्षाणी शास्त्राणी विवाद्स्तेषु केवलम I
प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्रार्कौ यत्र साक्षिनौ II
अर्थात समस्त “शास्त्र” अप्रत्यक्ष है परन्तु एक ज्योतिष शास्त्र ही ऐसा है जो “प्रत्यक्ष” है, जिसके साक्षी “चन्द्र” और “सूर्य” है I
वेद में भी कहा गया है कि “चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्योअजायत” I अर्थात “चन्द्रमा” वेद के मन से उत्पन्न हुए है तथा वेद के नेत्रों से“सूर्य” की उत्पत्ति कही गयी है, वेदांग ज्योतिष में वेद का सर्वोतम अंग कहा गया है I
यथा शिखामयुराणाम नागाणाम मणयो यथा I
तद्वदवेदांगशास्त्राणाम गणितं मूर्धनिस्थितम II
अर्थात-
वेदांग ज्योतिष की सम्मति में ज्योतिष समस्त वेदांगो में मुर्धस्थानीय है I मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषक प्राणी है I वह सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य स्थापित करना चाहता है I
इसी प्रवृति ने “ज्योतिष” के साथ जीवनका सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उसे बाध्य किया I इसलिए वह अपने जीवन के भीतर ज्योतिष के तत्वों का प्रत्यक्ष दर्शन चाहता है I
इसी कारण वह शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त अनुभव को ज्योतिष की कसौटी पर कसकर, देखना चाहता है कि ज्योतिष का “जीवन में” क्या स्थान है I
भारतीय ज्ञान की समस्त पृष्ठभूमि “दर्शनशास्त्र” है, यही कारण है कि भारत में ज्ञान को दार्शनिक मापदंड द्वारा मापा जाता है I इसी सिधांत के परिप्रेक्षय में वह ज्योतिष को भी इसी दृष्टिकोण से देखता है I
भारतीयदर्शन के अनुसार आत्मा अमर है, इसकी कभी नाश नहीं होता, केवल यह “कर्मो” के अनादी प्रवाह के कारण पर्यायों को बदलता है I भारतीय दर्शन की मान्यता है की दृश्य सृष्टि केवल नाम “रूप” या “कर्म” ही नहीं है, किन्तु इस नामरूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी, स्वतंत्र और अनिवाशी आत्मतत्व भी है I
तथा प्राणिमात्र के शारीर में स्थित यह तत्व नित्य एवं चैतन्य है, केवल “कर्म बंध” के वह परतंत्र और विनाशी दिखलायी पड़ता है I
वैदिक दर्शनों में कर्म तीन प्रकार - संचित कर्म , प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण रूप कर्म कहा गया है:-
किसी के द्वारा वर्त्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म, चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्वजन्मो में, वह सब “संचित” कहलाता है I
अनेक जन्म जन्मान्तरो के संचित कर्मो को एक साथ भोगना संभव नहीं है, क्योंकि इनसे मिलने वाले परिणाम स्वरुप फल परस्पर विरोधी होते है, अतः एक के बाद एक कर भोगना पड़ता है I
”संचित” में से जितने कर्मो के फल का पहले भोगना प्रारम्भ होता है, उतने ही कर्म को “प्रारब्ध” कहते है I तात्पर्य यह है की संचित अर्थात समस्त जन्म जन्मान्तर के कर्मो के संग्रह में से एक छोटे भेद को “प्रारब्ध” कहते है I
यहाँ स्मरण रखना होगा की समस्त संचित का नाम “प्रारब्ध” नहीं, बल्कि जितने भाग का भोग आरम्भ हो गया है वह “प्रारब्ध’ है, मूल रूप से इश्वर की इच्छा कहा जा सकता है|जो “कर्म” अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है I वह “क्रियमाण” है I
इस प्रकार इन त्रिविधि कर्मो के कारण आत्मा अनेक जन्मों को धारण कर संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है I
आत्मा के साथ, अनादी कालीन कर्म प्रवाह के कारण - लिंग-शरीर, कारण-शरीर, और भौतिक- स्थूल-शरीर का सम्बन्ध है I जब आत्मा एक स्थान से इस भौतिक शरीर का त्याग करता है तो “लिंग-शरीर” उसे अन्य “स्थूल-शरीर” की प्राप्ति में सहायक होता है I
इस स्थूल भौतिक शरीर की विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों की निश्चित स्मृति को खो देता है I इसलिए ज्योतिर्विदों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि यह आत्मा मनुष्य के वर्तमान स्थूल-शारीर में रहते हुए भी एक से अधिक जगत् के साथ सम्बन्ध रखता है|
अतः मानव शरीर प्रत्येक जगत् से प्रभावित होता है I ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा उसके वर्तमान शरीर में सर्वत्र व्यापक है तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा विभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है I
बाह्य व्यक्तित्व वह है जिसने इस भौतिक-शरीर के रूप में अवतार लिया है I यह आत्मा की चेतना क्रिया की विशेषता के कारण अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचारों, भावों और क्रियाओं की ओर झुकाव प्राप्त करता है I तथा इस जीवन के अनुभवों द्वारा इस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धि होती है I और यह धीरे धीरे विकसित होकर आंतरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है I
आंतरिक व्यक्तित्व – वह है जो अनेकों बाह्य व्यक्तित्व की स्मृतियों , अनुभवों और प्रवृतियों का संश्लेषण अपने में रखता है I
बाह्य और आंतरिक इस उभय व्यक्तित्व सम्बन्धी चेतना की ज्योतिष में विचार, अनुभव और क्रिया के रूप में त्रिविध माना गया है I
बाह्य व्यक्तित्व के तीनों रूप तो आंतरिक व्यक्तित्व के इन तीनों रूपों से सम्बन्ध है पर आंतरिक व्यक्तित्व के तीन रूप अपनी निजी विशेषता और शक्ति रखते है, जिससे मनुष्य के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक इस त्रिविध जगत् का संचालन होता है I
मनुष्य का अन्तःकरण इन तीनों व्यक्तित्वों के उक्त तीनो रूपों को मिलाने का कार्य करता है I इसी बात की यो भी कहा जा सकता है कि ये तीनों रूप एक मौलिक अवस्था में आकर्षण और विकर्षण की प्रवृति द्वारा अन्तःकरण की सहायता से संतुलित रूप को प्राप्त होते है I
निष्कर्ष यह है कि बाह्य व्यक्तित्व को आकर्षण की प्रवृति और आंतरिक व्यक्तित्व की विकर्षण की प्रवृति प्रभावित करती है, इन दोनों के बीच में रहनेवाला अन्तःकरण इन्हें संतुलन प्रदान करता है I
मनुष्य की उन्नति और अवनति इस संतुलन की तराजू पर ही निर्भर है I
मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप और आंतरिक व्यक्तित्व के तीन रूप तथा एक अन्तःकरण इन सातोंं के प्रतीक रूप में सौर जगत् में रहने वाले सात ग्रह माने गये है I
उपर्युक्त सात रूप सब प्राणियों के एक से नही होते, अपितु जन्म जन्मान्तरोंं के संचित और प्रारब्ध कर्म विभिन्न प्रकार के है I अतः प्रतीक रूप ग्रह अपने अपने प्रतिरुप के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की बाते प्रकट करते है I प्रतिरूप की वास्तविक अवस्था बीजगणित की अव्यक्त मान कल्पना द्वारा निष्पन्न अंको के समान प्रकट हो जाती है I
सिधांत प्राचीन काल से ही प्रचलित है I तात्पर्य यह है कि वास्तविक सौर जगत् में सूर्य, चन्द्र, आदि ग्रहों के भ्रमण करने में जो नियम कार्य करते है वे ही नियम प्राणिमात्र के शरीर में स्थित सौर जगत् के ग्रहों के भ्रमण करने में भी काम करते है I अतः आकाश स्थित “ग्रह” शरीर स्थित ग्रहों के प्रतीक है I
प्रथम कल्पनानुसार बाह्य व्यक्तित्व ( गुरु, मंगल, चन्द्र ) के तीन रूप,और आंतरिक व्यक्तित्व ( शुक्र, बुध, सूर्य ) के तीन रूप तथा एक अन्तःकरण ( शनि ) इन तीनो प्रतिरुपो के प्रतीक ग्रह निम्न प्रकार है :-
- बृहस्पती ग्रह :- बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप विचार का प्रतीक है I यह प्राणिमात्र के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और शरीर संचालन के लिए रक्त प्रदान करता है I जीवित प्राणियों के रक्त में रहने वाले कीटाणुओं की चेतना से इसका सम्बन्ध रहता है I
- इस प्रतीक द्वारा बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप से होनेवाले कार्यो का विश्लेषण किया जाता है I इसलिए ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक ग्रह से किसी भी मनुष्य के आत्मिक, अनात्मिक और शारीरिक इन तीन पक्षों से फल का विचार किया जाता है I
- कारण यह है कि मनुष्य के व्यक्तित्व के किसी भी रूप का प्रभाव शरीर, आत्मा और बाह्य जड़ चेतन पदार्थो पर, जो शरीर से भिन्न पड़ता है I
- उदाहरण के लिए बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप विचार को लिया जा सकता है I मनुष्य के विचार का प्रभाव शरीर और चेतन शक्तियाँ स्मृति, अनुभव आदि तथा मनुष्य से सम्बन्ध अन्य वस्तुओं पर भी पड़ता है I इन तीनों से पृथक् रहकर मनुष्य कुछ नही कर सकेगा I जब उसका जीवन जड़वत स्तब्ध हो जाएगा I
बृहस्पति अनात्मा की दृष्टि से - व्यापार, कार्य स्थान और व्यक्ति जिनका सम्बन्ध धर्म, कानून, मंदिर, न्यायालय, शिक्षा, जनता के उत्सव, दान सहानुभूति आदि का प्रतिनिधित्व करता है I
बृहस्पति आत्मा की दृष्टि से - यह ग्रह विचार, मनोभव और इन दोनों का मिश्रण, उदारता, अच्छा स्वभाव, सौन्दर्य प्रेम, शक्ति, भक्ति एवं व्यवस्था, बुद्धि, ज्ञान, ज्योतिष तन्त्र मंत्र विचार, शक्ति इत्यादि भावों का प्रतिनिधित्व करता है I शरीर की दृष्टि से यह ग्रह पैर, जन्घा, यकृत, पाचन क्रिया, रक्त और नसों का प्रतिनिधित्व करता है I
- मंगल - बाह्य व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतीक है I यह इन्द्रिय ज्ञान और आन्न्देच्छा का प्रतिनिधित्व करता है जितने भी उतेजक और संवेदनाजन्य आवेग है उनका यह प्रधान केंद्र है I
बाह्य आनन्दायक वस्तुओ द्वारा क्रियाशील होता है और पूर्व की आनन्दायक अनुभवो की स्मृतियों को जागृत करता है I यह वांछित वस्तु की प्राप्ति तथा उन वस्तुओ की प्राप्ति के उपायों के कारणों को क्रिया का प्रधान उद्गम है I यह ग्रह प्रधान रूप से इच्छाओ का प्रतीक है I
मंगल अनात्मिक दृष्टि से-सैनिक, डाक्टर, प्रोफ़ेसर, इजीनियर, नाइ, बढई, लुहार, मशीन का कार्य करने वाला, मकान बनानेवाला, खेल एवं खेल के सामान आदि का प्रतिनिधित्व करता है I
मंगल आत्मिक दृष्टि से - यह ग्रह साहस, बहादुरी , दृढ़ता , आत्मविश्वास, क्रोध, लड़ाकू प्रवृति एवं प्रभुत्व आदि भावों और विचारों का प्रतिनिधित्व करता है I
शारीरिक दृष्टि से मंगल बाहरी सिर, नाक, एवं गाल का प्रतीक है I इसके द्वारा संक्रामक, रोग, घाव, खरौच, शल्य चिकित्सा, रक्त दोष, वेदना आदि इन ग्रहों द्वारा होता है I
- चन्द्रमा - बाह्य व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतीक है I यह मानव पर शारीरिक प्रभाव डालता है और विभिन्न अंगो तथा उनके कार्यो में सुधार करता है I वस्तु जगत् से सम्बन्ध रखने वाले, पिछले मस्तिष्क पर इसका प्रभाव पड़ता है I
- बाह्य जगत् की वस्तुओ द्वारा होनेवाली क्रियाओ का इससे विशेष सम्बन्ध है I संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि चन्द्रमा स्थूल शरीरगत चेतना पर प्रभाव डालता है तथा यह मस्तिष्क में उत्पन्न होनेवाले परिवर्तन शील भावो का प्रतिनिधि करता है I
चन्द्रमा अनात्मिक दृष्टि से - यह ग्रह श्वेत रंग,जहाज,बन्दरगाह, मछली, जल, तरल पदार्थ, नर्स, दासी , भोजन, रजत और बैगनी रंग के पदार्थो पर प्रभाव डालता है I
चन्द्रमा आत्मिक दृष्टि से - यह ग्रह संवेदना आंतरिक इच्छा, उतावलापन, भावना, विशेषतः घरेलू जीवन की भावना, कल्पना, सतर्कता, एवं लाभेच्छा पर प्रभाव डालता है I
चन्द्रमा शारीरिक दृष्टि से - पेट,पाचन शक्ति, आते, स्तन, गर्भाशय, गुप्तांग, आख एवं नारी के समस्त गुप्तांगो पर इसका प्रभाव पड़ता है I
- शुक्र - यह आंतरिक व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक है I यह सूक्ष्म मानव चेतनाओ की विधेय क्रियाओ का प्रतिनिधित्व करता है I पूर्णबली शुक्र निःस्वार्थ प्रेम के साथ प्राणिमात्र के प्रति भ्रातृत्व भावना का विकास करता है I
- शुक्र अनात्मिक दृष्टि से – सुन्दर वस्तुए, आभूषण , आनन्ददायक चीजे, नाच, गान, वाद्य, सजावट की चीजे कलात्मक वस्तु,एवं भोगोपभोग की सामग्री आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है I
- शुक्र आत्मिक दृष्टि से - स्नेह, सौन्दर्य, ज्ञान, आराम ,आनन्द, विशेष प्रेम, स्वच्छता, परखबुद्धि, कार्य क्षमता आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है I
- शारीरिक दृष्टि से शुक्र - गला, गुर्दा, आकृति, वर्ण, केश और जहा तक सौन्दर्य से सम्बन्ध है I साधारण शरीर संचालित करने वाले अंगो एवं लिंग आदि पर इसका प्रभाव पड़ता है I
- बुद्ध ग्रह - आंतरिक व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतिनिद्धित्व करता है| यह ग्रह प्रधान रूप से आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है I
इसके द्वारा आंतरिक प्रेरणा, सहेतुक निर्णयात्मक बुद्धि, वस्तु परीक्षण शक्ति, समझ और बुद्धिमानी आदि का विश्लेषण किया जाता है I इस प्रतीक में विशेषता यह रहती हैकि यह गंभीरतापूर्वक किये गये विचारो का विश्लेषण बड़ी रूचि से करता है I
बुद्ध अनात्मिक दृष्टि से - स्कूल, कॉलेज का शिक्षण, विज्ञानं , वैज्ञानिक और साहित्यिक स्थान, प्रकाशन स्थान, सम्पादक, लेखक, प्रकाशक, पोस्टमास्टर, व्यापारी, एवं बुद्धिजीवियों पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है I
पीले रंग और पारा धातु पर भी यह अपना प्रभाव डालता है I
बुद्ध ग्रह आत्मिक दृष्टि से - यह समझ,स्मरण शक्ति ,सूक्ष्म कलाओ की उत्पादन शक्ति एवं तर्क शक्ति आदि का प्रतिनिद्धि है I
बुद्ध शारीरिक दृष्टि से - यह ग्रह मस्तिक, स्नायु क्रिया , जिह्वा, वाणी, हाथ तथा कला पूर्ण कार्यौत्पाद्क अंगो पर प्रभाव डालता है I
- सूर्य ग्रह - आंतरिक व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतिनिद्धि है I यह पूर्ण देवत्व की चेतना का प्रतीक है I इसकी सात किरणे है जो कार्य रूप से भिन्न होती हुए भी इच्छा यह मनुष्य के रूप में पूर्ण होकर प्रकट होती है I यह मनुष्य के विकास में सहायक तीनो प्रकार की चेतनाओ के संतुलित रूप का प्रतीक है I
- यह पूर्ण इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, सदाचार, विश्राम, शांति, जीवन की उन्नति एवं विकास का द्योतक है I
सूर्य अनात्मिक दृष्टि से - जो व्यक्ति दुसरो पर अपना प्रभाव रखते हो ऐसे राजा, मंत्री, सेनापति, सरदार, आविष्कार, पुरातत्व वेता आदि पर अपना प्रभाव डालता है I
सूर्य आत्मिक दृष्टि से - यह ग्रह प्रभुता,एश्वर्य प्रेम, उदारता, महत्वाकांक्षा, आत्म्विश्वास, आत्मनिरुपम, विचार और भावनाओ का संतुलन एवं सह्र्यदयता का प्रतीक है I
शारीरिक दृष्टि से सूर्य - ह्दय,रक्त संचालन,नेत्र रक्त वाहक,छोटी नर्से,दांत कान आदि अंगो का प्रतिनिद्धि है I
- शनि ग्रह - ये अन्तःकरण का प्रतीक है I यह बाह्य चेतना और आंतरिक चेतना को मिलाने में पुल का काम करता है I प्रत्येक नवजीवन में आंतरिक व्यक्तित्व से जो कुछ् प्राप्त होता है और जो मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों से मिलता है, उससे मनुष्य को यह ग्रह अन्दर ही अन्दर मजबूत करता है I
यह ग्रह प्रधान रूप से “अहम” भावना का प्रतीक होता हुआ भी व्यक्तिगत जीवन के विचार,इच्छाऔर कार्यो के संतुलन का भी प्रतीक है I
विभिन्न प्रतीकों से मिलने पर यह नाना तरह से जीवन के रहस्यों को अभिव्यक्त करता है I उच्च स्थान अर्थात तुला राशि का शनि विचार और भावो की समानता का द्योतक है I
शनि अनात्मिक दृष्टि से - कृषक, हलवाहा, पत्रकवाहक, चरवाहा, कुम्हार, माली, मठाधीश, पुलिस, अफसर ,उपवास करने वाले, साधू,आदि व्यक्ति तथा पहाड़ी स्थान, चट्टानी प्रदेश, बंजरभूमि, गुफा, प्राचीनध्वंशस्थान, श्मशान, मैदान आदि का प्रतिनिधि करता है I
शनि आत्मिक दृष्टि से - तात्विक ज्ञान,विचार स्वतन्त्र्य, नायकत्व, मननशील, कार्य परायणता, आत्म संयम, धैर्य, दृढ़ता, गम्भीरता, चरित्र शुद्धि, सतर्कता, विचारशीलता एवं कार्यक्षमता का प्रतीक है I
शनि शारीरिक दृष्टि से - हड्डिया,नीचे के दात,बड़ी आत एवं मांस पेशियों पर प्रभाव डालता है I
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सौर जगत् के सात “ग्रह” मानव जीवन के विभिन्न अवयवो के प्रतीक है I इन सातो के क्रिया फल द्वारा ही जीवन का संचालन होता है I प्रधान “सूर्य” और “चन्द्र” बौद्धिक और शारीरिक उन्नति अवन्ती के प्रतीक मने गये है I
पूर्वोक्त जीवन के विभिन्न अवयवो के प्रतीक ग्रहों का क्रम दोनों व्यक्तित्वों के तृतीय,द्वितीय,प्रथम और अन्तःकरण के प्रतीकों के अनुसार है I
अर्थात - आंतरिक व्यक्तित्व के तृतीय रूप का प्रतीक सूर्य ,बाह्य व्यक्तित्व तृतीय रूप का चन्द्रमा,बाह्य व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतीक मंगल ,आंतरिक व्यक्तित्व के द्वितीय रूप का प्रतिक बुध ,बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक बृहस्पति,आंतरिक व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक शुक्र एवं अन्तः करण का प्रतीक "शनि" है I
इस प्रकार सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि इन सातो ग्रहों का क्रम सिद्ध होता है, अतः स्पष्ट होता है कि मानव जीवन के साथ ग्रहों का अभिन्न सम्बन्ध है I
अति सुन्दर प्रस्तुति गुरु जी 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंAnand
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