उत्तरार्ध - ग्रहोपचार और रत्न विचार | Pathharon Aur Raton Ke Baare Mein Jaane By Astrologer Dr. Sunil Nath Jha
उत्तरार्ध - ग्रहोपचार और रत्न विचार | Pathharon Aur Raton Ke Baare Mein Jaane By Astrologer Dr. Sunil Nath Jha
उत्तरार्ध- (ग्रहोपचार और रत्न विचार)
सौर मंडल में जिस प्रकार जातक के जन्म के समय में ग्रहों की स्थिति रहती है, उसी स्थिति को जन्म कुंडली के माध्यम से दर्शाया जाता है जिसमें द्वाद्श भाव होता है I प्रत्येक भाव का अपना अलग- अलग कार्य- क्षेत्र है, जिससे मनुष्य के जीवन के सभी कार्यों का ज्ञान हो जाता है I सौर-मण्डल में मुख्यतः सात ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि तथा दो छाया ग्रह राहु और केतु माने जाते है I इन नवग्रहों के भी अलग- अलग कार्य-तथा प्रभाव क्षेत्र है I ये सातों ग्रह द्वादश भावों के स्वामी है I तथा द्वादश भावों को प्रभावित करते रहते है I
रोगादयमुत्स्थास्यति नवेति लग्नं भिषग् द्युनम् l
व्याधिर्दशम रोगी हिबुकं भैषजमित्याहुराचार्याः ll
क्रूरार्दिते विलग्ने वैद्यान्न गुणस्तदौषधाद्रोगः l
वृद्धिमुपयाति दशमे क्रूरैर्निजबुद्धितोऽप्यगुणाः ll
अस्ते च क्रूरयुक्ते मांद्यान्मांद्यं तथौषधाद् बंधौ l
सौम्योपगर्तैर तैररोगिता रोगिणो वाच्या ll
स्थिरलग्ने यदा जीवः शुभो वा केंद्र कोणगः l
रोगप्रश्ने वदेत्स्वस्थं व्यस्तं दृष्टोदये खलैः ll
कंट काष्ट त्रिकोणस्थाः शुभा उपचये शशी l
लग्ने च शुभ संदृष्टे रोगी रोगाद्विमुच्यते ll
लग्ननाथे च सबले केन्द्रसंस्ठे शुभ ग्रहे I
उच्चगे वा त्रिकोणै वा रोगी जीवति निश्चयम् II
एकः शुभो बली लग्ने त्रायते रोगापीडितम् I
सौम्या धर्मारिलाभस्थास्तृतीयता गदापहाः II
अर्थात्
किसी जातक की कुंडली से -- जातक निरोग होगा या नहीं .?, ऐसे प्रश्न में लग्न से दैवज्ञ, वैद्य या डाँ का विचार करे, सप्तम अष्टम भाव से रोग का विचार, दशम भाव से रोगी का विचार तथा चतुर्थ भाव से औषध जानना चाहिए I यदि गोचर लग्न में क्रूर ग्रह हो तो चिकित्सक से फायदा न होकर उनकी दबाई से रोग की वृद्धि होती है I
दशम भाव में क्रूर ग्रह हो तो कुपथ्य (इन्फेक्शन ) आदि से रोग में वृद्धि होता है I सप्तम भाव में क्रूर ग्रह हो तो एक रोग से दूसरा रोग होता है तथा चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हो तो औषध से अन्य रोग उत्पन्न हो जाता है यदि इन भावों में शुभ ग्रह हो तो रोगी निरोग होता है I
स्थिर राशि वृष सिंह वृश्चिक और कुम्भ के लग्न में गुरु हो व केंद्र त्रिकोण में बलवान् शुभ ग्रह हो तो जातक को स्वस्थ्य कहना चाहिए I यदि पाप ग्रह से युत या दृष्टि स्थिर राशि का लग्न हो तो रोगी कहना चाहिए I केंद्र, अष्टम या त्रिकोण भाव में शुभ ग्रह हो एवं चन्द्रमा उपचय भाव में ३,६,१० या ११ भाव में हो और लग्न को शुभ ग्रह देखते हों तो रोगी स्वस्थ्य होता है I
लग्नेश शुभ ग्रह हो और बलवान् होते हुए केंद्र में में हों या उच्चराशि का हो या त्रिकोण में हो तो रोगी स्वस्थ्य होता है और जीवित रहता है I यदि कुंडली में एक भी बलवान् शुभ ग्रह लग्न में हो तो रोगी मनुष्य का रक्षण करता है अगर कुंडली या गोचर ३,६,९ या ११ भावों में शुभ ग्रह बैठे हों तो रोग का नाश होता है I जिन ग्रहों से कष्ट मिलना है उनके शत्रु ग्रहों का या लग्नेश या भाग्येश का रत्न धारण करना चाहिए |
मानव अनादिकाल से ही रत्नों के प्रति उत्साहित और आकर्षित रहा है और आने वाले समय में भी रहेगा क्योंकि रत्न आपके सौन्दर्य में तो चार चाँद लगाते ही है साथ में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इनमें दैवीय शक्तियों का वास होता है |
सभी 9 रत्न व्यक्ति के रोग, आर्थिक समस्या, पारिवारिक कलह , दाम्पत्य जीवन में सुख की कमी , संतान सुख से वंचित होना और भी बहुत से दुखों को दूर करने की शक्ति रखते है | विधि अनुसार रत्न धारण करने से जीवन में सुख-सम्रद्धि आने लगती है व सकारात्मक उर्जा का संचार होने लगता है |
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सभी 9 रत्न सौरमंडल के नवग्रह के सूचक है जिनके शरीर पर धारण करने से ग्रह संबधी दोष दूर होते है | ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार रत्नों में मानव जीवन से जुडी सभी समस्याओं को हल करने की शक्ति निहित होती है बशर्ते रत्न को व्यक्ति की कुंडली के अनुसार धारण किया जाना चाहिए |
एक जातक की कुंडली में कमजोर ग्रह से शुभ फल प्राप्त करने हेतु रत्न धारण किया जाता है | रत्न धारण करने से जातक की कुंडली का वह ग्रह जो नीच स्थान पर है और शुभ फल नहीं दे पा रहा, उस ग्रह से सम्बंधित रत्न धारण करने से वह ग्रह शक्तिशाली होने लगता है व शुभ फल देने लगता है |सभी 9 रत्न पृथक-प्रथक रूप से अलग-अलग 9 ग्रहों को संबोधित करते है उन्हें प्रबल बनाते है |
- सूर्य ग्रह की प्रबलता के लिए – मानिक रत्न
- चंद्रमा ग्रह की प्रबलता के लिए – मोती रत्न
- मंगल ग्रह की प्रबलता के लिए – मूंगा रत्न
- बुध ग्रह की प्रबलता के लिए – पन्ना रत्न
- गुरु ग्रह की प्रबलता के लिए – पुखराज रत्न
- शुक्र ग्रह की प्रबलता के लिए – हीरा रत्न
- शनि ग्रह की प्रबलता के लिए – नीलम रत्न
- राहू ग्रह की प्रबलता के लिए – गोमेद
- केतु ग्रह की प्रबलता के लिए – लहसुनियां
- रत्नों के बारे में आयुर्वेद में रसरत्नसमुच्चय में रत्नों के धारण करने से ग्रहों की प्रशन्नता, दीर्घायुष्य, आरोग्य, विभव, उत्साह की प्राप्त तथा अलक्ष्मी का विनाश होता है I रत्न को सविधि संस्कार के बाद ही धारण करे I
- मेष के लिए : – मेष राशी के स्वामी स्वभाव से बहुत ही उग्र व शीघ्र ही क्रोधित होने वाले होते है | इस राशि के लिए मूंगा रत्न धारण करना विशेष फलदायी सिद्ध हो सकता है | इस रत्न के पहनने से जातक का मन शांत रहता है |
- वृष के लिए : वृषभ राशी के स्वामी स्वाभाव से भावुक व शीघ्र ही दूसरों पर विश्वास कर लेते है | उनके लिए हीरा रत्न धारण करना सबसे उत्तम माना गया है | हीरे के प्रभाव से जातक ऐसे व्यक्तियों से स्वतः ही दूर होने लगता है जो उसे हानि पहुंचाने की चेष्टा करते है |
- मिथुन के लिए :- मिथुन राशी के स्वामी कला के प्रति सवेंदनशील रहते है | किन्तु इस राशी के स्वामी बहुत परिश्रम के बाद सफलता प्राप्त करते है | मिथुन राशी के स्वामी को पन्ना रत्न धारण करना चाहिए, इससे उन्हें अपने कार्य क्षेत्र में सफलता मिलती है |
- कर्क के लिए : – कर्क राशि के स्वामी बुद्धि से बहुत तेज होते है | उनके विचारों को नियंत्रित करने के लिए उन्हें मोती रत्न धारण करना चाहिए | वैसे मोती अपने स्वभाव से इच्छा को बढ़ा देता है I
- सिंह के लिए : – सिंह राशि के स्वामी स्वभाव से उदार व संघर्षशील होते है | इन्हें सफलता बहुत मेहनत के बाद प्राप्त होती है | इस राशि के स्वामी को माणिक रत्न धारण करना चाहिए |
- कन्या के लिए : – स्वभाव से बहुत ही चंचल व दूसरों के प्रति संवेदना रखने वाले कन्या राशि के स्वामी को पन्ना रत्न धारण करने से लाभ प्राप्त होता है |
- तुला के लिए : – तुला राशि के स्वामी बहुत सी खूबियों के मालिक होते है | उन्हें दूसरों को अपने नियंत्रण में रखना यानी नेतृत्व करना पसंद है इनमें धन कमाने की चाह ओरों से अधिक होती है | इस राशि के स्वामी के लिए ओपल , ब्लू डायमंड और टोपाज धारण करना लाभप्रद है जो सही नही है I
- वृश्चिक के लिए : – इस राशि के स्वामी स्वभाव से धैर्यवान होते है व काफी परिश्रम के बाद इन्हें सफलता अर्जित होती है | वृश्चिक राशि के स्वामी को मूंगा रत्न धारण करने की सलाह दी जाती है |
- धनु के लिए : – धनु राशि के स्वामी शारीरिक रूप से मजबूत होते है व किसी भी कार्य को पूर्ण किये बिना उसे दूसरों को सौंप देते है | इस राशि के स्वामी को पुखराज धारण करना चाहिए |
- मकर के लिए :- मकर राशि के स्वामी सदैव दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते है |इन्हें अपनी मेहनत का फल थोड़ी देर से मिलता है | व नीलम रत्न धारण करना इस राशि के जातक के लिए सबसे अधिक लाभप्रद सिद्ध हो सकता है |
- कुम्भ के लिए : – इस राशि के स्वामी बुद्धि के भण्डार होते हुए भी आत्मविश्वास से कमजोर होते है | शारीरिक रूप से थोड़े कमजोर होते है | इन्हें नीलम रत्न धारण करना चाहिए |
- मीन के लिए : – मीन राशि के स्वामी जीवन की प्रति उत्साह रखने वाले होते है किन्तु इनका स्वास्थ्य थोडा कमजोर ही रहता है | इस राशी के स्वामी को पुखराज धारण करना चाहिए |
- चाँदी की अँगूठी धारण करने से होने वाले लाभ मंत्र, यंत्र और तंत्र साधनाएं | मंत्र-यंत्र व तन्त्र साधनाओं के विषय में सम्पुर्ण जानकारी धन प्राप्ति का यह उपाय सबसे पुराना और सबसे अधिक प्रभावी है सभी 9 रत्न आभूषण के रूप में प्रयोग होने के साथ-साथ आपकी समस्याओं के निवारण के रूप में भी प्रयोग होते है | किन्तु किसी रत्न का सकारात्मक प्रभाव तभी सामने आता है जब वह पूर्ण विधि के अनुसार व कुंडली के अनुरूप धारण किया जाये | विपरीत रत्न धारण करने से जातक को भारी हानि का सामना करना पड़ सकता है ऐसे में तुरंत रत्न को उतार देना चाहिए व अच्छे ज्योतिष आचार्य से सलाह लेकर उचित रत्न धारण करना चाहिए |
प्रायः सभी ज्योतिषी इन्हीं ग्रहों के योगायोग जन्म का समय और स्थान की देखकर भविष्य का निर्धारण करते हैं I लेकिन जन्म समय के ग्रहों की स्थिति पर ही भविष्य की घटनाओं का पूर्णतः नहीं होता I
ग्रहों की वर्तमान स्थिति का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर सबसे ज्यादा पड़ता रहता है जिसे
हम गोचर कालिक प्रभाव कहते हैं I भविष्य निर्धारण के समय इन पर भी विचार करना परमावश्यक है क्योंकि ये जन्म कुंडली से परिलक्षित घटनाओं के घटित होने में सहायक होते है
I
कुण्डली में जो भाव- भावेश पापग्रह से सम्बन्ध कर दूषित हो जाता है अपने भाव सम्बन्धी फलों में पाप ग्रह के बल के अनुसार हानि प्राप्त करता है किन्तु यदि शुभ ग्रह से सम्बन्ध कर प्रभावित होता है तो उस भाव के शुभ फलों में वृद्धि होती है I
यदि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ग्रहों से भाव प्रभावित होता है तो उस भाव का फल मिश्रित रुप में प्राप्त होता है I केन्द्रेश या त्रिकोणेश यदि पाप ग्रह हों तो शुभफलदायक होते है और यदि शुभ ग्रह केन्द्रेश अथवा त्रिकोणेश हों तो अपने शुभत्व की हानि करते है I
जो ग्रह अपने मित्र क्षेत्र
में होता है अथवा अपने घर में हों या उसको देखता है तो उसका फल बलशाली होता है I
हमारे तंत्र और वैदिक ग्रंथों में रोग और शोक के कारणों का विशद् विवेचन किया गया है I जब सभी परिणाम कार्य और कारण के सम्बन्ध से होते है तो फिर ये रोग और शोक बिना किसी कारण के नहीं हो सकते है I अतः इस-का ही निरुपण ज्योतिष शास्त्र के द्वारा किया जाता है I हमारे शास्त्रों में रोगों को तीन भागों में बाँटा गया है :-
१. आदि दैविक २.आधि भौतिक ३.आध्यात्मिक
|
इन
तीनों रोगों के निवारणार्थ तीन प्रकार के उपचार भी दिए गए है I यथा:-
१. मणि (रत्न) २. मंत्र द्वारा और ३. औषधीय उपचार
नव ग्रहों का कारक एवं क्षेत्र संक्षेप में ऊपर दिया गया है | जब कुंडली में अथवा गोचर से कोई ग्रह नीच राशि, शत्रु राशि, अशुभ भाव में होता है तो कमजोर होता है या पाप ग्रह से सम्बन्ध कर दूषित होता है तो उस ग्रह से सम्बंधित क्षेत्र प्रभावित होता है | फल स्वरूप शारीरिक रोग या भौतिक सुख-सुविधा, ऐश्वर्य आदि में बाधा उत्पन्न हो जाती है | परन्तु अपने विश्वास के आधार पर फल प्राप्त करेगें : -
मन्त्रे
तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ I
यादृशी भावना यस्य सिर्द्धिर्भवति
तादृशी II
अर्थात् - मन्त्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषध और गुरु में जैसी भावना होती है
वैसी ही सिद्धि मिलती है I
इन दूषित ग्रहों के कारण जो मनुष्य को दुःख कष्ट भोगना पड़ता है, उनसे छुटकारा पाने के लिए उसी ग्रह को पूजा- अर्चना, मंत्र, तंत्र, यन्त्र अथवा अन्य विधि से प्रसन्न करना पड़ता है |
वैज्ञानिकों का मत है कि सूर्य से विभिन्न रश्मियाँ निकलती है जो विभिन्न ग्रहों द्वारा ग्रहण की जाती है | जन्म के समय जो ग्रह सूर्य से दूर होते है, वे सूर्य की किरण रश्मि कम मात्रा में पाने के कारण कमजोर ग्रह होते है और फलस्वरूप उनकी किरणें मनुष्य के शरीर पर बहुत ही क्षीण मात्रा में पडती है |
अतः उस ग्रह का प्रभाव क्षेत्र कमजोर होता है और जब- जब जीवन में गोचर से वह ग्रह सूर्य से दूर चला जाता है तो उस रश्मि की कमी होने के कारण शरीर में उस भाव सम्बन्धी रोग उत्पन्न होता है या उस भाव ग्रह से सम्बंधित कार्य क्षेत्र की हानि होती है जिससे मनुष्य भौतिक क्लेश का अनुभव करता है |
उस रश्मि की कमी को हम विभिन्न ग्रहों के लिए विभिन्न ग्रहों के लिए विभिन्न रत्नों द्वारा पूर्ति कर उस रोग या भौतिक क्लेश से बच सकते है |
आपके कुंडली में पाप ग्रहों के दूषित दर
Rate
of Makeficence :-
ग्रहों
की स्थिति – ७/८ भाव में फल .!... २/४ /१२ भाव में फल
फल -
मंगल –श/रा/ के !- -सूर्य
– मंगल – श/रा/के
उच्च - ५०%- ३७.५०% ! २५% - २५% -१८.७५% -
नीच - १००% ७५%
! ५०% - ५० %-३७.५० %
स्वगृही - ६० %- ४५% !
३०% - ३०%- २२.५० %
मित्रगृही - ७० % - ५२.५० % !
३५%- ३५ % - २६.२५ %
शत्रु गृही – ६० % - ६७.५० % ! ४५ %-
४५ %- ३३.७५ %
सम -
८० % - ६० % ! ४० %- ४० %-
३० %
वैदिक ग्रंथों में उस ग्रह की शक्ति को वैदिक मन्त्रों के द्वारा पूजा-पाठ के माध्यम से जागृत करने तथा उन ग्रहों को प्रसन्न करने का सुझाव देते है | तांत्रिक- मार्ग से भी तंत्र, मंत्र, यन्त्र तथा तांत्रिक टोटकों द्वारा उस ग्रह को प्रसन्न करने अथवा अशुभ ग्रह को कवच धारण करने की सलाह मिलती है एवं वैद्यजन डॉक्टर उन उन ग्रहों से उत्पन्न कफ, पित्त या वायु का उपचार औषधियों के द्वारा करते है |
अस्तु साधन जो
भी साध्य लक्ष्य एक ही होता है –उस दूषित या कुपित ग्रह को प्रसन्न करना या उनकी
शक्ति को न्यूनाधिक करना, जिससे शारीरिक या भौतिक कष्ट का निवारण हो सके अथवा कमजोर
शुभ ग्रह को बलशाली बनाया जा सके जिससे पाप ग्रह का बुरा प्रभाव नहीं पड़ सके |
किस ग्रह को मजबूत करे या किस ग्रह को पूजा करके प्रसन्न करे, यह बहुत ही सूक्ष्म और विचारणीय विषय है I जन्म या चन्द्र कुण्डलीं से बताया जाता है जो ४०% ही सही परन्तु जीवन नवांश कुण्डलीं से चलता है वैसे किसी अच्छे सुविज्ञ ज्योतिषी से ही अपनी कुंडली दिखाकर ग्रहोपचार करे I
९० % देखा गया है कि जो ग्रह जन्म
कुंडली में दूषित भाव में है या जिसकी दशा चल रही उसी का रत्न धारण करवा देते है
जिससे उन्हें अधिक शक्ति प्रदान किया गया तो दूषित भावों में रहने के कारण हानि
करने की क्षमता अधिक बढ़ जाती है और अच्छाई की जगह नुकशान ही हो जाती है | रत्नधारण
करने में ध्यान रहे की दो ग्रह जो आपस में शत्रु है उन दोनों का रत्न एक साथ धारण
नहीं करना चाहिये | वैसी स्थिति में एक का रत्न तथा दुसरे का यन्त्र धारण करना
चाहिये |
कतिपय विद्वानों का मत है कि लग्नेश को रत्नों द्वारा शक्ति प्रदान करने तथा ग्रहों की कुण्डली में स्थिति एवं अन्य दूषित ग्रहों से सम्बन्ध के अनुसार यदि उनकी शक्ति बढानी हो तो रत्न द्वारा बढ़ाने और अन्य दूषित ग्रहों को पूजा-पाठ, जप, टोटका आदि द्वारा प्रसन्न करना चाहिये अथवा उनकी बुरी कारकत्व शक्ति को क्षीण करना चाहिये अथवा कवच, पाठ, यंत्र, रुद्राक्ष आदि धारण कर उन ग्रहों के बुरे असर से रक्षा करें |
शुभ ग्रह की दृष्टि अथवा युक्त सम्बन्ध होने पर पाप ग्रह के द्वारा उत्पन्न पाप फल में न्यूनता आती है |
उस स्थिति में शुभ ग्रह को भी बलशाली कर देने से पाप
ग्रह निष्क्रिय हो जाते हैं और अशुभ फल से बच सकते है | साध्य एक है और साधन अनेक
हो सकते है |अपनी क्षमता के अनुसार अभीष्ट फल प्राप्त करने के लिए साधन का चयन सुविज्ञ
ज्योतिषी के परामर्श द्वारा कराना चाहिये |
नव ग्रहों और अन्य कारण वसात शान्त्यर्थ पूजा विधान :-
रत्न धारण :- बाहरी सौरमंडल की विभिन्न रश्मियों को कमजोर शुभ ग्रहों को बलशाली बनाने के लिए तथा बल-शाली ग्रहों को और बलशाली बनाने के लिए उस रश्मि के अनुरूप रत्नों में योग कराकर शरीर में चर्म द्वारा प्रवेश कराया जाता है जिससे शत्रु ग्रह या अशुभ ग्रह या पाप ग्रह का प्रभाव उस कमजोर ग्रह पर नहीं पड़ सके तथा वह ग्रह अपना उचित शुभ फल प्रदान कर सके |
विभिन्न ग्रहों के लिए
विभिन्न रत्न, उपरत्न तथा धातु निर्धारित है | उस धातु में रत्न जड़वाकर उस ग्रह की
पूजा कर रत्न को संस्कारित कर निर्दिष्ट दिन और समय में निर्दिष्ट उँगली में ही
धारण करने का विधान है |
पूजा : क्षेत्रीय आधार पर षोडशोपचार या पञ्चोपचार विधि से ग्रहों की पूजा, विनियोग, अंगन्यास, कर न्यास, ध्यान आदि प्रक्रिया के द्वारा उन्हें प्रसन्न करने के लिए विधान किया गया है | जिससे वे ग्रह अपना अशुभ फल प्रदान नहीं करें तथा शुभ ग्रह और अधिक शुभ फल प्रदानकरें | नामावली स्त्रोत्र पाठ आदि पूजा का ही अंग है|
ग्रह
का कवच पाठ:- शुभ ग्रहों को उनका कवच पाठ से उन्हें
विशेष बलशाली बनाकर सुरक्षित रखने का विधान है | जिससे अशुभ फलदायक या पाप ग्रह उन
शुभ फलदायक ग्रहों को कमजोर बनाकर अशुभ फल दाता नहीं बना सकें |
जप:- जो व्यक्ति नित्य पूजा- पाठ, कवच, रत्न धारण या व्रत स्वयं नहीं कर सकते है, वे किसी कर्मठ ब्राह्मण द्वारा वैदिक या तांत्रिक मंत्र की निश्चित संख्या में जप का संकल्प पूर्वक अनुष्ठान दें |
उसका दशांश हवन, उसका दशांश तर्पण, उसका दशांश मार्जन, उसका दशांश ब्राह्मण भोजन करावें | इसे यदि स्वयं करें तो अधिक फलदायक होता है इस जप को करने से अशुभ फल दायक ग्रहों की शांति होती है | जिससे वे प्रसन्न होकर अशुभ फल नहीं देते है |
ग्रह दान :- यदि उपर्युक्त उपायों का कुछ भी उपयोग नहीं कर सकते है तो सबसे सुलभ तरीका है कि पाप ग्रहों या अशुभ ग्रहों को पसंद आने वाली चीजों का संकल्पूर्वक पूजा कर दान कर देने का विधान है जिससे वे ग्रह संतुष्ट होकर अपने आप अशुभ फल देने में न्यूनता अथवा अकर्मण्यता दिखावेंगे |
व्रत:- यदि अर्थाभाव के कारण उपरोक्त विधानों में से कुछ भी करने में असमर्थ हों तो उनके लिए विभिन्न ह्रहों को निर्दिष्ट विशेष दिन में व्रत रखने का विधान है | उस व्रत के दिन उस ग्रह के अनुरूप वस्त्र धारण करे उस ग्रह के आराध्य देव-देवी के समक्ष धुप-दीप दिखाकर स्फटिक या रुद्राक्ष माला पर संक्षिप्त या यथा साध्य जिस विधान से आप संस्कार करते लौकिक, वैदिक या तांत्रिक उसी माध्यम से मंत्र का जप कर सकते है |
इससे उक्त ग्रह प्रसन्न होकर अपना अशुभ फल नहीं देते है और वह पाप ग्रह क्रियाहीन हो जाता है किन्तु मन्त्र जाप के बिना भी व्रत रखा जा सकता है किन्तु जप के साथ व्रत करने के फल में दश गुणा अधिक वृद्धि होती है अर्थात् को फल व्रत से दश महीने में प्राप्त होगा वह फल जप के साथ व्रत करने में एक माह के अन्दर प्राप्त होगा |
यन्त्र :- तंत्र मार्ग में विभिन्न ग्रहों के लिए विभिन्न
यन्त्र का भी विधान है | शुभ ग्रह का उम्का यन्त्र बनाकर धारण करने से वह ग्रह कवच
धारण कर लेते है जिससे उनके ऊपर अशुभ ग्रह का फल देने का असर नहीं हो पाता है और
वह पूर्ण रुप से अपने भाव का शुभ फल देने में सक्षम हों जाता है |
तांत्रिक टोटका :- उपचार में सबसे सीधा सादा सुलभ तरीका
तांत्रिक टोटका है जिसे व्यवहार करने से अशुभ फलदायक ग्रह का अशुभ फल देने के गुण
में न्यूनता या अकर्मण्यता आती है और अशुभ फल से बचा जा सकता है |
तांत्रिक मंत्र :- तंत्र (वाम मार्गी )में षट्कर्म आकर्षण, वशीकरण, सम्मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन एवं मारण का विधान है | कुछ इच्छित फल प्राप्त करने के लिए षट्कर्म तांत्रिक मंत्र की साधना की जाती है | इसमें साधक स्वय को उस कर्म को करने के अनुरुप बनाता है और दैविक शक्ति उपार्जन कर ग्रहों के द्वारा फल के कार्यक्रम में हस्तक्षेप कर अपने इच्छित फल को दिलाता है | तांत्रिक कर्म किसी अच्छे तांत्रिक से ही कराना चाहिए अन्यथा अनिष्ट होने की आशंका रहती है |
जो साधक हैं अपने उपार्जित साधना से कुछ अंश दुसरे को कल्याणार्थ दान कर देते है
तो फलीभूत होता है | इसमें यन्त्र प्रधान है | यदि साधक अपनी उपार्जित संचित पूजी
को बेचता है या उसका दुरूपयोग करता है तो फल प्राप्त नहीं होता है | अतः तान्त्रिक
को यन्त्र या तंत्र का मूल्य नहीं दे उसकी दक्षिणा कह कर ही दें | उपरोक्त दो साधन
रुद्राक्ष और तांत्रिक षट्कर्म मंत्र, नव ग्रहों की शान्ति व्यवस्था के परे है फिर
भी जन साधारण पाठकों की जानकारी के लिए इन्हें दे दिया गया है |
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