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Kya Hota Hai Yagyopaveet Sanskar Ya Janeu Sanskar? - उपनयन - यज्ञोपवीत तथा दीक्षा संस्कार (गुरुशुद्धिः)

Kya Hota Hai Yagyopaveet Sanskar Ya Janeu Sanskar (Upnayan)?            

उपनयन - यज्ञोपवीत तथा दीक्षा संस्कार (गुरुशुद्धिः) 

Kya Hota Hai Yagyopaveet Sanskar Ya Janeu Sanskar? - उपनयन - यज्ञोपवीत तथा दीक्षा संस्कार (गुरुशुद्धिः)

ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे I

 राशौ बलार्थिनः  षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोष्टमे II 

आषोडशाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते I 

आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विंशः II 

इत उर्ध्र्वं त्रयोप्येते यथाकालमसंस्कृताः  I 

सावित्रोपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः II 

                       

  यदि ब्राह्मण का ब्रह्मवर्चसी बालक बनाने की इच्छा हो तो गर्भ से पञ्च वर्ष  में, बलार्थी क्षत्रिय का षष्ठ वर्ष में तथा धनार्थी वैश्य का अष्टम वर्ष में भी उपनयन संस्कार हो सकता है I संयोग वश व्रतबंध मे उक्त काल का अतिक्रमण हो जाय तो ब्राह्मणों के लिए षोडशः १६ वर्ष, क्षत्रियों के लिए द्वाद्विंश २२ वर्ष तथा वैश्यों  के लिए चतुर्विंश २४ वर्ष पर्यन्तं गौण (निकृष्ट ) काल कहा है I यदि यह काल भी व्यतीत हो जाय तो वे उपवीत रहित व्रात्य ( प्रायश्चित ) और शिष्ट समाज में निंश्च( वे व्रात्य यज्ञ के सिवा शुद्ध नहीं हो सकते ) कहे जाते है I 

वटुकन्याजन्मराशेस्त्रिकोणायद्विसप्तगः I

 श्रेष्ठो गुरुः खपट्त्र्याद्ये  पूजयाऽन्यत्र निंदितः I 

शुभोऽतिकाले तुर्याष्टव्ययस्थो  द्विगुणार्चनात् II 

 व्रतकाले तु संप्राप्ते शुद्धिर्यस्य न जयते I

कृत्वार्चां शक्तितः पश्चाद्विधेयं मौञ्जिबन्धनम्  II 

 झषचापकुलीरस्थो जीवोऽप्य शुभगोचरः I 

अतिशोभनतां दद्याद्विवाहोपनयनर्दिषु II

 स्वोचे स्वभे स्वमैत्रै वा स्वांशे वर्गोत्तमे गुरुः I 

रिष्फाष्ट्तुर्यगोऽपीष्टो नीचारिस्थः शुभोऽप्यसत् II  

                                                                                   

             बटुक वा कन्या की जन्म राशि से द्वितीय भाव, पञ्चम, सप्तम, नवम या एकादश ( २,५, ७, ९, ११ )  भाव में गुरु श्रेष्ठ होता है I प्रथम भाव, तृतीय, षष्ठ या दशम भाव में गुरु रहने पर पूजा शांति करने पर शुभ तथा चतुर्थभाव,अष्टम या द्वादश भाव में गुरु रहने पर अशुभ माना जाता है I यदि बालक या कन्या का अतिकाल हो गया हो तो और गुरु ४,८ १२ भाव में निन्दित होता है परन्तु यदि यज्ञोपवीत में समय शुद्धि न हो तो यथाशक्ति गुरु का पूजन करके कार्य करना चाहिए I गोचर वश अशुभ होने पर भी गुरु यदि कर्क,धनु या मीन राशि का हो तो विवाह, यज्ञोपवीत आदि में शुभकारक होता है Iअगर चतुर्थ,अष्टम या द्वादश भाव में गुरु यदि कर्क, स्वराशि, मित्र राशि ( मेष, सिंह, कन्या या वृश्चिक )में, नवांश में अथवा वर्गोत्तम नवांश में हो तो भी शुभ रहता है परन्तु नीचस्थ (मकर )या शत्रु ( मिथुन कन्या, वृष, तुला या मकर ) गुरु शुभ रहने पर भी अशुभ होता है I 

ऋताै वसन्ते विप्राणां ग्रीष्मे राज्ञां शरद्यथ I 

विशां मुख्यं च सर्वेषां द्विजानां चोपनायनम् II 

साधारणं च  मासेषु  माघादिषु  च  पञ्चसु I  

 द्वित्र्येकादशदिक्पञ्चद्वादशीप्रमिते तिथौ II  


उपनयन संस्कार ब्राह्मणों का वसंत ऋतु में, क्षत्रियों का ग्रीष्म में तथा वैश्यों का शरद् ऋतु में करना शुभ रहता है I वैसे पञ्च मास माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाष ज्येष्ठ साधारण तथा शुभ है I द्वितीय, तृतीय, पञ्चमी, दशमी, एकादशी और द्वादशी तिथि शुभ है I 


शुद्धिर्नं विद्यते यस्य प्राप्ते वर्षेऽष्टमे यदि I

 चैत्रेे मीनगते भानौ तस्योपनयनं शुभम् II 

नष्टे  शुक्रे  तथा जीवे दुर्बले चन्द्र भास्करे I

 तत्रोपनयनं कार्यं चैत्रे मीनगते रवौ II 

गोचराष्टकवर्गाभ्यां गुरुशुद्धिर्नं  लभ्यते I

 तत्रोपनयनं कार्यं चैत्रे मीनगते रवौ II 


                 जिस बटुक को अष्टम वर्ष में समय शुद्धिं न हो वा शुक्र और गुरु का अस्त हो वा सूर्य चन्द्र निर्बल हो अथवा गोचर तथा अष्टक वर्ग से गुरु की शुद्धि न मिले तो भी मीन के सूर्य रहने पर चैत्र मास में यज्ञोपवीत संस्कार  करना चाहिए I  


जन्मर्क्षमसलग्नादौ व्रते विद्याधिको व्रती I 

आद्यगर्भे अपि विप्राणां क्षसंत्रादीनामनादिमे II 


                         जन्म नक्षत्र, जन्म मास, जन्म लग्न, जन्म तिथि आदि योग में यज्ञोपवित संस्कार करने से बटुक अधिक विद्वान् होता है, यह समय ब्राह्मणों के प्रथम गर्भोत्पन्न या द्वितीयादि गर्भोत्पन्न बालक के लिए है, क्षत्रिय और विषयों के लिए प्रथम गर्भोत्पन्न बालक को छोड़कर यह समय शुभ है I 


पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाऽग्रजाः I 

उपायनेऽधिकारी स्यात्पूर्वाभावे परः परः II


पिता,पितामह, भाई जिसका यज्ञोपवीतकरना है उस लडके से अधिक उम्र वाले जाती के लोग और एक गोत्र में उत्पन्न लोग ये क्रम एक के आभाव में दूसरा यज्ञोपवीतं देने का अधिकारी होता है I यथा पिता न रहने पर पितामह आदि I


केशान्तं षोडशे वर्षे चौलोक्तदिवसे शुभम् I

 व्रतोक्तदिवसादौ हि समावर्तनमिष्यते  II 

केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते I 

राजन्यबंधोर्द्वाविशे वैश्यश्च व्यधिके ततः II 


उपनयन हो जाने के बाद सोलहवें १६ वर्ष में चौल संस्कारोक्त विधि अनुसार शुभ मुहूर्त्त में बटुक का केशान्त संस्कार करना चाहिए तथा व्रतबंध में कहे हुए दिवस, मास, लग्न आदि की शुद्धि देखकर शुभ समय में समावर्तन संस्कार करना चाहिए I ब्राह्मण का सोलह वर्ष, क्षत्रिय का बाईस २२ वर्ष, तथा वैश्य का चौबीस २४ वर्ष केशान्त संस्कार के लिए शुभ है I वैसे आज कल यज्ञोपवीतं हो जाने पर तुरंत ही समावर्तन संस्कार कर लेते है, इसमें मुहूर्त की आवश्यकता नहीं है, परन्तु जो विधिपूर्वक उपनयनोपरांत बढ़ १२ साल तक ब्रह्मचर्य पालन करते है उनके लिए यह मुहूर्त है I 

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं।


 यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल ग्रहण नहीं किया जाता।

यज्ञोपवीत धारण करने का मंत्र -

बाजसनेयीनाम् ;------   यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् I 

                      आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।(पारस्कर गृह्यसूत्र, ऋग्वेद, २/२/११)

छन्दोगानाम्:----- ॐ यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनह्यामि।।

यज्ञोपवीत उतारने का मंत्र:-----एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।

जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।।

जनेऊ:--  जनेऊ का नाम सुनते ही सबसे पहले जो विचार मन में आती है, वो है धागा, दूसरी चीज है ब्राह्मण। जनेऊ का संबंध क्या सिर्फ ब्राह्मण से है,  जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है। ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है, जिसे ‘यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है, "सन्निकट ले जाना" और उपनयन संस्कार का अर्थ है- "ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना"संस्कार शब्द की व्युत्पत्ति सम पूर्वक ‘कृन्’ धातु से ‘‘धम’’ प्रत्यय करने पर होती है। सम् + कृ + धन = संस्कार। विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में इसका उपयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। प्रसंग के अनुसार संस्कार शब्द के अर्थ, शिक्षा, संस्कृति प्रशिक्षण, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि संस्करण, परिष्करण, शोभा, आभूषण, प्रभाव, स्वरुप, स्वभाव आदि किये जाते हैं। धर्मशास्त्रों में इसका तात्पर्य धार्मिक द्विविध-विधान एवं क्रियाओं से लिया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्मशास्त्रों में संस्कार धार्मिक आधार पर किये जाने वाले उन अनुष्ठानों से है, जो व्यक्ति के शरीर, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास और शुद्धि के लिए जन्म से मृत्यु तक समयान्तर से सम्पन्न किये जाते हैं। संस्कार शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि संस्कार दोष निस्सारणपूर्वक गुणाधान की क्रिया है। इसी प्रकार पञ्चमहायज्ञों की धारणा से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए पञ्चमहायज्ञ करनी चाहिए और समान रुप से संस्कारों के महत्व को स्वीकार करनी चाहिए। संस्कारों के संख्या के विषय में धर्मशास्त्रों में एक मत नहीं है। गृह्यसूत्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठ वर्ष  की, क्षत्रिय की ११ वर्ष की और वैश्य का १२ वर्ष की अवस्था में किया जाता था I तीव्र बुद्धि वाले ब्राह्मण का पञ्च वर्ष, बलवान् क्षत्रिय का छः वर्ष और कृषि आदि करने की इच्छा वाले वैश्य का आठ वर्ष की अवस्था में भी यह संस्कार किया जा सकता या  अधिकतम निर्धारित आयु में  जिन उच्च वर्ण के बालकों का उपनयन नहीं होता वह संघर्ष पूर्ण जीवन जीते है  I  कुछ धर्मशास्त्रों में संस्कार की संख्या सोलह मानी गयी है और कुछ में 40, गौतम धर्मसूत्र में आठ आत्मगुणों के साथ चालीस संस्कारों का विवरण मिलता है। इस संस्कार के बाद बालक द्विज कहलाता है क्योंकि इस संस्कार को बालक का दूसरा जन्म समझा जाता है इस संस्कार के बाद बालक का उत्तरदायित्त्व बहुत बढ़ जाता है I इसी कारण इस संस्कार का बहुत महत्व है I बालक को इस बात की अनुभूति कराई जाती है कि वह अपने परिवार और समुदाय के प्रति अपने कर्तव्य को भली-भाति समझने के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर अभीष्ट योग्यता प्राप्त करें I गृहुसुत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में इसका स्पष्ट वर्णभेद से ब्राह्मण बटुक का आठ वर्ष, क्षत्रिय का ११ वर्ष, वैश्य १२ वर्ष में किया जाना चाहिए पर पार० गृ० सू० में यथा मंगलं वा सर्वेषाम की व्यवस्था भी देता है I उधर आश्व० के अनुसार विलम्ब से १६, २२ और २४ वर्ष तक हो सकता है I वैदिक साहित्य में उपनयन का सर्वप्रथम उल्लेख श० ब्रा० ११५४ में पाया जाता है I  इसके अनुसार इसका स्वरूप अति संक्षिप्त एवं सरल था I शिक्षार्थी हाथ में कुश एवं समिधाए लेकर आचार्य के पास जाता था तथा प्रणाम पूर्वक अपने कुल तथा गोत्र का परिचय देकर उनसे अपना शिष्य स्वीकार करने के लिए विनम्र अनुरोध करता था I उसके परिचय तथा उपयुक्त पात्रता से संतुष्ट होकर आचार्य होकर आचार्य उसे अपना शिष्य स्वीकार कर अपने सान्निध्य में रखने तथा वैदिक ज्ञान में दीक्षित करने का आश्वासन देकर उसे अपने पास रख लेता था तथा वैदिक विद्याओं में पारंंगत होने पर उसका समावर्तन  संस्कार करके गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने के लिए यथावश्यक दिक्षा देकर उसे अपने घर वापस भेज देता था I परवर्ती स्मृतियों में सोलह संस्कार मान्य हैं। मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में संस्कारों की गणना अन्त्येश्टि के साथ है। इस प्रकार प्रामाणिक और युक्ति संगत संस्कारों में मनु द्वारा वर्णित संस्कार प्रामाणिक एवं मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक और वर्ण हैं। गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण,  निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, चूडाकर्म, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, संन्यास और अन्त्येाष्टि संस्कार I 

नामकरण संस्कार - बच्चा जब जन्म लेता है उस समय द्वादश दिवस पर्यन्तं या मासाभ्यन्तरे संस्कार सम्पन्न किया जाता है तथा शिशु को परम्परानुसार गुरुओं द्वारा यज्ञ, हवन करके विद्वान बाल को शतायु होने का आशीर्वाद देते हैं। गृहसुत्रों में बालक के जन्म के 10वें या बारहवें दिन उसका नामकरण संस्कार करने का विधान मिलता है। इसमें शिशु के जन्म नक्षत्र के अनुसार, उस मास के देवता, कुल देवता अथवा लोकविश्रुत किसी सन्त महात्यादि के नाम पर नवजात शिशु  को एक विषेश संज्ञा प्रदान की जाती थी। संस्कार गुरु, पिता अथवा किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के द्वारा सम्पादित होता था। व्यवहार जगत के नाम (संज्ञा) का महत्व समझते हुए आर्य ऋषियों ने इस संस्कार का विधान किया था जो सर्वथा उचित है, लोक में भी प्राय: ऐसा देखा जाता है कि किसी व्यक्ति को विषेश संज्ञा से अभिहित करने से उसके प्रति किये जाने वाले व्यवहार सुगम हो जाते हैं। जातक को नाम जाति के अनुसार देनी चाहिए। इसके निमित्त किसी शुभ मुहूर्त में देवपूजन और यज्ञादि का आयोजन करे,. I 

                       हिन्दू धर्म में प्रत्येक  ब्राह्मण का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे। ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। मतलब सीधा है जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था (वर्ण व्यवस्था ) जिस लड़की को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है, इसे प्रवर कहते हैैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है। प्रवर की संख्या १, ३ और ५ होती है। जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं। जनेऊ में नियम है कि जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिए। मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी होता है। मतलब साफ है कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है। शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस पॉइंट को हम एक्युप्रेश करते हैं। कान के नीचे वाले हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है। अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं, तो प्यास कम लगेगी। एक्युप्रेशर की शब्दावली में इसे पॉइंट जीवी 20 या डीयू 20 कहते हैं। जीवी 20 -स्थान : कान के पीछे के झुकाव में। उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा और यूटरस की बीमारियों में असरदार।  बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।  जनेऊ के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।  जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।  जनेऊ को दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।  दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है। कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।  कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।किन्तु आधुनिक युग तक आते -आते उपनयन सस्कार का रूप इतना बदल गया कि जनेऊ धारण करना ही उपनयन हो गया I इससे संबध वैदिक अनुष्ठान पीछे छुट गये और यह एक परंपरा का अनुपालन मात्र बन कर रह गया I यहाँ तक कि आधुनिक काल में लोग बिना किसी अनुष्ठान के हरिद्वार आदि तीर्थ स्थलों में जाकर गंगा स्नान करके एक बाजारु यज्ञोपवीत जनेऊ खरीद कर गले में डाल  लेते है और इससे ही समझ लिया जाता है कि उसका उपनयन या यज्ञोपवीत  संस्कार संस्कार संपन्न हो गया तथा संस्कार कि अनिरवार्यता में आस्था रखने वाले कुछ लोग विवाह के दिन पूर्वाग पूजा के साथ इसकी कतिपय आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को सक्षिप्त रूप से पूरा करके यज्ञोपवीत को धारण कर इससे निवृत हो जाते है I जहाँ इसे एक पृथक संस्कार के रूप में संपन्न किया जाता है  वहां भी उपनयन एक नाटकीय प्रदर्शन ही होता है 

   यह अति आवश्यक है कि हर परिवार धार्मिक संस्कारों को महत्व देवें, घर में बड़े बुजर्गों का आदर व आज्ञा का पालन हो, अभिभावक  बच्चों  के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह समय पर करते रहे। धर्मानुसार आचरण करने से सदाचार, सद्‌बुद्धि, नीति-मर्यादा, सही – गलत का ज्ञान प्राप्त होता है और घर में सुख शांति कायम रहती है। यह नियम ऊँची जातियों में होता हैं। जनेऊ अपने समय पर धारण तथा निर्वाह करने पर उसका पूर्ण फल प्राप्त करेगे, यानि दूसरा जन्म (पहले माता के गर्भ से दूसरा धर्म में प्रवेश से) माना गया है।  उपनयन यानी ज्ञान के नेत्रों का प्राप्त होना, यज्ञोपवीत याने यज्ञ – हवन करने का अधिकार प्राप्त होना।  जनेऊ धारण करने से पूर्व जन्मों  के बुरे कर्म नष्ट हो जाते हैं। जनेऊ धारण करने से आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है।  जनेऊ धारण करने से शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है। जनेऊ से नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को पूर्ण करने का आत्म बल मिलता है। जनेऊ के तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार बिना विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा अथवा व्यापार करना सभी निर्थरक है। जनेऊ के तीन धागों  में 9 लड़ होती है, फलस्वरूप जनेऊ पहनने से 9 ग्रह प्रसन्न रहते हैं। शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण बालक 09 वर्ष, क्षत्रिय 11 वर्ष और वैश्य के बालक का 13 वर्ष के पूर्व संस्कार होना चाहिये और किसी भी परिस्थिति में विवाह योग्य आयु के पूर्व अवश्य हो जाना चाहिये।:)

  

 

       किसी भी व्यक्ति के जीवन में गुरु का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। जन्म देने वाली माता और पालन करने वाले पिता के बाद सुसंस्कृत बनाने वाले गुरु का ही स्थान है। शास्त्रों में बताया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मशक्ति के रूप में पराशक्ति विद्यमान रहती है। जो जन्म-जन्मान्तरों से निष्क्रिय तथा सुषुप्त अवस्था में रहती है। जब सद्गुरू द्वारा दीक्षा संस्कार सम्पन्न किया जाता है तो शिष्य को अन्तर्निहित दिव्य-शक्ति का आभास हो जाता है। शास्त्राधारित गुरु दीक्षा के तीन प्रकार के भेद वर्णित है। 

1. ब्रह्म दीक्षा      2. शक्ति दीक्षा और   3. मंत्र दीक्षा।

1- ब्रह्म दीक्षा : – इसमें गुरु साधक को दिशा निर्देश व सहायता कर उसकी कुंडलिनी को प्रेरित कर जाग्रत करता है। और ब्रह्म नाड़ी के माध्यम से परमशिव में आत्मसात करा देता है। इसी दीक्षा को ब्रह्म दीक्षा या ब्राह्मी दीक्षा कहते है।

2- शक्ति दीक्षा : –सामर्थ्यवान गुरु साधक की भक्ति श्रद्धा व सेवा से प्रसन्न होकर अपनी भावना व संकल्प के द्वारा द्रष्टि या स्पर्श से अपने ही समान कर देता है। इसे शक्ति दीक्षा, वर दीक्षा या कृपा दीक्षा भी कहते हैं।

3- मंत्र दीक्षा : – मननेन त्रायते इति मन्त्रः अर्थात जो मनन करने पर त्राण दे वह मंत्र है I  मंत्र के रूप में जो ज्ञान दीक्षा अथवा गुरु मंत्र प्राप्त होता है उसे मंत्र दीक्षा कहते हैं। गुरु सर्वप्रथम साधक को मंत्र दीक्षा से ही दीक्षित करते हैं। इसके बाद शिष्य अर्थात् साधक की ग्राह्न क्षमता, योग्यता श्रद्धा भक्ति आदि के निर्णय के बाद ही ब्रह्म दीक्षा व शक्ति दीक्षा से दीक्षित करते हैं। इसलिए यह प्रायः देखा जाता है कि एक ही गुरु के कई शिष्य होते है परन्तु सभी एक स्तर के न होकर भिन्न स्तर के होते है। कई एक साधक मंत्र दीक्षा तक ही सीमित रह जाते हैं। वैसे गुरु साधक को सर्वगुण संपन्न समझ कर जो कि एक साधक को होना चाहिए । बिना मंत्र दीक्षा दिए भी प्रसन्न होकर कृपा करके ब्रह्म दीक्षा तथा शक्ति दीक्षा दे सकते हैं। इन दीक्षाओं के अलावा चार प्रकार की और दीक्षाओं का शास्त्र में उल्लेख मिलता है  : –

1-कलावती दीक्षा : – इसमें सिद्ध व् सामर्थ्यवान गुरु शक्तिपात की क्रिया द्वारा अपनी शक्ति को साधक में आत्मसात कर उसे शिव रूप प्रदान करता है।

2- वेधमयी दीक्षा : – इसमें सिद्ध व सामर्थ्यवान गुरु साधक पर कृपा कर अपने शक्तिपात के द्वारा साधक के षट्चक्र का भेदन करता है।

3- पंचायतनी दीक्षा : – इसमें देवी, विष्णु, शिव सूर्य तथा गणेश इन पाँचों देवताओं में से किसी एक को प्रधान देव मानकर वेदी के मध्य में स्थापित करते है तथा शेष चारों देवताओं को चारों दिशा में स्थापित करते है। फिर साधक के द्वारा पूजा एवं साधना करवा कर दीक्षा दी जाती है।

4- क्रम दीक्षा : – इसमें गुरु व साधक का तारतम्य बना रहता है। धीरे-धीरे गुरु भक्ति श्रद्धा एवं विश्वास बढ़ता जाता है। तत्पश्चात गुरु के द्वारा मन्त्रों व शास्त्रों तथा साधना पद्धतियों का ज्ञान विकसित होता जाता है।

              मंत्र दीक्षा लेने के बाद साधक के जीवन में अनेक प्रकार के लाभ होने लगते हैं, जिनमें 18 प्रकार के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-  गुरुमंत्र के जप से बुराइयाँ कम होने लगती हैं। पापनाश व पुण्य संचय होने लगता है, मन पर सुख-दुःख का प्रभाव पहले जैसा नहीं पड़ता, सांसारिक वासनाएँ कम होने लगती हैं,  मन की चंचलता मिटने लगता है, अंतःकरण में अंतर्यामी परमात्मा की प्रेरणा प्रकट होने लगती है, अभिमान दूर होने गलता है, बुद्धि में शुद्ध-सात्त्विक प्रकाश आने लगता है, अविवेक नष्ट होकर जागृत होता है,  चिंता को समाधान, शांति मिलती है, भगवदरस, अंतर्मुखता का रस और आनंद आने लगता है, आत्मा व ब्रह्म की एकता का ज्ञान प्रकाशित होता है कि मेरा आत्मा परमात्मा का अविभाज्य अंग है, हृदय में भगवत्प्रेम निखरने लगता है, भगवन्नाम, भगवत्कथा में प्रेम बढ़ने लगता है। भुवनपावनी शक्तिः नाम कमाई वाले संत जहाँ जाते हैं, जहाँ रहते हैं, यह भुवनपावनी शक्ति उस जगह को तीर्थ बना देती है, सर्वव्याधिनाशिनी शक्तिः सभी रोगों को मिटाने की शक्ति, सर्वदुःखहारिणी शक्तिः सभी दुःखों के प्रभाव को क्षीण करने की शक्ति, कलिकालभुजंगभयनाशिनी शक्तिः कलियुग के दोषों को हरने की शक्ति, नरकोद्धानरिणी शक्तिः नारकीय दुःखों या नारकीय योनियों का अंत करने वाली शक्ति, प्रारब्ध-विनाशिनी शक्तिः भाग्य के कुअंकों को मिटाने की शक्ति, सर्व अपराध भंजनी शक्तिः सारे अपराधों के दुष्फल का नाश करने की शक्ति, कर्म संपूर्तिकारिणी शक्तिः कर्मों को सम्पन्न करने की शक्ति, सर्ववेददीर्थादिक फलदायिनी शक्तिः सभी वेदों के पाठ व तीर्थयात्राओं का फल देने की शक्ति, सर्व अर्थदायिनी शक्तिः सभी शास्त्रों, विषयों का अर्थ व रहस्य प्रकट कर देने की शक्ति, जगत आनंददायिनी शक्तिः जगत को आनंदित करने की शक्ति, अगति गति दायिनी शक्तिः दुर्गति से बचाकर सदगति कराने की शक्ति, मुक्तिप्रदायिनी शक्तिः इच्छित मुक्ति प्रदान करने की शक्ति, वैकुंठ लोकदायिनी शक्तिः भगवद धाम प्राप्त कराने की शक्ति, भगवत्प्रीतिदायिनी शक्तिः भगवान की प्रीति प्रदान करने की शक्ति। मंत्र, उनके उच्चारण की विधि, विविधि चेष्टाएँ, नाना प्रकार के पदार्थो का प्रयोग भूत-प्रेत और डाकिनी शाकिनी आदि, ओझा, मंत्र, वैद्य, मंत्रौषध आदि सब मिलकर एक प्रकार का मंत्रशास्त्र बन गया है और इस पर अनेक ग्रंथों की रचना हो गई है।

मंत्र ग्रंथों में मंत्र के अनेक भेद माने गए हैं। कुछ मंत्रों का प्रयोग किसी देव या देवी का आश्रय लेकर किया जाता है और कुछ का प्रयोग भूत प्रेत आदि का आश्रय लेकर। ये एक विभाग हैं। दूसरा विभाग यह है कि कुछ मंत्र भूत या पिशाच के विरूद्ध प्रयुक्त होते हैं और कुछ उनकी सहायता प्राप्त करने के हेतु। स्त्री और पुरुष तथा शत्रु को वश में करने के लिये जिन मंत्रों का प्रयोग होता है वे वशीकरण मंत्र  कहलाते हैं। शत्रु का दमन या अंत करने के लिये जो मंत्रविधि काम में लाई जाती है वह मारण कहलाती है। भूत को उनको उच्चारण या शामन मंत्र  कहा जाता है। लोगों का विश्वास है कि ऐसी कोई कठिनाई, कोई विपत्ति और कोई पीड़ा नहीं है जिसका निवारण मंत्र के द्वारा नहीं हो सकता और कोई ऐसा लाभ नहीं है जिसकी प्राप्ति मंत्र के द्वारा नहीं हो सकती। ‘‘ मननात त्रायते यस्मात्तस्मान्मंत्र उदाहृतः’’, अर्थात जिसके मनन, चिंतन एवं ध्यान द्वारा संसार के सभी दुखों से रक्षा, मुक्ति एवं परम आनंद प्राप्त होता है, वही मंत्र है। ‘‘मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन’’ अर्थात जिससे आत्मा और परमात्मा का ज्ञान (साक्षात्कार) हो, वही मंत्र है। ‘‘मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन’’ अर्थात जिसके द्वारा आत्मा के आदेश (अंतरात्मा की आवाज) पर विचार किया जाए, वही मंत्र है। ‘‘मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताःदेवताः’’ अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में स्थित देवता का सत्कार (पूजन/हवन आदि) किया जाए-वही मंत्र है। ‘‘मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात् I

 यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः।।’’ अर्थात यह ज्योतिर्मय एवं सर्वव्यापक आत्मतत्व का मनन है और यह सिद्ध होने पर रोग, शोक, दुख, दैन्य, पाप, ताप एवं भय आदि से रक्षा करता है, इसलिए मंत्र कहलाता है। ‘‘मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामित तेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्स्तस्मान्मंत्र इतीरितः।।’’ अर्थात जिससे दिव्य एवं तेजस्वी देवता के रूप का चिंतन और समस्त दुखों से रक्षा मिले, वही मंत्र है। ‘ ‘मननात् त्रायते इति मंत्र  अर्थात जिसके मनन, चिंतन एवं ध्यान आदि से पूरी-पूरी सुरक्षा एवं सुविधा मिले वही मंत्र है। ‘‘प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः’’ अर्थात अनुष्ठान और पुरश्चरण के पूजन, जप एवं हवन आदि में द्रव्य एवं देवता आदि के स्मारक और अर्थ के प्रकाशक मंत्र हैं। ‘‘साधकसाधनसाध्यविवेकः मंत्रः।’’ अर्थात साधना में साधक, साधन एवं साध्य का विवेक ही मंत्र कहलाता है। ‘‘सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेया शिवात्मिकाः‘‘ अर्थात सभी बीजात्मक वर्ण मंत्र हैं और वे शिव का स्वरूप हैं। ‘‘मंत्रो हि गुप्त विज्ञानः’’ अर्थात मंत्र गुप्त विज्ञान है, उससे गूढ़ से गूढ़ रहस्य प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र का प्रयोग सारे संसार में किया जाता था और मूलत: इसकी क्रियाएँ सर्वत्र एक जैसी ही थीं। विज्ञान युग के आरंभ से पहले विविध रोग विविध प्रकार के राक्षस या पिशाच माने जाते थे। अत: पिशाचों का शमन, निवारण और उच्चाटन किया जाता था। मंत्र में प्रधानता तो शब्दों की ही थी परंतु शब्दों के साथ क्रियाएँ भी लगी हुई थीं। मंत्रोच्चारण करते समय ओझा या वैद्य हाथ से, अंगुलियों से, नेत्र से और मुख से विधि क्रियाएँ करता था। इन क्रियाओं में त्रिशूल, झाड़ू, कटार, वृक्षविशेष की टहनियों और सूप तथा कलश आदि का भी प्रयोग किया जाता था। रोग की एक छोटी सी प्रतिमा बनाई जाती थी और उसपर प्रयोग होता था। इसी प्रकार शत्रु की प्रतिमा बनाई जाती थी और उसपर मारण, उच्चाटन आदि प्रयोग किए जाते थे। ऐसा विश्वास था कि ज्यों-ज्यों ऐसी प्रतिमा पर मंत्रप्रयोग होता है त्यों-त्यों शत्रु के शरीर पर इसका प्रभाव पड़ता जाता है। पीपल या वट वृक्ष के पत्तों पर कुछ मंत्र लिखकर उनके मणि या ताबीज बनाए जाते थै जिन्हें कलाई या कंठ में बाँधने से रोगनिवारण होता, भूत प्रेत से रक्षा होती और शत्रु वश में होता था। ये विधियाँ कुछ हद तक इस समय भी प्रचलित हैं। संग्राम के समय दुंदुभी और ध्वजा को भी अभिमंत्रित किया जाता था और ऐसा विश्वास था कि ऐसा करने से विजय प्राप्त होती है।जब संयोगवश रोग की शांति या शत्रु की मृत्यु हो जाती थी तो समझा जाता था कि यह मंत्रप्रयोग का फल है और ज्यों-ज्यों इस प्रकार की सफलताओं की संख्या बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों ओझा के प्रति लागों का विश्वास द्दढ़ होता जाता था और मंत्रसिद्धि का महत्व बढ़ जाता था। जब असफलता होती थी तो लोग समझते थे कि मंत्र का प्रयोग भली भाँति नहीं किया गया। ओझा लोग ऐसी क्रियाएं करते थे जिनसे प्रभावित होकर मनुष्य निश्चेष्ट हो जाता था। क्रियाओं को  हिप्रोटिज कहा जाता है। "षडकर्णो भिद्यते मंत्र" (छः कानों में जाने से मंत्र नाकाम हो जाता है) - इसमें भी मंत्र का यही अर्थ है।


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