पुरुषार्थ / भाग्य - ज्योतिश्चक्रे तु लोकस्य सर्वस्योक्तं शुभाशुभम् I ज्योतिर्ज्ञानं तु यो वेद स याति परमां गतिम् II
पुरुषार्थ / भाग्य
ज्योतिश्चक्रे तु लोकस्य सर्वस्योक्तं शुभाशुभम् I
ज्योतिर्ज्ञानं तु यो वेद स याति परमां गतिम् II
ज्योतिष चक्र सम्पूर्ण जगत में शुभाशुभ को व्यक्त करने वाला है अतः जो ज्योतिषशास्त्र का ज्ञाता एक दो ही होते है वह परम कल्याण को प्राप्त होता है I ज्योतिष शास्त्र में प्रधान ग्रह सूर्य और चन्द्र है I सूर्य को पुरुष और चन्द्रमा को स्त्री अर्थात् पुरुष और प्रकृति के रुप में इन ग्रहों को माना है I पाँच तत्त्व रुप भौम, बुध, गुरु, शुक्र और शनि है I इन प्रकृति, पुरुष और तत्त्वों के सम्बन्ध से ही सारा ज्योतिषश्चक्र भ्रमण करता है I
शुभक्षण क्रियारम्भजनिताः पूर्व सम्भवाः I
सम्पदः सर्वलोकानां ज्योतिस्तत्र प्रयोजनम् II
पूर्व जन्म में उपार्जित पुरुषार्थ का नाम भाग्य है I पूर्व जन्मार्जित पुरुषार्थ और तात्कालिक पुरुषार्थ मिलकर महान फल को प्रदान करता है I पुरुषरथर्यते पुरुषार्थः यथा :-
पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म दैवमिति सम्प्रचक्षते I
उद्यमेन तदुपार्जित सदा वांछितं फलति नैव केवलम् II
फल की सिद्धि के लिए अकेला भाग्य या कर्म सक्षम नही होता I बल्कि दोनों की जरूरत पड़ती है I
आप जब भी किसी को रत्न या अपनी शक्ति बढाने के लिए पूजा या रत्न को बताये तो उससे पहले उसको लाभ किस प्रकार होगा और कहा से:- शरीर, भाग्य, धन, यश, नौकरी, पत्नी, संतान और माता-पिता जो महत्वपूर्ण उनको नुकसान न हो :----
१ . लग्नेश: क्रियमाण जीवन रत्न (लग्न स्वामी रत्न ):--व्यावसायिक उन्नति, पराक्रम, शरीर स्वस्थ I
२. प्रारब्ध कारक रत्न (पंचम भाव राशि स्वामी) -- भाग्योदय, सुख, विद्या तथा दुर्घटनाओं से बचाव I
३ . संचित कर्म भाग्य रत्न (नवम भाव स्वामी)- भाग्योदय, सुख, धर्म, धनार्जन I
पुरुषार्थ या भाग्य से कई राजयोग बनते है कुंडली में एक ग्रह से छोटे इलाके में प्रसिद्ध प्राप्ति करते है, दो ग्रह से मंडल स्तर तक, तीन ग्रहों से योग बनने पर राज्य स्तर पर, चार ग्रहों से योग बनने पर देश और पञ्च ग्रहों से योग बनने दिगदिगान्तर तक तथा हजारों वर्षों तक योग बना रहता है |
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह यह पञ्च अवगुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के शत्रु होते है | यह पञ्च व्यक्ति के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक गुण नहीं है | यह मनुष्य द्वारा स्वार्जित मनोरोग है |
अहंकारी मनुष्य वातावरण पर नियंत्रण करना चाहता है और अपने ही द्वारा गढ़ी हुईं परिभाषाओं के अनुरूप सुख प्राप्त करना चाहता है अर्थात् वह परमात्मा के विधान में संशोधन एवं हस्तक्षेप करना चाहता है | मनुष्य का प्राणियों के प्रति सम्यक आचार विचार की अवधारणा लुप्त होती जा रही है |
आज के समाचार पत्र, प्रिंट व् इलेक्ट्रानिक मिडिया में हत्या लुट,डकैती, बलात्कार व् अन्य प्रकार की हिंसा से समाचार होते है | जिससे ऐसा आभास होता है कि हम नैतिक रूप से कमजोर हो गए हैं | अध्यात्म,आस्था,भक्ति, योग और तत्वज्ञान यह सब भारत की आत्मा है |
इन्हीं तत्वों के कारण ही भारत विश्व में गुरु के रूप में प्रतिष्ठित रहा है | सत्य का मार्ग ही भारत ने ही दिखाया है | अर्थात आप सभी अपने अपने संस्कृति, संस्कार और आत्मा से युक्त रहेगे तो ही सत्य पथ और शांति से जीवन जिपाओगे | अगर मन से चलो गे तो आप जीवन भर संघर्षपूर्ण जीवन जायेंगे | धर्मार्थादुच्यते श्रेयः कामाsर्थों धर्म एव च | अर्थ एवेह वा श्रेयस्तिवर्ग इति तु स्थितिः || परित्यजेदर्थ कामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ | धर्म चाप्य सुखो वर्क लोक विक्रुष्टमेव च || पुरुषार्थ में धर्म वह साधन है जो मनुष्य द्वारा अर्थ और काम के उपभोग को मर्यादित करता हुआ उसे मोक्ष की ओर ले जाता है | इसलिए धर्म की वैशेषिक सूत्र में व्याख्या की गई है, जिसके द्वारा अभुदय और निःश्रेयस की सिद्धिः हो वह धर्म है | पुरुषार्थ में अर्थ का सम्बन्ध धन-संपत्ति से होते हुए भौतिक संसाधनों और सुख सर भी है |
काम भी एक पुरुषार्थ है | काम का अभिप्राय केवल भोग वासना ही नही है बल्कि इनका सम्बन्ध समस्त कामनाओं और इच्छाओं से है जिनसे प्रेरित होकर व्यक्ति कार्य करता है | काम की परिभाषा है -कम्यते जनैरिति कामः सुखः | मनुष्य के पुरुषार्थ की अंतिम और चरम परिणति मोक्ष है |
साधारण रूप में मोक्ष का अर्थ जीवन की मुक्ति से लिया जाता है | परन्तु यह मुक्ति संयमित जीवन एवं विधि-नियमों के अधीन होनी चाहिए | मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति मूक धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है मुक्त करना अथवा स्वतन्त्र करना |अतः मोक्ष का अर्थ आत्मा की मुक्ति से है |
आप जब भी चंद्र राशि से गोचर वश कुण्डली में शनि द्वादश, लग्न और द्वितीय भाव में विचरण करते है तो साढ़ेसाती(७ वर्ष /६ महिना ) कहलाती है I चन्द्र से चतुर्थ और अष्टम भाव में जब शनि विचरण करने पर ढैय्या (२वर्ष/६ महिना) का प्रवेश होता है I यह सामान्यतया प्रथम साढ़ेसाती में - शारीरिक| द्वितीयसाढ़ेसाती में -मानसिक और तृतीयसाढ़ेसाती में आर्थिक कष्ट देता है I
परन्तु शनि और राहु कभी भी किसी को कष्ट नही देते है बल्कि आपके द्वारा शुभाशुभ कर्म को परिभाषित करते हुए I दण्ड देते है अगर अच्छा कर्म करेगे तो पुरस्कार देगे, नही तो बंधन योग बना देते है I
१. प्रथम साढ़ेसाती का प्रभाव:-- विद्या, उसकी विचार धारा, मानसिक और माता-पिता पर पड़ता है I
२.द्वितीय साढ़ेसाती का प्रभाव:-- कार्यक्षेत्र, आर्थिक स्थिति और परिवार पर प्रभाव पड़ता है I
३. तृतीय साढ़ेसाती का प्रभाव:-- स्वास्थ्य पर अधिक पर है I
यथाह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् I
तद्वतपुरुष कारेण बिना दैवं न सिद्धयति II
पूर्व जन्म में किया गया शुभाशुभ कर्म फल “भाग्य“ कहलाता है, वह बीज है I तात्कालिक कर्म से उस बीज को उत्तम जलादि (संस्कार) से संस्कारित करने पर उच्च कोटि राजयोगों का योग बना देता है I जिससे आपका जीवन धन्य हो जाता है I जो कभी क्षीण नही होता है I
उसी प्रकार पूर्व जन्मार्जित कर्मरुप भाग्य सत्प्रयत्नरुप यज्ञादि शुभकर्म से अभिवर्द्धित होता है, अन्यथा क्षीण होता है I इसलिए ग्रह की दशा में पाप फल देता है उसी प्रकार मनुष्य आयु से परिपूर्ण रहते हुए भी शान्त्यादि यत्न से रहित होकर गृह्कृत उत्पात से मृत्यु प्राप्त होता है I
उपर्युक्त बातों के माध्यम से प्राणी अपनी शुभाशुभ दशा को जानकर तदनुकूलवैदीकादि शुभ अनुष्ठान और सदाचार आदि क्रिया के संपादन से कल्याण की उपलब्धि करता है I तात्पर्य यह है कि अशुभ दशा में यज्ञादि के संपादन से उस की निवृति और शुभ दशा में शुभानुष्ठान के संपादन से उसकी वृद्धि होती है I यथा :--
प्राक्कर्मबीजं सलिलानलोर्वीसंस्कारवत् कर्म विधीयमान् I
शोषाय पोषाय च तस्य तस्मात्सदा सदाचारवतां न हानिःII
आपके कुंडली में पापी ग्रहों की दशा-अन्तर्दशा शान्तयादि कार्य से दुष्टफलों की शान्ति होती है यथा:-आपके कुंडली में खराब समय चल रहा है उस समय आपको संयमित रूप से रहना चाहिये जिससे आपको दण्ड तो मिलेगा परन्तु कम से कम प्राप्त होगा I
अगर आप नदीं में जाते है, पेड़ पर चढ़ता है, दूसरे के घर में जाते है, रात में चलते है, नाव पर निवास करते है, और दूर देश की यात्रा करता है, क्रोध में अकेले रहेंगे तो उससे अनिष्ट होने की सम्भावना प्रबल होती है I यदि ऐसा नहीं करता तो अनिष्ट की सद्भावना क्षीण होती है I इस प्रकार हम देखते है कि शांति से दुष्ट फल की निवृत्ति होती है | कुछ लोगों का विचार है कि दुःख और सुख अनायास ही आता है, इस में मनुष्य का प्रयत्न कुछ काम नहीं करता, भाग्य सर्वोपरि होता है I यथा :-
अप्रार्थितानि दुखानि यथैवायान्ति देहिनाम् I
सुखान्यपि तथा मन्ये पुम्प्रयत्नो निरर्थकः II
इस श्लोक से भाग्य की प्रधानता अभिव्यक्ति होती है, पर यह समुचित नहीं क्योंकि प्रयत्न के अभाव में कोई काम सिद्ध नहीं होता है I मनुष्य अपने रहने के लिए घर, पानी पीने के लिये व्यवस्था, चलने के लिए सड़क, पढने के लिए स्कूल, पहनने के लिए वस्त्र आदि का निर्माण नहीं करें तो उनकी उपलब्धि भाग्य से नही होगी I मानव के उपभोग्य वस्तु प्रयत्न से ही प्राप्य है न कि भाग्य से I यथा :-
मन्दिरस्य तु निर्माण प्रयत्नेन बिना नहि I
स्वत एवं क्षयं याति तस्माद्यत्नस्य मुख्यता II
अतः आपको चाहिए कि ग्रह की दशा के माध्यम से व शकुनादि के माध्यम से अनिष्ट फल देने वाले समय की जानकारी प्राप्त कर तदनुसार उससे बचने के लिए प्रयत्न करने से आप कल्याण का भागी बनेंगे I
अनेक अवरोधक आने पर भी केवल पुरुषार्थ ही मनुष्य की सभी सिद्धियों का मूल कारण है, परन्तु ऐसी बात सही जान नहीं पड़ता क्योंकि किसान मेहनत से भूमि में समान रुप से जल, खाद के मूल कारण का अन्वेषण करने से पता चलता है कि पुरुषार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई कारण है, जो भाग्य के नाम से जाना जाता है I
अर्थात किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन मार्ग का पता नहीं रहता | ग्रहों के माध्यम से गणना करके समझाया जाता है | जो व्यक्ति आत्मा से चलता है यानी जो व्यक्ति आत्मा, संस्कृति और संस्कार से चलते है |
उनको भटकना कम पड़ता है | परन्तु जो व्यक्ति मन रूपी बुद्धि से चलते है उनका जीवन उतार- चढ़ाव से युक्त अस्त-व्यस्त रहता है | मन रूपी बुद्धि से चलने पर कोई पूजा पाठ भी तत्काल काम में नहीं आता है |
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