ज्योतिष और द्वादश भाव फलित - Jyotish Aur Dwadash Bhav Phalit
द्वादश भावों में अन्योन्य सम्बन्ध
ज्योतिष शास्त्र की अध्ययन सामग्री ग्रह सञ्चालन और उसका सचराचर प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन है | सूर्य ही प्रमुख ग्रह है जिसके चुम्बकीय आकर्षण से समस्त ग्रह बंधकर अपनी अलग-अलग नियत कक्षा में उसकी परिक्रमा करते है | सूर्य अपनी प्रकाश और चुम्बकीय शक्ति से सम्पूर्ण ग्रहों को उद्भासित और आकर्षित किए हुए है | इन ग्रहों, नक्षत्रों और राशियों का सचराचर मात्र प्रकृति पर व्यापक प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है | ज्योतिष शास्त्र में तीन स्कन्ध - सिद्धान्त, संहिता तथा होरा |
सिद्धांत में गणित तीन प्रकार के होते है - सिद्धांत गणित, तंत्र गणित तथा करण गणित और होरा स्कन्ध में १.जातक ज्योतिष, २.प्रश्न ज्योतिष, ३.नष्ट जातक ज्योतिष, ४.पञ्चांग सम्बंधित ज्योतिष, ५.मुहूर्त ज्योतिष, ६. स्वप्न ज्योतिष, ७.स्वर ज्योतिष, ८.अंग विद्या ज्योतिष सामुद्रिक, ९.वास्तु विद्या ज्योतिष, १०.शकुन ज्योतिष. ११.वृष्टि विचार ज्योतिष, १२.ग्रहों से सम्बंधित जड़ी-बूटियों का ज्योतिष वनौषधि और १३.मनोविज्ञान रुपी ज्योतिष |
ज्योतिष में लग्न या राशियां चर १, ४,७, १०, स्थिर २, ५, ८, ११ या द्विस्वभाव ३, ६, ९ १२ राशियां होती है जिससे जातक के कार्य या स्वभाव परिलक्षित होता है | यथा- मिथुन द्विस्वभाव हुआ तो जातक चंचल स्वभाव का होगा ही होगा |
भाव और राशि में अंतर होता है | जिस राशि में जन्म होता है उसे लग्न तथा प्रथम भाव कहते है | वैसे एक भाव में एक राशि माना जाता है | वैसे अंशात्मक कारण प्रायः एक भाव दो राशियों के अन्शादी के योग से बनता है | परन्तु जिस राशि में मध्य भाव का पड़ता है उस राशि का स्वामी उस भाव का अधिपति होता है | यदि किसी जातक का जन्म मेष लग्न के १२ं अंश पर है तो उसका लग्न १२ं के बाद अगला वृष १२ं तक मेष माना जाता है इस कारण दो राशि का हो गया है | सन्धि से तात्पर्यं है दो भावों का योग स्थान होता है | प्रत्येक भाव अपने भाव स्फुट से लगभग १५ं पूर्व और १५ं पश्चिम तक का होता है | और जहाँ से एक भाव का अंत और दुसरे भाव का आरम्भ होता है उसे भावसन्धि कहते है | इस चक्र में लग्न स्फुट ०\१२\२० और द्वितीय भाव स्फुट में १\८\५० है | इन दोनों का योग १\२१\१० जिसका आधा ०\२५\३५ हुआ और यही प्रथम और द्वितीय भावों की सन्धि हुई |
इस कारण यदि कोई ग्रह मीन राशि में २५ं ३५‘ पर समाप्त होता है | वैसे तो यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से मीनराशि में होने के कारण द्वादश भाव में प्रतीत होगा परन्तु मीन के २५ं ३५’ कला के बाद रहने के कारण उस ग्रह को लग्न तथा प्रथमभाव में रहने का फल होगा | इसी प्रकार द्वितीय भाव मेष के २५ं ३५’ कला से वृष के २२ं ५’कला पर्यन्त चला गया है | यदि कोई ग्रह मेष के २६ं अथवा २७ंं अंशों में रहे तो यह प्रत्यक्ष रुप से लग्न में मालूम होगा पर वह द्वितीय भाव का फल होगा |
कुंडली में परिस्थिति वस ग्रहों का शुभाशुभ पर विचार किया जाता है | वैसे ही ग्रहों में भी संभव होता है सूर्य, मंगल, शनि और क्षीण चन्द्र स्वभावतः अशुभ ग्रह तथा गुरु, शुक्र और पूर्ण चन्द्र शुभ ग्रह होता है | बुध परिस्थिति वस शुभाशुभ होता रहता है | परन्तु भावाधिपतित्व से ग्रहों के पापत्व और शुभत्व में परिवर्त्तन हो जाता है | यदि पाप ग्रह को किसी भावाधिपति के होने के कारण उसमे शुभत्व आ जाय तो स्वभावतः पाप ग्रह होने पर भी शुभ फल देने का अधिकारी होता है |
कुंडली में भाव, भावेश और भावस्थ आपस में अन्योन्य सम्बन्ध रहने पर उतमोत्तम फल प्राप्त करते है | यदि षष्ठ, अष्टम और द्वादश भाव के स्वामी जिस भाव में पड़ता है उस भाव के फल को नष्ट कर देता है | यदि किसी भाव का स्वामी अपने उस भाव से किसी केंद्र या त्रिकोण में हो तो उस भाव का फल शुभ होता है | एकादश भाव में सभी ग्रह प्रायः शुभदायक होता है तृतीय भाव में शनि नीच होकर सबसे ज्यादा योग कारक बनता है और किसी भाव का स्वामी पापी हो और लग्न से या स्व भाव से तृतीय भाव में पड़ जाय तो शुभ फलदायक हो जाता है |
परन्तु तृतीय भाव में शुभग्रह होने से मध्यम फल देने वाला बन जाता है | जिस भाव में शुभ ग्रह रहता है उस भाव का फल उत्तम और जिस भाव में पाप ग्रह पड़ता है उस भाव के फल में कमी देखने को मिलता है | परन्तु त्रिक या त्रिषडाय ६, ८, १२ या ३, ६, ११ भावों में पाप ग्रह का रहना शुभ फलदायक होता है | किसी कुंडली से या किसी भाव से द्वितीय द्वादश दोनों भाव में शुभ ग्रह होने से जीवन यात्रा अच्छा चलता है | अगर दोनों भाव में पाप ग्रह होने से जीवन कष्टमय रहता है | परन्तु किसी एक भाव में पापग्रह हो और दुसरे भाव में शुभग्रह हो तो उस भाव के फल से जातक कर्म प्रधान बन जाता है |
ज्यो-र के सहयोग से, - विस्तृत अगले अंक |
किसी भाव के फल कहने में उस भाव का स्वामी किस भाव में और किस भाव के स्वामी का किस भाव में बैठे रहने से क्या फल होता है | यथा सप्तमाधिपति एकादश स्थान में पड़ा है | सप्तम स्थान से व्यवसाय का अनुमान द्वारा धन की प्राप्ति संभव है परन्तु फल की सिद्धि और उसकी कमी ग्रह एवं भाव के बलबल के आधार पर ही होगा |
मेष राशि लग्न से वृषभादि मीन पर्यन्तं लग्नराशियाँ:- मेषलग्न से शरीर, वृषलग्न से धन, तृतीयलग्न से भाई, चतुर्थ से माता, पञ्चम से पुत्र, षष्ठ से शत्रु या रोग, सप्तम से स्त्री, अष्टम से आयु, नवम से धर्म, दशम से कर्म, एकादश से आय-लाभ और द्वादश से व्ययापव्यय आदि का विचार किया जाता है | जातक के कुंडली परिष्कार से उक्त स्थिति में मेष से मीन द्वादश भाव होने से शरीर, आर्थिक, भौतिक, मानसिक तनाव के व्यय विचार में, मीन या कोई से राशि लग्न की प्रधानता होगी | धनभाव गत वृष राशि की द्वादशभाव राशि मेष या कोई से भाई भाव गत मिथुन से द्वादश भाव राशि में वृष से भ्रातृभाव ज्ञान प्राप्त किया जाता, मातृभाव गत कर्क राशि की द्वादश व्यय राशि मिथुन या कोई दूसरा राशि से मातृ का सुख या दुःख का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, भूमि या घर इत्यादि अन्य प्रकार का व्यय संभव होता है, पञ्चम भाव गत सिंह राशि की व्यय राशि मातृभाव से पुत्र विद्यादि का ह्रास होना तय रहता है, षष्ठ गत कन्याराशि का द्वादशभाव सिंह राशि से शत्रु या रोग का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, सप्तम तुला राशि की व्यय गत कन्या या कोई राशि से स्त्री सम्पति की क्षति होता है, वृश्चिक राशि की व्यय सप्तम भाव में तुला राशि से स्त्री या व्यापार की होती है, नवम राशि में धनु राशि से अष्टम राशि से आयु, गुप्त धन शुभ या अशुभ प्राप्त किया जाता है, दशम भाव में मकर राशि से राज्य, कर्म या वयस्य आदि की व्यय कारिका नवम राशि मना जाता, आय-लाभ भाव गत या एकादश गत कुम्भ राशि की व्ययकारिका, व्यय गत मीन राशि की व्ययकारिणी व्यय राशि कुम्भ राशि स्वयं सिद्ध होती है | दुसरे राशि में भी इसी तरह की वृषादि लग्न्ग्त राशियो की मेषादि प्रत्येक राशि के सदृश हरेक राशियाँ का द्वादश भाव व्ययकारक होती है |
इस प्रकार १२ X १२ =१४४ प्रकार अनुलोम- विलोम कुण्डलियाँ एक ही दिन में १४४ होती रहती है |
कुंडली में लग्न प्रथम भाव - से धन धान्यादि सम्पति के साथ शरीर तक का व्यय द्वादश भाव से देखा जाता है | द्वितीय भाव धन सम्पति - का व्यय होने से लग्न भाव धन भाव का व्ययभाव होता है | तृतीय भाव पराक्रम भाई जैसी संपत्ति का धनभाव व्यय कारक भाव होता है | चतुर्थ भाव मातृभाव सुख और घर का सुख भोग तृतीय भाव के कारण नही हो पाता है |
पञ्चम भाव पुत्र बुद्धि और आकांक्षा प्राप्ति में चतुर्थ भाव काफ़ी खलल डालता है | षष्ठ भाव शत्रु या रोग का उसका द्वादश भाव पञ्चम भाव है जो बुद्धि भाव का कार्य है | षष्ठ भाव का सामना करने के लिए सर्वप्रथम बुद्धि से संपन्न रोग के लिए अच्छे चिकित्सक और शत्रु पराजय के लिए अच्छी मंत्रणा आदि | अतः षष्ठ भाव जन्य दुष्ट्फल का व्यय पञ्चम बुद्धिभाव होने से पञ्चम भाव को षष्ठभाव का व्यय है |
सप्तम भाव सुन्दर पवित्र स्त्री संपत्ति जैसी वस्तु का व्यय भाव षष्ठभाव है | पत्नी और सम्पति पर षष्ठेश की दृष्टि से सब कुछ बर्बाद हो जाता है | अष्टम भाव से आयु, मृत्यु और गुप्त धन का संरक्षण नियम, स्वच्छ आहार-व्यवहारादि से शतायु भोग काल बनाया जाता है | स्वस्थ पुरुष के यौवन और धनरूप, रुपसौन्दर्य रुप इंधन से युक्त, मदन ज्वाला नारी पचा देती है | धन, यश और आयु तक का गलत स्त्री क्षय कर देती है, इसीलिए आयु का व्यय कारक स्त्री नामक सप्तम भाव ही मुख्य होता है :-
नारी तु मदन ज्वाला रुपेन्धनसमीहिता |
कामिभिः यात्रा हूमयन्ते यौवनानि धनानि च ||
नवम भाव भाग्य, धर्म-तप और तीर्थ होता है | जीवन पर्यन्त व्रत, जप, तप और तीर्थादि कृत्यों से तन-मन पोषणादि सुरक्षा रहित जीवन का अष्टमभाव व्यय करता है | धर्माचरण का सत्य संकल्प आयु की सत्ता पर निर्भर होने से धर्मादि कृत्य के लिए आयु बनी चाहिए | सदा आयु की सतर्कता से रक्षा करनी चाहिए | इसलिए धर्मभाव का व्यय भाव अष्टम आयुष्य भाव कहना युक्तियुक्त ही है |
दशम भाव पिता और कर्म का होता है | राज्य पितृ- व्यापार संपत्ति के परिवर्धन में स्वच्छ दोष रहित अर्थ सम्बन्ध होना चाहिए | धर्म का राज्य और धर्म का व्यापार न होने से अधर्म का आचरण होना ही राज्य एवं व्यापारादि के विनाश का कारण हो जाने से धर्म भाव ही व्यापाराभाव का विनाशक हो जाता है |
अतः व्यापाराभाव के व्यय में धर्मभाव ही हेतु होता है :- तेन त्यक्तेनभुञ्जीथाः मागृधः कस्य स्चिधनम्; सारी धन सम्पति में परकीयता के भाव से उसका सत्कर्म में विनियोग एवं धर्म, जप, तप, आदि में व्यय करना ही श्रेयस प्राप्ति का मुख्य अंग होने से राज्यश्री तक की त्याग भावना के व्यय से धर्मभाव राज्यभाव का व्यय कारक सिद्ध होता है |
एकादश भाव आय - लाभ और राज्य सत्ता या व्यापार कर्म का ही मुख्य आश्रय होता है | अर्थ सम्बन्धी अपराध के लिए दशमभाव राजदण्ड राजसत्ता का सर्वोपरि प्रबल दण्ड विधान होने से अवैध प्रकार से संचित भारी संपत्ति को राजसत्ता द्वारा क्षण में ही धराशायी कर देने से आय-लाभ भाव का ह्रास या व्यय कारक दशम भाव होता है | अतः दशम भाव को व्यय भाव कहना युक्तियुक्त है | द्वादश भाव व्यय भाव माना जाता है | जब आपकी अच्छी आय हो | यदि आय ही शून्य ही तो व्यय कहाँ से होगा | इसलिए व्यय भाव के क्षण का कारण आय भाव ही हो सकता है | व्ययभाव से द्वितीयभाव लग्नभाव होता है |
व्ययभाव का धनभाव होने से धन का व्यय होना स्वाभाविक, धर्म होने से व्यय भाव का नाम व्यय होना ही सार्थक से सिद्ध होता है | द्वादश भाव का प्रत्येक भाव से विचित्र अचिंतनीय अकल्पनीय और अनेक अन्तरंग संबंधों में तारतम्य से उक्त प्रकार से सम्बन्ध पर विचार करके जातक को लाभ दे सकते है | इसका अर्थ है १२ राशियों या लग्नों की स्थितिवश १२ x १२ = १४४ कुंडलियों की चर्चा के अनंतर जन्म कुंडली का अनेकानेक ग्रहस्थितियों से भी परिष्कार करके तब आप फल श्रुति कर सकते |
जातक कुंडली में ग्रह अंश की स्थिति भाव के आदि, मध्य या अंत में कहा है | क्योकि भाव के आरम्भ में ग्रह को फल देने की जितनी शक्ति रहती है,उसके उस फल में वृद्धि होते होते जब वह ग्रह भाव के मध्य में आता है तो पूर्ण फल देने में समर्थ हो जाता है | पुनः उस मध्य स्थान से ज्यों ज्यों वह ग्रह आगे बढ़ता है त्यों त्यों फल में दुर्बलता आती है और अन्त तक पहुचने पर फल देने में असमर्थ हो जाता है |
भावाधिपति अस्तगत वा नीचस्थ हो तो केंद्र और त्रिकोण में रहने पर भी शुभ फल विशेष रुप से प्रदान नही करता किन्तु अशुभ समय के बाद शुभ फल देते है | चतुर्थ और दशम भाव विशेषतः सुखदायक और पञ्चम और नवम भाव विशेषतः धनदायक होता है | भावाधिपति के अनिष्टकारक होने पर भाव स्थित ग्रह उतना उपकारी नही होता है | भावाधिपति उस भाव का स्वामी है | एकादश भाव में सभी ग्रह प्रायः शुभदायक होता है |
अपने भविष्य ज्ञान के जिज्ञासु व्यक्ति दैवज्ञ से अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने का सूक्ष्म समय जिसे प्रश्न समय कहा जाता है और इसी आधार से ज्योतिष शास्त्र द्वारा प्रश्न समय की जन्म कुंडली तैयार कर भविष्य विचार करना चाहिए | वैसे आप अपने भविष्य की कामना से पूछने पर आपकी जैसी भी वाणी प्रकट होती है वह शुभाशुभ सही होते देखि गई है |
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