Basics About Vastu Shastra By Astrologer Dr. S. N. Jha वास्तुरहस्यम् का प्राक्कथन
वास्तुविद्या बहुत प्राचीन विद्या है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख मिलता है। वास्तु से वास्तु विशेष की क्या स्थित होनी चाहिए। उसका विवरण प्राप्त होता है। श्रेष्ठ वातावरण और श्रेष्ठ परिणाम के लिए श्रेष्ठ वास्तु केअनुसार जीवन शैली और गृहका निर्माण अति आवश्यक है।
जिस देवताओं ने उसको अधोमुख करके दबा रखा था, वह देवता उसके उसी अंग पर निवास करने लगा। सभी देवताओं के निवास करने के कारण वह वास्तु नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके ये अठारह वास्तुशास्त्र के उपदेषटा है :----
“भृगुरत्रिर्वसिष्ठ विशवकर्मा मयस्तथा ।
नारदो नग्रजिच्चैव विशालाक्ष: पुरन्दर: ।।
ब्रह्मा कुमारो नन्दीश: शौनको गर्ग एव च ।
वासुदेवोडनिरूद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती ।।
मनुष्य अपने निवास के लिए भवन निर्माण करता है तो उसको भी वास्तु-शास्त्र के द्वारा मर्यादित किया जाता है। शास्त्र की मर्यादा के अनुसार चलने से अन्त:करण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्त: करण में ही कल्याण की इच्छा जाग्रत होता है।
वास्तु चक्र के भीतरी देवताओं आप, सावित्रि, जय और इन्द्र ये चार चारों ओर से तथा मध्य के नौ कोष्ठों में ब्रह्मा और उनके समीप अन्य आठ देवताओं की पूजा भी करनी चाहिए, जिसमें १३ देवता होते है।
“ब्रह्म” के चारों ओर स्थित ये ८ दे वता एंव हरेक दिशा में दों दों स्थित होते है जो साध्य नाम से जाने जाते है। घर के मुख्य चार प्रकार होते है एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल और चतु:शाल । इसमें भेदोंपभेद २०० प्रकार से उपर होते है।
घर के भीतर व्यवस्था कहाँ कौन घर बनाना चाहिये :-
स्नानाग्निपाकशयनास्त्रभुजश्च धान्य-
भांडारदैवतगृहाणि च पूर्वतः स्युः I
तन्मध्यतस्तु मथनाज्यपुरीष विद्या-
भ्यासाख्यरोदनरतौषधसर्वधाम II
पूर्व में स्नानघर, आग्नेय में अग्नि तथा रसोई का घर, दक्षिण में शयन का घर, नैऋत्य में अस्त्रों का घर, पश्चिम में भोजन का घर और ईशान्य में देवता का घर, वायव्य में धान्य के संग्रह का घर, नैऋत्य-पश्चिम के मध्य में विद्याभ्यास करने कक्षा घर तथा ईशान्य-पूर्व मध्य में अन्य सब वस्तुओं के संग्रह का घर होता है |
|| वास्तुशास्त्र और घर के विभिन्न प्रकार के बारे में जाने ||
द्वार भी दो प्रकार के होते है सव्य-द्वार और अप-सव्य द्वार। इनके भी ३२ भेदोंपभेद होते है । वेदी (मण्डप) ४ कोंण (सामान्य जनता के लिए) से २० कोंणों (राजा के ऑगन में) तक होते है। वास्तुशास्त्र में शय्या का विचार होता है जो १०० अंगुली से लेकर २८ अंगुली तक का होता है।
चन्दन लकड़ी (पलंग) से लेकर कुश तक का शय्या होता है। आप इसके अन्दर वेध पर भी विचार देख सकते है। साथ ही इस पुस्तक में लग्नशुद्धि, तिथि विचार, नक्षत्र विचार, मास विचार, तथा शकुन विचार पर हमने कुछ काम किया हैं।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसी न जाने कितनी विद्याऐ छिपी पड़ी है नारदजी ने कहा –
“ ॠग्वेदं भगवोडध्येमि यजुर्वेदꣳसामवेदमाथर्वणं
चतुर्थमितिहासपुरा- णं पञ्चमं वेदानां
वेदं पित्र्यंꣳराशिं...भगवोडध्येमि ।I “
हे भगवान मुझे चारों वेंद इतिहास, पुराण, श्राध्दकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, और देवजनविद्या आदि विद्या मैं जानता हॅं।
देश भौतिकऔर आध्यात्मिक दोंनो दृष्टियों से बहुत उन्नत था पर आज हमारा देश यह दयनीय स्थिति में है I हमें जहॉ तक देखने को मिलता है कि वास्तुशास्त्र के अनुसार घर बनाने मात्र से हम सब दुखों से, कष्टों सें छुटकारा तथा शान्ति मिल जाएगी।
वास्तव में ऐसी बात है नहीं। जिनके घर वास्तुशास्त्र के अनुसार बना हुआ है। कष्ट प्रारब्ध होता है। शान्ति तो कामना-ममता के त्याग से ही मिलेगी :----
“ वैद्या वदन्ति कफपित्तमरूद्विका
राञ्ज्योतिर्विदो ग्रहगतिंपरिवर्तयन्ति ।
भूताभिषङ्ग इति भूतविदो वदन्ति
प्रारब्धकर्मबलवन्मुनयो वदन्ति ।। “
आप अगर वैद्य के पास जाएंगे तो कफ, पित्त, और वात को कारक मानते है, ज्योतिषी लोग ग्रहों की गति को कारण मानते है, प्रेत-विद्या वाले भूत-प्रेतोंके प्रविष्ट होने को कारण मानते है, परन्तु मुनि लोग प्रारब्ध कर्म को बलवान् कारण मानते है।
तात्पर्य है कि अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के आने में मूल कारण प्रारब्ध है। प्रारब्ध अनुकूल हो तो कफ पित वात, ग्रह आदि भी अनुकूल हो जाते है और प्रारब्ध प्रतिकूल हो तो सभी प्रतिकूल हो जाते है ।
वास्तुविद्या के अनुसार मकान बनाने से कुवास्तु जनित कष्ट दूर हो जाते है, पर प्रारब्ध जनित कष्ट तो भोगने ही पड़ते है। तो यही बात वास्तु के विषय में भी समझनी चाहिये । पुस्तक लिखने में ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तकों, आचार्यों एंव नवीन लेखकों की पुस्तकों से मैने सहायता ली है, उन सबों के प्रति कृतज्ञयता ज्ञापन करता हूँ।
मैं उन सभी के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया है तथा प्रकाशन और उनके कर्मचारियों का अभारी हूँ, जिन्होने इस पुस्तक को समय पर प्रकाशित करने में सहयोग दिया है ।
वास्तुरहस्यम् - ARCHITECTURE & IMPORTANT POINTS
मेरा सह्रदय विद्वदवृन्दों से निवेदन है कि इसकी त्रुटियों को निज कृत बुद्धि से संशोधन कर मेरे परिश्रम को सफल बनावें। मैंने यथाशक्ति कोशिश की है कि पुस्तक पाठकों के लिए एक उपयोगी पुस्तक सिद्ध हो ।
मेरे इस प्रयास में पाठक कोई कमी पाते है तो मेरा अनुरोध है कि आप उससे मुझे अवगत करायें । हम आपके आभारी रहेंगे ।
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