Vasturahasyam - वास्तुरहस्यम् | ARCHITECTURE & IMPORTANT POINTS (2) By Astrologer Dr. Sunil Nath Jha
Vasturahasyam -वास्तुरहस्यम्
ARCHITECTURE & IMPORTANT POINTS (2) By Astrologer Dr. Sunil Nath Jha
“श्रीवास्तुदेवताभ्योनमः“
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वास्तुरहस्यम्
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ARCHITECTURE &IMPORTANT POINTS
“श्रीनमश्चण्डिकायैः“
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लेखक
:--संकलनकर्ता तथा
संपादक
डॉ
सुनील नाथ झा,
ज्योतिषाचार्य
गणित एंव फलित,
एम0ए0, साहित्याचार्य,
व्याख्याता-
ज्योतिर्विज्ञानविभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ|
प्राक्कथन
वास्तु विद्या बहुत प्राचीन विद्या है ।
विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ
ऋग्वेद में भी इसका उल्लेख मिलता है। वास्तु से वास्तु विशेष की क्या स्थित होनी
चाहिए। उसका विवरण प्राप्त होता है। श्रेष्ठ वातावरण और श्रेष्ठ परिणाम के लिए
श्रेष्ठ वास्तु के अनुसार जीवनशैली और गृह का निर्माण अति आवश्यक है। जिस देवताओं
ने उसको अधोमुख करके दबा रखा था, वह
देवता उसके उसी अंग पर निवास करने लगा। सभी देवताओं के निवास करने के कारण वह
वास्तुनाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके ये अठारह वास्तुशास्त्र केउपदेषटा है:----
“भृगुरत्रिर्वसिष्ठविशवकर्मामयस्तथा।
नारदोनग्रजिच्चैवविशालाक्ष:पुरन्दर:।।
ब्रह्माकुमारोनन्दीश:शौनकोगर्गएवच।
वासुदेवोडनिरूद्धश्चतथाशुक्रबृहस्पती।।
मत्स्यपु,२५२/२-४
मनुष्य अपने निवास के लिए भवन
निर्माण करता है तो उसको भी वास्तु-शास्त्र के द्वारा मर्यादित किया जाता है।
शास्त्र की मर्यादा के अनुसार चलने से अन्त:करण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्त:करण
में ही कल्याण की इच्छा जाग्रत होता है। “वास्तु”शब्द का अर्थ-निवास करना। आप जिस
भूमि पर निवास करते है। उस वास्तु में ३२ बाहरी देवता है सभी को ईशाण आदि चारों
कोणों में स्थित देवताओं की पूजा करनी चाहिए। वास्तुचक्र के भीतरी देवताओं आप, सावित्रि, जय और इन्द्र ये चार चारों ओर
से तथा मध्य के नौ कोष्ठों में ब्रह्मा और उनके समीप अन्य आठ देवताओं की पूजा भी
करनी चाहिए, जिसमें
१३ देवता होते है। “ब्रह्म” के चारों ओर स्थित ये ८ देवता एंव हरेक दिशा में दों
दों स्थित होते है जो साध्य नाम से जाने जाते है। घर के मुख्य चार प्रकार होते है
एकशाल, द्विशाल, त्रिशाल और चतु:शाल। इसमें
भेदोंपभेद २०० प्रकार से उपर होते है। द्वार भी दो प्रकार के होते है सव्यद्वार और
अपसव्यद्वार। इनके भी ३२ भेदोंपभेद होते है। वेदी (मण्डप) ४कोंण (सामान्य जनता के
लिए ) से २० कोंणों (राजा के ऑगन में ) तक होते है। वास्तुशास्त्र में शय्या का
विचार होता है जो १०० अंगुली से लेकर २८ अंगुली तक का होता है। चन्दन लकड़ी (पलंग)
से लेकर कुश तक का शय्या होता है। आप इसके अन्दर वेध पर भी विचार देख सकते है। साथ
ही इस पुस्तक में लग्नशुद्धि, तिथिविचार, नक्षत्रविचार, मासविचार, तथा शकुनविचार पर हमने कुछ काम
किया हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसी न जाने कितनी विद्याऐ छिपी पड़ी है
नारदजी ने कहा-
“ॠग्वेदंभगवोडध्येमियजुर्वेदꣳसामवेदमाथर्वणंचतुर्थमितिहासपुरा-णंपञ्चमंवेदानांवेदंपित्र्यंꣳराशिं...भगवोडध्येमि।छान्दो.उप.७/१/२
अर्थात हे भगवान मुझे चारों वेंद
इतिहास, पुराण, श्राध्दकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, और देवजन विद्या आदि विद्या मैं
जानता हॅं। देश भौतिक और आध्यात्मिक दोंनो दृष्टियों से बहुत उन्नत तथा पर आज
हमारा देश यह दयनीय स्थिति में है ‼ हमें जहॉ तक देखने को मिलता है कि वास्तुशास्त्र के अनुसार घर बनाने मात्र से हम सब दुखोंसे, कष्टों
सें छुटकारा तथा शान्ति मिल जाएगी । वास्तव में ऐसी बात है नहीं। जिनके घर
वास्तुशास्त्र के अनुसार बना हुआ है । कष्ट प्रारब्ध होता है। शान्ति तो
कामना-ममता के त्याग से ही मिलेगी:----
“वैद्यावदन्तिकफपित्तमरूद्विकाराञ्ज्योतिर्विदोग्रहगतिंपरिवर्तयन्ति।
भूताभिषङ्गइतिभूतविदोवदन्तिप्रारब्धकर्मबलवन्मुनयोवदन्ति।।
अर्थात्
आप अगर वैद्य के पास जाएंगे तो कफ,
पित्त,
और वात को कारक मानते है,ज्योतिषी लोग ग्रहों की गति को कारण मानते है, प्रेत-विद्या वाले भूत-प्रेतों
के प्रविष्ट होने को कारण मानते है,
परन्तु मुनि लोग प्रारब्धकर्म को बलवान् (कारण) मानते है। तात्पर्य है कि
अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के आने में मूल कारण प्रारब्ध है। प्रारब्ध अनुकूल
हो तो कफ पित वात, ग्रह
आदि भी अनुकूल हो जाते है और प्रारब्ध प्रतिकूल हो तो सभी प्रतिकूल हो जाते है।
वास्तुविद्या के अनुसार मकान बनाने से कु वास्तु
जनित कष्ट दूर हो जाते है, पर प्रारब्ध जनित कष्ट तो भोगने
ही पड़ते है। तो यही बात वास्तु के विषय में भी समझनी चाहिये । पुस्कक लिखने में
ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तकों, आचार्यों
एंव नवीन लेखकों की पुस्तकों से मै ने सहायता ली है,
उन सबों के प्रति कृतज्ञयता ज्ञापन करता हूँ ।मैं उन
सभी के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ,
जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया
है तथा प्रकाशन और उनके कर्मचारियों का अभारी हूँ,
जिन्होने इस पुस्तक को समय पर प्रकाशित करने में
सहयोग दिया है। मेरा सह्रदय विद्वदवृन्दों से निवेदन है कि इसकी त्रुटियों को निज
कृत बुद्धि से संशोधन कर मेरे परिश्रम को
सफल बनावे I
मैंने यथाशक्ति कोशिश की है कि पुस्तक पाठकों के लिए
एक उपयोगी पुस्तक सिद्ध हो I मेरे
इस प्रयास में पाठक कोई कमी पाते है तो मेरा अनुरोध है कि आप उससे मुझे अवगत
करायें I हम
आपके आभारी रहेंगे II :--- शारदीयपूर्णिमा२०१८
विद्वदृन्दानुचर
डॉ
सुशील नाथ झा
ग्राम-कोलिखाहा, पो0 मनीगाछी,
जि0 - दरभंगा, बिहार, P.847422,
drsunilnathjha@gmail.com
दिवंगतस्यापितु: जीबनाथशर्म्मण
श्चरणारविन्दयो: पुस्तकमिदं समर्पयति
पुत्र
सुनीलनाथ: ii
पुस्तक
की विषय सूची
1.मंगलाचरण
2.भूमिविचार
3.भूमिकीशुद्धता
4.शल्यशोधन
5.शिलान्यास
6.घरकादिशा
7.मर्मस्थान
8.घरकाप्रकार
9.गवाक्षविचार
10.द्वारविचार
11.वेदिलक्षण
12.शय्याविचार
13.वेधविचार
14.लग्नशुद्धिविचार।
15.तिथिविचार
16.नक्षत्रविचार
17.मासविचार
18.महत्वपुर्णंविचारणीयविन्दु:--19.शकुनविचार
20.पुस्तकसूची
21.श्लोकप्रसंगात्उधर
22.रेखाकृति
:-++++++++++++++++++++++++++++++++++++
आगे का अंक
आइये वास्तुकला में कुछ और बिंदुओं
पर गौर करें : ---
-३२
. आपके घर के दरबाजे के सामने अगर सीढि हो तो वेध में ही आता है।
३३.आपका घर ईच्छा अनुसार न हो
तो भी मानसिक सुख नही मिलता।
३४.आप जिस घर का निर्माण कार्य
करने जा रहे है या आप जहाँ रह रहे है उस घर में चार कोण से ज्यादा कोण हो तो वहां
पर लोग रोगी, वंश
का क्षय तथा अशुभ बना रहता है।
३५.आप पुराने घर को बनाना चाहते
है तो पुराने नीवं पर ही काम करे नही तो दिशा वेध दोष होगा ।
३६.आपका गृहारंभ का मुहूर्त पर
ध्यान दे, या
लग्न में सूर्य या चन्द्र,
या गुरु हो,
शुक्र स्वगृह या उच्च
हो तो,
ऐसे लग्नमें आपका घर का आयु (दीर्घ) पूर्ण होगा। यानि
केंद्र या त्रिकोण में शुभ ग्रह हो।
३७.आप जब भी गृहनिर्माण करे तो
कुछ और विचार कर सकते है:-----(क) पूर्व या दक्षिण पश्चिम में स्नान घर हो और
पुर्व या उत्तर दिशा में स्नान करने की व्यवस्था हो,
(ख)आग्नेय में रसोई घर हो, (ग)दक्षिण में शयन कक्ष,गृहस्थी सामग्री हो।(घ)नैऋत्य में माता-पिता या बड़े
भाई का घर,शौचालय
हो। (च)पश्चिम में भोजन का स्थान हो।
(छ)वायव्य
में अन्न-भंडार घर,पशु
गृह या शौचालय रहना चाहिये।
(ज)उत्तर
में देव गृह, जल, भंडार, तथा उत्तर पूर्व में सब वस्तुओं का संग्रह करने का स्थान होता
है (स्टोररूम) ।:- १६ कोण होते है उसमें पुर्व उत्तर कोण (ईशाण) सर्वोत्तम
होता है।
३८.पूर्व, उत्तर या ईशान की तरफ तहखाना
बनाना चाहिये।
३९.भारी सामान नैऋत्य दिशा में
रखनी चाहिए।
४०.जिस कार्य में अग्नि का
आवश्यकता पड़े, वह
सभी कार्य आग्नेय दिशा में ही करना चाहिये।
४१.आप जब भी दिया जलाये दिन में
पूर्व और रात में उत्तर दिशा में दीप जलाये । वैसे पूर्व में जलाने से आयु की
वृद्धिः होती है। उत्तर में धन की वृद्धिः,
पश्चिम में जलाने से दुःख ,दक्षिण में जलाने से हानी।
४२.आप जब भी विशेष पूजा करे तो
दिन में पूर्व दिशा (देवता पूर्व में बास करते ) में मुहँ करके और रात में उत्तर
दिशा (रात में देवता उत्तर में बास करते )में मुहँ करके पूजा करने से पूर्ण लाभ
होता है।
४३.आप जब भी ऑफिस बनाये तो
पूर्व या उत्तर मुहँ करके बैठेगे तो सब कार्य आसानी और शांतिपूर्ण होगा । दुकान की
समान वायव्य दिशा में रखने से शीघ्र बिकेगा। भाड़ी मशीन आदि पश्चिम या दक्षिण में
रखनी चाहिये।
४४.नैऋत्य कमरे में या दिशा
वाली कमरा अतिथि या किरायेदार को नही ठहराना या देना चाहिये । क्योंकि वह स्थायी
रूप से रहने लगे । इस कारण वायव्य कोण कमरा में ठहराना चाहिये।
४५.आपको सदा पूर्व या दक्षिण की
तरफ सिर करके सोना चाहिये । उत्तर या पश्चिम सिर करके सोने से आयु क्षीण होती है ।
वैसे पूर्व दिशा में सोने से शकुन महशुस होता है:---
-“नोत्तराभिमुखःसुप्यातपश्चिमाभिमुखोनचII११८II लघुव्यासस्मृति२/८८
“उत्तरेपश्चिमेचैवनस्वपेद्धिकदाचनII११९II
स्वप्रदायुःक्षयंयातिब्रह्महापुरुषोभवेत्
I नकुर्वीतततःस्वप्नंशस्तंचपूर्वदक्षिणमूII१२०IIपद्मपुराण,सृष्टि,५१/१२५-१२६
“प्राच्यांदिशिशिरश्शस्तंयाम्यायामथवानृपIसदैवस्वपतःपुंसोविपरीतंतुरोगदमII१२१IIविष्णुपुराण३/११/१११
““प्राकशिरःशयनेविद्याधनमायुश्चदक्षिणेIपश्चिमेप्रबलाचिन्ताहानिमृत्युरथोत्तरेII१२२II
आ,मयूख,
विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व
की ओर सिर करके सोने से विद्या प्राप्त होती हैं । दक्षिण में सिर करके सोने से धन
तथा आयु की वृद्धि होती है । पश्चिम में सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता होती है ।
उत्तर की तरफ सिर करके सोने से हानी तथा मृत्यु होती है।
४६.आप वास्तुशास्त्र के अनुसार
घर में पत्थर की मूर्तियों का तथा मंदिर का निर्माण निषेध करते है । वास्तव में
मूर्तिका का निषेधन ही है प्रत्युत एक बित्ते से अधिक ऊंची मूर्ति का ही घर में
निषेध है:--
अँगुष्ठपर्वादारभ्यवितस्तिर्यावदेवतुIगृहेषुप्रतिमाकार्यानाधिकाशस्यतेबुधैःII१२३II४७.
“शैलीदारुमयींहैमींधात्वाद्याकारसंभवाम्Iप्रतिष्ठामवेप्रकुर्वीतप्रासादेवागृहेनृपII१२४IIवृ.पाराशर
वास्तुशास्त्र के अनुसार आप
पत्थर, काष्ठ, सोना या अन्य धातुओं
आगे अगले अंक में :---
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