Janiye Jyotish Ke Baare Mein Ye Vishesh Gyaan
ज्योतिष का विशेष ज्ञान By Astrologer Dr. S. N. Jha
“न ह्यस्ति सुतरामायुर्वेदस्य पारम। तस्मादप्रमत्तः अभियोगे अस्मिन गच्छेत अमित्रस्यापी वचः यशस्यं आयुष्ये श्रोतव्यमनुविधाताव्यम च।”
जिन प्राकृतक दृष्यादृष्य कारको तथा पूर्वापर कृत्यों एवं प्रभावों के कारण इस शरीर को आयु के साथ संचलन, विचलन या विराम (मृत्यु) प्राप्त होती है, उसको जिस प्रकाश या ज्योति में दृष्य या जानने पहचानने योग्य ग्रहण किया जा सकता है, उस शास्त्र को ज्योति शास्त्र या “ज्योतिष” कहते है।
जन्मकुण्डली व्यक्ति के जन्म के समय ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह नक्षत्रों का मानचित्र होती है, जिसका अध्ययन कर जन्म के समय ही यह बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को उसके जीवन में कौन-कौन से रोग होंगे। चिकित्सा शास्त्र व्यक्ति को रोग होने के पश्चात रोग के प्रकार का आभास देता है।
आयुर्वेद शास्त्र में अनिष्ट ग्रहों का विचार कर रोग का उपचार विभिन्न रत्नों का उपयोग और रत्नों की भस्म का प्रयोग कर किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रोगों की उत्पत्ति अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव से एवं पूर्वजन्म के अवांछित संचित कर्मो के प्रभाव से बताई गई है। अनिष्ट ग्रहों के निवारण के लिए पूजा, पाठ, मंत्र जप, यंत्र धारण, विभिन्न प्रकार के दान एवं रत्न धारण आदि साधन ज्योतिष शास्त्र में उल्लेखित है।
ग्रहों के अनिष्ट प्रभाव दूर करने के लिये रत्न धारण करने की बिल्कुल सार्थक है।
इसके पीछे विज्ञान का रहस्य छिपा है और पूजा विधान भी विज्ञान सम्मत है। ध्वनि तरंगों का प्रभाव और उनका वैज्ञानिक उपयोग अब हमारे लिये रहस्यमय नहीं है। इस पर पर्याप्त शोध किया जा चुका है और किया जा रहा है। आज के भौतिक और औद्योगिक युग में तरह-तरह के रोगों का विकास हुआ है। रक्तचाप, डायबिटीज, कैंसर, ह्वदय रोग, एलर्जी, अस्थमा, माईग्रेन आदि औद्योगिक युग की देन है।
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इसके
अतिरिक्त भी कई बीमारियां हैं, जिनकी
न तो चिकित्सा शास्त्रियों को जानकारी है और न उनका उपचार ही सम्भव हो सका है। ज्योतिष
शास्त्र में बारह राशियाँ और नवग्रह अपनी प्रकृति एवं गुणों के आधार पर व्यक्ति के
अंगों और बीमारियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जन्मकुण्डली में षष्ठ भाव बीमारी और अष्टम भाव मृत्यु और उसके कारणों पर प्रकाश डालते हैं। बीमारी पर उपचारार्थ व्यय भी करना होता है, उसका विचार जन्मकुण्डली के द्वादश भाव से किया जाता है। इन भावों में स्थित ग्रह और इन भावों पर दृष्टि डालने वाले ग्रह व्यक्ति को अपनी महादशा, अंतर्दशा और गोचर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। अनुभव पर आधारित जन्मकुण्डली में स्थित ग्रहों से उत्पन्न होने वाले रोगों का उल्लेख कर रहा हूँ।
इन बीमारियों का कुण्डली से अध्ययन करके पूर्वानुमान लगाकर अनुकूल रत्न धारण करने, ग्रह शांति कराने एवं मंत्र आदि का जाप करने से बचा जा सकता है। ग्रह स्थिति से निर्मित होने वाले रोग एवं रत्नों द्वारा उनका उपचार किया जा सकता है I
पच्चीस तीस साल पहले जब एक नया रोग दिखाई दिया तो उसे “कैंसर” का नाम दिया गया। “रक्तार्बुद (Blood Cancer)”, ऊतकार्बुद, श्लेष्मार्बुद, कोशिकार्बुद आदि असाध्य ही हैं। उसके बाद जो नयी व्याधि विज्ञान की दृष्टि में आई है उसे “एड्स” किन्तु ज्योतिष के तीक्ष्ण एवं आलोकित प्रकाश में समग्र प्रभावोत्पादक कारको को इस त्रिगुणात्मक संरचना के संपर्क में देखा तथा उन सबको अपने अध्ययन विस्तार से आवृत्त कर दिया I नव ग्रहों का समग्र अध्ययन कर व्याधियों पर पूर्वानुमान करके लाभ पहुँचाने का प्रयास करना मानवीय धर्म बनता है I
कुंडली में ग्रहों की स्थिति पूरे जीवन में होने वाले रोगों की जानकारी देती हैं। जिस घर में जब कोई बीमार हो जाता है तो उस रोगी के साथ-साथ उस घर के सभी व्यक्ति मानसिक रूप से अशांति का अनुभव करने लगते है, प्राचीन समय से ज्योतिष शास्त्र रोगो का निदान करने में महत्पूर्ण भूमिका निभाता आया है, ज्योतिष के माध्यम से रोग की प्रकृति, उसका प्रभाव तथा उसके कारणों का विश्लेषण किया जा सकता है।
ज्योतिष और वास्तु शास्त्र के माध्यम से रोगो का निदान किया जा सकता है, ज्योतिष शास्त्र में, बारह राशियां नौ ग्रह और सत्ताईस नक्षत्रों के माध्यम से रोगों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है, कालपुरुष के विभिन्न अंगों पर राशियों का आधिपत्य होता है जिसके आधार पर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं।
जन्म कुंडली में स्थित प्रत्येक राशि तथा ग्रह शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करता है, जिस ग्रह का जिस राशि पर दूषित प्रभाव होता है उससे संबंधित अंग पर रोग के प्रभाव का पता लगाया जा सकता है।
इस संबंध में रोग की अवधि में किस ग्रह की महादशा चल रही है, ग्रह कुंडली में कौन से भाव में स्थित या दृष्ट है, ग्रह पापी है या शुभ है इन सब बातों से रोग की जानकारी प्राप्त होती है। जीवन में होने वाले रोगों को जानने के लिए ज्योतिषीय विश्लेषण के लिए हमारे शास्त्रों मे कई सूत्र दिए गए हैं। कुंडली के प्रथम भाव से शारीरिक कष्टों एवं स्वास्थ्य का विचार होता है, और द्वितीय भाव व्यक्ति के खान-पान का सूचक है।
तृतीय भाव से व्यक्ति के प्रारंभिक रोगों का विचार किया जाता है, और कुंडली के षष्ठ भाव से व्यक्ति के स्वास्थ्य का, रोग उत्पत्ति का विचार किया जाता है। षष्ठ भाव का कारक ग्रह मंगल, शनि हैं। अष्टम भाव का कारक ग्रह शनि है। इस भाव से आयु, दुर्घटना, मृत्यु और ऑपरेशन आदि का विचार किया जाता है।
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और भावत भावं सिद्धांत के अनुसार षष्ठभाव रोग का है, और षष्ठ से षष्ठ एकादश भाव होने के
कारण इससे भी रोग का ही विचार किया जाता है| तथा रोग का मूल कारक शनि ग्रह को माना
जाता है, रोग
को समझने के लिए जन्मकुंडली में इन भावों और रोग कारक शनि की स्थिति व इस भाव पर
पड़ने वाले ग्रहों की स्थिति को समझना अति आवश्यक है| षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश भाव के स्वामी जिस
भाव में होते हैं उससे सम्बंधित अंग में पीड़ा होती है। किसी भी भाव का स्वामी ६, ८ या द्वादश भाव में स्थित हो तो उस
भाव से सम्बंधित अंगों में पीड़ा होती है।
जीवन में सुख है तो दुख भी है। सांसारिक
सुख और दुखों का कोई पार नहीं। कहते हैं कि जो व्यक्ति प्रभु को समर्पित करके बस कर्म
पर ही ध्यान देता है वह ग्रहों के फेर को भी पलट देता है। व्यक्ति को अपने कर्म और
भाग्य को जगाने का ही प्रयास करना चाहिये I
चार भाव दु:ख के-कुंडली में 12 भाव होते हैं उनमें से 4 भाव दुख के माने गए हैं। ये भाव हैं- द्वितीय, तृतीय, एकादश और द्वादश भाव I द्वितीय भाव परिवार, ससुराल और धन का है। मुख, दाहिना नेत्र, जिह्वा, दांत इत्यादि भी इसे देखे जाते हैं। तृतीय भाव छोटा भाई-बहन और पराक्रम का है।
इसके अलावा धैर्य, लेखन कार्य, बौद्धिक विकास, दाहिना
कान, हिम्मत, वीरता, भाषण एवं संप्रेषण, खेल, गला, कंधा, दाहिना हाथ आदि। यह भी लाभ और हानि देते हैं। एकादश भाव- आय, संपत्ति, सिद्धि, वैभव, बड़ा भाई-बहन, बायां कान, वाहन, इच्छा और उपलब्धि आदि में लाभ के साथ नुकसान
भी।द्वादश भाव-व्यय, हानि, रोग, दण्ड, जेल, अस्पताल, विदेश यात्रा,
धैर्य, दुःख, पैर, बाया नेत्र, दरिद्रता, चुगलखोर, शय्या सुख, ध्यान और मोक्ष का भाव।
तीन भाव महादु:ख- ये तीन भाव है षष्ठ, सप्तम और अष्टम भाव I षष्ठभाव-मूलत:
रोग और शत्रु का भाव है, लेकिन दु:ख-दर्द, घाव, रक्तस्राव, दाह, अस्त्र, सर्जरी, डिप्रेशन, चोर, चिंता, लड़ाई-झगड़ा, मुक दमा, पाप, भय, अपमान, नौकरी आदि भी देखा जाता है I सप्तम भाव-पति-पत्नि
और साझेदारी का भाव है। इससे इच्छाएं, काम वासनाएं,
मार्ग, लोक, व्यवसाय भी देखा जाता है। अष्टमभाव- मौत, आयु और वैराग्य का भाव है। लेकिन संकट, क्लेश, बदनामी, दासत्व, गुप्त स्थान में रोग, गुप्त विद्याएं, पैतृक सम्पत्ति, धर्म में आस्था, गुप्त क्रियाओं, चिंता आदि को भी देखा जाता।
पांच भाव सुख- ये पांच भाव हैं- प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम, नवम और दशम भाव I प्रथम भाव- स्व भाव, लग्न शरीर शारीरिक सुख। इससे वर्तमान काल, व्यक्तित्व, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, विवेकशीलता, आत्म प्रकाश, आकृति, मस्तिष्क, पद-प्रतिष्ठा, धैर्य, इत्यादि देखा जाता है। चतुर्थ भाव- सुख भाव, मतलब भूमि, भवन, माता, संपत्ति, वाहन, जेवर, शिक्षा, पारिवारिक प्रेम, उदारता, दया और हृदय आदि सुख मिलता है। पञ्चम भाव- ज्ञान, शिक्षा, विद्या और संतान का भाव।
Janiye Jyotish Ke Baare Mein Ye Vishesh Gyaan - ज्योतिष का विशेष ज्ञान By Astrologer Dr. S. N. Jha
लेकिन शेयर, संगीत, भविष्य ज्ञान, सफलता, निवेश, जीवन का आनन्द, प्रेम, सत्कर्म, पेट, शास्त्र ज्ञान, कोई नया कार्य, सृजनात्मकता आदि का लाभ। नवम भाव- धर्म,
भाग्य और पूर्वजन्म का भाव। इससे धर्म, अध्यात्म, भक्ति, प्रवास, तीर्थयात्रा,
बौद्धिक विकास और दान इत्यादि देखा
जाता है। दशम भाव-कर्म भाव, इससे नौकरी, व्यवसाय, राज्य, मान-सम्मान, प्रसिद्धि, नेतृत्व, पिता, संगठन, प्रशासन, जय, हुकूमत, गुण, कौशल, इत्यादि का विचार किया जाता है।
जब
शुभ ग्रह, सुख भाव में होंगे तो सुख मिलेगा। पाप
ग्रह दुःख भाव में होंगे तो दुःख की प्राप्ति होगी। शुभ ग्रह पाप भाव में होंगे तो
उस ग्रह से संबंधित कष्ट होंगे। इस परिस्थिति में इलाज ग्रहों का नहीं भावों का
करना चाहिए।
1.
सूर्य, मंगल, शनि और राहु यह दुख देने वाले ग्रह हैं।
2.
शुक्र, गुरु और केतु यह सुख देने वाले ग्रह
हैं।
3.
चंद्र और बुध दोनों सुख व दुःख। लेकिन दु:ख अधिक है।
नवम
भाव:- 1 से 24 वर्ष तक।
पहला
भाव:- 31से 33 वर्ष तक।
दसवां
भाव :- 25 से 26 वर्ष तक।
चौथा
भाव:-40 से 45 वर्ष तक।
पांचवां
भाव :-46 से 51वर्ष तक।
ग्यारहवां
भाव:- 27 से 28 वर्ष तक।
बारहवां
भाव: -29 से 30 वर्ष तक।
दूसरा
भाव :- 34 से 36 वर्ष तक।
तीसरा
भाव :- 37 से 39 वर्ष तक।
छठा
भाव :- 52 से 57 वर्ष तक।
सातवां
भाव :- 58 से 65 वर्ष तक।
आठवां भाव:- 66 से अंत तक। इस तरह कुंडली में भावों से वयोवर्ष का विचार कर फलित करना चाहिये I
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