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Tantra Sadhna Kya Hoti Hai? साधना :- कुछ तंत्र ज्ञान | Tantra Sadhna - Meditation By Astrologer Dr. S. N. Jha

Tantra Sadhna Kya Hoti Hai? Tantra Sadhna - Meditation

साधना :- कुछ तंत्र ज्ञान | Tantra Sadhna - Meditation

दिक्षाधारी ही तंत्र साधना कर सकते है


सर्वेऽर्था येन तन्यन्ते त्रायते च भयाज्जनात् |

इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते || 

आगतं शिववक्त्रेभ्यो, गतं च गिरिजामुखे |

मतं च वासुदेवस्य, तत आगम उच्यते ||


             “ तन्त्र’ अथर्ववेद का उपवेद है अतः तन्त्र भी वेदरूप है क्योकि तन्त्र का तत्त्व है | यह एक स्वतंत्र शास्त्र है जो पूजा और आचार पद्धति पर आधारित इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है | इस प्रकार यह साधना शास्त्र है |


तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है जिसे तीन भागों में तांत्रिक कर्मों को बाँट सकते है | प्रथम मार्ग -अध्यात्म एवं प्रमुख देवोपासना के निर्देशक कर्म, द्वितीय मार्ग- सांसारिक विषयों की सिद्धि के साथ-साथ पारमार्थिक तत्त्वों की सिद्धि देने वाले कर्म तथा तृतीय मार्ग - केवल लौकिक कार्यों की सिद्धि देने वाले कर्म | इन तींनों प्रकार के मार्गों में अधिकारी की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि उत्तम, माध्यम तथा साधारण कोटि के साधकों के लिए यह व्यवस्था है |

उनमें से सिद्धांत, शासन - प्रबंध, व्यवहार, नियम, वेद की एक शाखा, शिव-शक्ति आदि की पूजा और अभिचार आदि का विधान करने वाला शास्त्र, आगम, कर्म-काण्ड पद्धति और अनेक उदेश्यों का पूरक उपाय होता है | तंत्र ग्रंथों में इस विषय में ९ कर्मों का संकेत दिया है |


Tantra Sadhna Kya Hoti Hai? साधना :- कुछ तंत्र ज्ञान | Tantra Sadhna - Meditation By Astrologer Dr. S. N. Jha

ये है -१. मारण, २.मोहन ३.स्तम्भन विद्वेषण ४.उच्चाटन, ५.वशीकरण, ६.आकर्षण, ७.इंद्रजाल, ८. यक्षिनिणी साधन और ९. रसायन कर्म | इनके अतिरिक्त कुछ कर्मों का संकेत
दत्तात्रेय तन्त्र में भी दिया गया है जिसमे १. जयवाद, २. बाजीकरण,३ भूत ग्रहों का निवारण ४.हिंसक पशुभय निवारण और ५. विष प्रतिकार आते है |


अर्थात् जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थो- अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक कर्म करने पर भी लोगों की समस्याओं का समाधान नही होता तो तंत्र अथर्ववेद के माध्यम से नियम और गोपनीय पूर्वक निश्चित कार्य के लिए साधना करने पर पूर्णरूपेण सफलता मिलती ही है | साधना करने से पहले प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह इस कार्य को करने योग्यता स्वयं में है अथवा नही -? संकल्प होता है यथा .. देहं पातयामि वा कार्यं साधयामी | शुद्ध आराधना जब मन में दृढ़ निश्चय हो जाये जो सात प्रकार की शुद्धियों पर अवश्य ध्यान दे; - 


अंग वासन मन भूमिका, द्रव्योपकरण सार |

न्याय द्रव्य विधि- शुद्धता, शुद्धि सात प्रकार ||


अर्थात्  आराधना करते समय शरीर, वस्त्र, मन, भूमि, द्रव्य-सामग्री, न्याय पूर्वक उपार्जित धन और विधि की शुद्धता इन सात शुद्धियों पर ध्यान रखने से उत्तम फल प्राप्त होता है | श्रधा और विश्वास के द्वारा कठिन से कठिन कार्य भी सिद्ध कर सकते है, जो व्यक्ति जिस संप्रदाय एवं कुल परम्परा में उत्पन्न हुआ है, उसी पर पूर्ण निष्ठा रखकर साधना करे | नही तो –


विना स्वधर्म यत् किंचिद् देवताराधना दिकम् |

परिभ्रश्येत तद् यस्मात् क्षणात् सैकतह्मर्यवत् ||  



 अर्थात्  जो साधक अपने धर्म-संप्रदाय, देवता और उनकी आराधना प्रक्रिया को जाने विना साधना करते है वह असफल होते है  अर्थात् जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित को प्राप्त करना चाहता है, उसके निश्चित भी नष्ट हो जाते है और अनिश्चित तो नष्ट है ही | अतः अपने परम्परागत मार्ग को न छोड़े –


यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवाणि निषेवते |

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति ह्यध्रुवं नष्टमेव तत् || 


आपकों चंचल मन से साधना सम्भव नही ..?  चंचलता, व्यर्थ चिंतन और अनुत्साह से मुक्त होकर एकाग्रता शील, वासना वृति के प्रति उदासीन, संयमशील तथा आवश्यकता से ज्यादा लोलुप न होना | साथ ही चित्तवृति की निर्मलता और अहंकार का सर्वतोभावेन त्याग ही साधक को साधना में सरल मार्ग बन जाता है |आत्मा सभी इन्द्रियों का अधिष्ठाता है उसी के प्रकाश से सभी इन्द्रियां कार्य करती है | इसके साथ ही आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का प्रयास ही उपासना का अर्थ है |


जब कोई किसी प्रकार की साधना द्वारा किसी सिद्धि को प्राप्त करना चाहता है, तो उसे आध्यात्मिक दृष्टि से अपने मन को स्थिर बनाना चाहिए | मन की स्थिति से ही अन्य इन्द्रियाँ सुस्थिर होती है | आधिदैविक तत्त्व ( आत्मबल के साथ देवबल साधना में परम आवश्यक है ) और आधिभौतिक तत्त्व ( पृथ्वी,जल, तेज, वायु और आकाश ये पञ्च तत्त्व आधि भौतिक कहलाते है |) साधक के लिए यह अत्यावश्यक है कि वह किसी भी साधना अथवा प्रयोग में समान-शक्ति का चितन करें अर्थात् प्रयोग छोटा हो, अथवा बड़ा, कार्य सभी संपन्न करने है,अतः उनमे किसी प्रकार से हीनभाव न आने दे तथा कर्त्तव्य कर्मो के प्रति भी उदास भाव न रखे |


यदि कर्ता के मन में छोटा-बड़ापन घर कर जाएगा, तो क्रिया में अनंतर आ जाएगा और क्रिया में अन्तर आ जाने से सफलता में भी अंतर आ जाएगा | साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी प्रकार के प्रयोगों में शास्त्र ही प्रमाण है और शास्त्रों के आदेशों के अनुसार किए गए कार्य ही सफल होते है | अतः उसमे अपने मन की प्रवृति के आधार पर इच्छानुसार परिवर्तन अथवा मिश्रण न करें | तंत्रों के तीन विभाग होते है | 

१. स्त्रोतों विभाग, २ पीठ-विभाग  तथा ३. आम्नाय विभाग | इनमे प्रथम स्त्रोतों-विभाग के तीन भेद है यथा - १. वाम, २.दक्षिण तथा ३. सिद्धांत 


वामदक्षिण-सिद्धांतास्त्रिविधं शुद्ध -शैवकम् |

मूलावतारतन्त्रादि      शास्त्रं  यद्वामशैवकम् ||

स्वच्छन्दादीनि   तन्त्राणि  दक्षिणं   शैवमुच्यते |  

कामिकादीनि  तन्त्राणि सिद्धांता इति कीर्तिताः ||   


इस प्रकार १. वाम शैव, २.दक्षिण शैव और ३. सिद्धांत शैव ये संज्ञाए बन गई | परन्तु सिद्धांत शिखाशिरोमणि  में ;-


शक्तिप्रधानं वामाख्यं दक्षिणं भैरवात्मकम् |

सप्तमातृपरं  मिश्रं  सिद्धान्तं वेद्सम्मतम्  ||


             परन्तु वर्तमान समय में तंत्रों के वाम और दक्षिण ये दो मार्ग के ज्यादा संरक्षक मिलते है | इनमे वाम मार्ग का तात्पर्य पञ्चमकार से न होकर नित्याषोड्शिकार्णव के अनुसार वामावार्तेन पूजयेत् |  इस विषय के प्रधान ग्रन्थ- मूलावतार तन्त्र, स्वच्छन्द-तन्त्र और कामिक-तन्त्र आदि है |  तंत्रों के पूर्वोक्त तीन विभागों में प्रथम स्त्रोतोंविभाग शैवों का, द्वितीय पीठ विभाग भैरव तथा कौल-मार्गानुयायियों का और तृतीय आम्नाय विभाग शक्तों का है | शाक्त तन्त्र का विस्तार पूर्वोक्त दोनों तंत्रों को अपेक्षा और भी विस्तृत है | तन्त्रसद्भाव में तो यहाँ तक कहा गया  ;--


सर्वे  वर्णनात्माका मन्त्रास्ते च शक्त्यात्मकाः प्रिये |

   शक्तिस्तु  मातृका  ज्ञेया  सा च  ज्ञेया शिवात्मिका ||


इसके अनुसार मातृका और वर्ण से निर्मित्त समस्त वाङ्गमय ही शिवशत्क्यात्मक है | शक्ति के विभिन्न रूप और उपासना के विभिन्न प्रकारों के कारण इसके साहित्य का परिमाण बताना नितान्त कठिन है | अतः हम यहाँ केवल “त्रिपुरसुन्दरी” की उपासना और उससे सम्बंद्ध कतिपय ग्रंथों की ही चर्चा करेगें | सौन्दर्यलहरी के टीकाकार लक्ष्मीधर ने त्रिपुरोपसना के तीन मतों की चर्चा की है –१.कौल (कौलिक) मत, २. मिश्र मत और समयि मत |


इनमे कौल मत के ६४ आगम नित्याषोडशिकार्णव में है | जिनमे प्रथम से पाँच में महामाया, शम्बर, योगिनी, जालशम्बर,तथा तत्त्व शम्बर ये तन्त्र है, ६ से १३ में स्वच्छाद, क्रोध, उन्मत्त, उग्र, कपाली, झंकार, शेखर और विजय ये आठ भैरव के तन्त्र, १४ से २१ में बहुरुपाष्टक शक्ति तन्त्राष्टक और २२ में ज्ञानार्णव है | २३ से ३० में ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, जयद्रथ, स्कन्द, उमा, लक्ष्मी और  ग्नेश्याम्ल ये आठ यामल, ३१ में चंद्र ज्ञान, ३२ में मालिनी विद्या, ३३ में महासम्मोहन, ३४ में महोच्छुष्म तन्त्र, ३५ -३६ में वातुल और वातुलोत्तर, ३७ मे हृद्य भेद तन्त्र, ३८ में मातृ भेद तन्त्र, ३९ में गुह्य तन्त्र, ४० में कामिक, ४१ में कलावाद, ४२ में कलासार, ४३ में कुब्जिका मत, ४४ में मतोत्तर, ४५ में वीणाख्या, ४६-४७ में तोतल अस्पष्ट शब्द और त्रोतलोत्तर मत, ४८ में पञ्चामृत, ४९ में रूपभेद, ५० में भूतोड्डामर, ५१ में कुलासार, ५२ में कुलोड्डोश, ५३ में कुल- चूड़ामणि, ५४ में सर्वज्ञानोत्तर, ५५ में महापिचु मत, ५६ में महालक्ष्मीमत, ५७ में सिद्धयोगीश्वरी मत, ५८- ५९ में कुरुपिका मत, ६० में सर्ववीर मत, ६१ में विमला मत, ६२ में अरुणेश, ६३ में मोदिनीश  तथा ६४ में विशुद्धेश्वर इन तन्त्रों की गणना की गई है | मिश्र-मतानुयायियों में चन्द्रकला, ज्योत्स्नावती कलानिधि, कुलार्णव, कुलेश्वरी, भुवनेश्वरी, बार्हस्पत्य और दुर्वास मत इन आठ  ,आगमों की स्वीकृति है | समयि-मतानुयायी शुभागम पञ्चक को मानते है, जिनमे वसिष्ठ, सनक, शुक, सनन्दन और सनत्कुमार इन पांचों मुनियों के द्वारा प्रोक्त संहिताए है |


इन तंत्र ग्रंथो को भू- मण्डल के क्रमशः - १. रथक्रान्त २. विष्णुः क्रान्त और ३.अश्वक्रांत में विभक्त है | अनेक आचार्यों ने तन्त्र-ग्रंथों की रचना की है | परशुराम कल्पसूत्र, नित्योत्सव, वामकेश्वर तन्त्र, नित्याषोड्शिकार्णव, शाक्तप्रमोद, शाक्तानन्दतरंगिणी, प्रपंचसार, तन्त्रालोक आदि सुप्रसिद्ध एवं संग्राह्य ग्रन्थ है अन्य 1.गाणपत्यतन्त्र, 2.बौद्धतन्त्र,3. जैनतन्त्र, 4. वैष्णवतन्त्र (संहिता)  ५.शाक्ततन्त्र (तन्त्र) और ६. शैवतन्त्र (आगम)  | इनके अतिरिक्त भी शावर तन्त्र, डामर तन्त्र, मुस्लिम तन्त्र तथा लोकभाषात्मकतन्त्र प्रयोगों के ग्रन्थ यत्र- तत्र प्राप्त होते है |

Kaise Kare Sadhna Ya Meditation Janiye.

 आसन  का दूसरा अर्थ उपासना में बैठने कि पद्धति भी है | साधक को उपासना के समय आसन के लिए योग-दर्शन में कहा; स्थिरसुखमासनम् | पद्मासन,अर्धपद्मासन, सिद्धसन, भद्रासन, सुखासन, वीरासन - उग्र कर्म के लिए | मुख्य रुप से जो आसन कुश अथवा ऊन के बनते है | उनमे में रंग का भी बड़ा महत्त्व रहता है |श्वेत रंग शांति और सात्त्विक कर्म  के लिए, काला रंग तामस कर्म- मारण- उच्चाटन के लिए है |लाल रंग आकर्षण,  वशीकरण, लक्ष्मी- प्राप्ति, देवी उपासना आदि में उपयोगी है और पीला रंग भी उपर्युक्त कर्मों के लिए है |

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आपत्काले महादेवि दिपदानं समाचरेत् |

न तिर्थिर्न च नक्षत्रं न योगो नैव कारणम् ||

अर्थात् 

आपत्ति के समय दीपदान यानि दीप जलानी चाहिए अपने मन्दिर में  करने से अनहोनी टल जाती है | इस प्रयोग के लिए तिथि, नक्षत्र, योग, करण, राशि, सुर्यादि ग्रह विचार आदि अपेक्षित नही है |  

                 दीपदान देवताओं की प्रशन्नता के लिए किया जाता है |


महत्कार्ये सौवर्णम्, वश्ये राजतम्, क्वचित् ताम्रमपि, विद्वेषणे कांस्यम्, मारणे लोहम्, उच्चाटने मृत्मयम्, विवादे गोधूम पिष्टजम्, मुखस्तम्भे माषपिष्टजम्, शान्तौ मौद्गम, सन्धो नदीकूलद्वयमृदा, सर्वालाभे ताम्रमेव वा कुर्यात् |


अर्थात् किसी भी महान् कार्य की सिद्धि के लिए सुवर्ण का दीप होना चाहिए, वशीकरण में चाँदी का अथवा ताम्र का, विद्वेषण या मारण कार्य में लोहे का, उच्चाटन में मिटटी का, विवाद में गेहूँ के आटे का, मुख- स्तम्भन में माष उरद के चूर्ण का, शांति में मूंग के आटा का, संधि में नदी के दोनों किनारों की मिटटी का तथा उपर्युक्त वस्तुओं का आभाव रहने पर ताम्र का दिपपात्र बनाना चाहिए | तथा सामान्य धर्म कर्म में पीतल का होना चाहिए |     


पौष में दान सूर्य के लिए, कार्तिक दीपदान विष्णु के लिए, वसंत, हेमंत, शिशिर, वर्षा और शरद् ये ऋतुए, मास में वैशाख, श्रावण आश्विन, कार्ति, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन तथा समय में प्रातः सायं, मध्यरात्रि तथा अन्य कर्म की पूर्णाहुति से पूर्व दीपदान के लिए उत्तम मानी गई है | जो पूर्ण काल तक जलना चाहिए उस हिसाब से दीप पात्र रहना चाहिए |


गौ का घृत सर्वसिद्धि कारक है | मारण मे भैस के घृत, विद्वेषं में उंटनी के घृत, उच्चाटन में बकरी के घृत, मारण में सरसों का तथा मुख रोग अथवा दुर्गन्ध से दूर होने केलिए फूल- पत्ती से बना तेल से दीप जलाना चाहिए | पूर्व दिशा में दीप का मुख रखने से सर्वसुख की प्राप्ति होती है | स्तम्भन, उच्चाटन, रक्षण, तथा विद्वेषण में पश्चिम दिशा की और दीपक का मुख रखना चाहिये | यश और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए उत्तराभिमुख तथा मारण में दक्षिणाभिमुख दीपक रखना चाहिए | 


इसलिए मारण जैसे कर्म तो कदापि नहीं करने चाहिए और जहाँ तक संभव हो, कल्याणकारी साधना में ही प्रवृत होना उत्तम है | लौकिक तंत्रों में शास्त्रीयता के साथ-साथ जनमानस पर प्रभाव डालने तथा उसकी संगती से आत्मविश्वास जगाने के लिए कई प्रयोग देखने में आते है, जिन्हें ओझा, उपाध्याय नाम से ख्याति प्राप्त व्यक्ति करते है और उनसे पूर्ण सफलता  होती है | 

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यथा  ;- १.अभिषेक- मन्त्रों द्वारा जल को अभिमंत्रित करना |

२.कङ्कण-कवच - सोना, चाँदी ताँबा, लोहा आदि धातुओं से बना हुआ कड़ा बनाकर उसे अभिमंत्रित करना |


३.पट्ट-  कपड़े के किसी भाग को लेकर उस पर यंत्र लिखते है तथा विजय-यात्रा, मंगल-प्रस्थान आदि के समय सर अथवा भुजा पर जयपट्ट  के रुप में बाँध लेते है | ध्वजा के रूप में भी यन्त्र लिखे जाते है | 

 

४. अन्य धारण करने योग्य वस्तुए -  कार्य-सिद्धि के लिए यन्त्र, देह-रक्षा, रत्न,औषधि,कवच, फल, विशिष्ट वस्तुए- जैसे कौड़िया, शंख, रुद्राक्ष, दन्त, नख, चरम धर्तुनिर्मित महत्वपूर्ण वस्तुए,दिव्य वृक्षों के बिज, अभिमंत्रित पदार्थ आदि | 


५. लेपन और अंजन - कार्य-सिद्धि के लिए तांत्रिक दृष्टि से मस्तक पर चन्दन, पैरों में लेप तथा आँखों में अंजन लगाया जाता है जिनके लिए मन्त्र- प्रयोग पूर्वक विविध औषधियों का उपयोग अपेक्षित है |


६. पिच्छक. चड़ या झारणे की वस्तु -.सामान्यतः सिद्ध मन्त्रों द्वारा रोगी पर मन्त्र पढ़ते हुए झड़ने की प्रक्रिया हमारे यहाँ बहुत प्रचलित है | इनमें फूंक, मारण, राख मलना,पानी के छीटें देना, सरसों, राई और लाल मिर्च उतरना, गूगल आदि की धुप देना, नाम की डाली, पक्षियों के पंख का प्रयोग होता है |

 ब्रह्मयामल- तन्त्र में पिक्षक बनाने  का विधान -


षडिवैशत्या चतुःषष्ट्या शतेनाष्टोत्तरेण वा | 

मयूरोलूक-पक्षाणां तन्मानं ग्रंथिपिच्छ्का ||

ग्रहणे मुक्तिपर्यन्तं रक्त सूत्रेण वेष्टयेत् | 

इष्टमन्त्रं  जपेत् सत्यं सिद्धं रणेऽरि नाशनम् || 


इस माध्यम से अनेक कार्य सिद्ध होते है | श्री भैरवजी, श्रीहनुमानजी और श्रीदेवीजी के स्थान पर ऐसे पिच्छक रहते है | इसी प्रकार फकीर लोग धूपदान और पिच्छक रखते है |


७. कीले गाड़ने - कुछ स्थानों पर नकारात्मक शक्ति या प्रेतों का निवास हो जाता और वे प्रायः वहां रहने वालों को परेशानियाँ  आती रहती है |   ऐसे स्थानों के चारो और दीप जलाकर कन्या द्वारा अभिमंत्रित कील गाड़े जाते है |ये कीले लोहे या खेर की लकड़ी के बनते है |


८. पताकाएँ - मन्दिर के शिखरों पर तथा प्रासाद या घरों पर ध्वजा पताकाएँ लगाई जाती है | इन पर  कुछ आकृतियाँ, यन्त्र तथा प्रतिक बनाए जाते है | प्राचीन काल में विजय यात्रा में अभिमंत्रित पताका लगाने का बड़ा विधान था | ये  पटके छोटी,बड़ी रंग बिरंगी, त्रिकोणी और चौकोड़ बनाकर मंत्र द्वरा अभिमंत्रित करके लगाने से विघ्न-निवारण होता है तथा प्रेतादी को बाधा दूर होती है |


इन सब वस्तुओं के अतिरिक्त भी लोकाचार के अनुसार और बहुत कुछ ऐसी है जिनका यहाँ वर्णन नही किया जा सकता है |अस्तु   

ब्रह्मयामल में दीक्षा लेने का समय- 

सुर्येंन्दुग्रहणे प्राप्ते दीपोत्सवदिनत्रये |

पुष्यमूलार्कयोगे च महानवमिवासरे || 

खदिरेण च कीलेनप्रोद्धरेत्ता महौषधीः |

बलिपूजाविधानेन सर्वकर्मसु सिद्धिदा ||


अर्थात् सूर्यग्रहण,चन्द्रग्रहण, दीपोत्सव के तीन दिन- धनतेरस,चौदस,अमावस्या, रविपुष्य,र्विमुल और महानवमी के दिन खदिर प्लस के कील से महान् औषधियों का बली पूजा का विधान करके जिससे सब प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करती है | 


धन्यं तन्त्रविधान मन्त्र सकलाः सन्ति क्रिया निर्मलभाषां पालनतो भवन्ति स्फ्लाका वाञ्छा जनानां क्षिन्नौ शास्त्राचार समन्वितं शुभकरं

तस्मादिदं साधुनां, सत्ये धर्म निवर्ततां च सततं हे तान्त्रिकाः साधकाः |

 अतः तन्त्र मार्ग में  प्रवेश करने वाले प्रत्येक साधक को चाहिए कि वह ऐसे ही तांत्रिक कर्म करे, जिनसे लोक-कल्याण की साधना हो और रोग- शोक से पीड़ित व्यक्ति सुखी और संपन्न बनें | ऐसे कार्य में निर्लोभ -भावना से यदि कार्य किया जाए, तो सफलता अवश्य मिलती है और इश्वर कृपा से प्रयोग-कर्त्ता का किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता |   

                                                                                                                                                   

तंत्रों के प्रयोग बड़ी सावधनी से करने चाहिए, अन्यथा ये विपरीत फल देते है 

तन्त्र का बीजं मंत्र : -गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः |


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