ज्योतिष और षड्दर्शन
ज्योतिष एक ब्रह्म विद्या है जो अनेकों रूप में विद्यमान है | भारतीय ज्योतिष की विश्लेषणात्मक परिधि का विस्तार इतना है कि उसके अंतर्गत सभी सांसारिक पदार्थोँ का विश्लेषण आ ही जाता है | सभी दर्शनों का प्रतिपादन विषय एक ही है जो सार्वदेशिक और सार्वकालिक है | रस्ते भिन्न होने से भी प्रतिपाद्य विषय एक रहने पर शब्द मात्र की विभिन्नता होने पर वस्तुगत विभिन्नता नहीं होती | इसलिए सभी दर्शनों में शब्द की विभिन्नता है पर उनके लक्ष्य एक है | यथा जल प्रवाहिनी नदियों का जल प्रवाह चाहे नर्मदा मार्ग से या गंगा मार्ग से या अन्य किसी नदी मार्ग से अपने लक्ष्य रुपी समुद्र तक पहुंँचना है तो इससे किसी को आपत्ति क्यों होगी, इसी प्रकार ज्ञानी लोगों को भी लक्ष्यरुपी ईश्वर की प्राप्ति में मार्ग भिन्नता के लिए कोई विसंवाद नहीं होना चाहिए | लक्ष्य को देखना चाहिए कि वह किस मार्ग से आसानी से प्राप्त होता है अर्थात यह देखना होगा कि किस नदी का प्रवाह जल को समुद्र तक सही तक ले जाता है | इसी प्रकार सभी दर्शन शास्त्र एक ही लक्ष्य को बताते है और अपने अपने मार्ग द्वारा निजी लक्ष्य रुप तक पहुँच जाते है |
लौकिक, भौतिक और तात्विक भेद से दर्शन का दो विभाग है | भौतिक शाखा में किसी स्थूल पिण्ड के बाह्यावयव को और तात्विक शाखा में उसके अन्तस्तत्व को देखने की व्यवस्था रहती है | वस्तुमात्र को देखने में दोनों व्यवस्थाएँ साथ साथ चला करती है |
यथा किसी भौतिक स्थूल पिण्ड को देखने से दृष्टा के नेत्र गोलक केंद्र से विनिर्गत रश्मियाँ ही हेतु है | अर्थात् ये रश्मियाँ दृश्य पिण्ड के शरीर भाग को बाह्य स्पर्श ही करती है | नेत्र गोलक केंद्र से इस प्रकार अनेक रश्मि किरणें निकलकर दृश्य पिण्ड को स्पर्श करती है | जिससे एक देहगत मण्डल सी प्रतीति होती है | जिसको वैज्ञानिक लोग दृश्य मण्डल कहते है | यह दृश्य मण्डल, यदि वर्तुल पिण्ड के ऊपर हो तो सदैव उस के आधे मण्डल से कम ही दृश्य होता है | यह ज्योतिष गणित से सिद्ध है |
द्रष्टा दृष्ट मण्डल के निचले भाग को ही देख पाता है, यह बाह्य दर्शन है, जिससे किसी पिण्ड की भौतिक मर्यादा सिद्ध होती है | दृश्य भौतिक पिण्ड के ऊपर दृष्टि बिंदु से जो दृक् रश्मियाँ जाती है, और उनसे जो पिण्ड दृष्टिगत होता है, वह दृष्टि से प्रत्येक दृक् रश्मि द्वारा उस पिण्ड का अन्तर्विभूतियाँ अन्तः शक्ति का बाह्य प्रक्षेप है | यानि वह अणुरुप में प्रत्येक किरण द्वारा निकलकर दृष्ट के दृष्टि गोलक केंद्र में घनीभूत होकर उस अन्तर्विभूति का प्रतिक स्थूल रुप में प्रतिबिम्बित होता है | इसको भौतिक पिण्ड की कला कहते है |
यहाँ कला शब्द उस अर्थ में प्रयुक्त हुआ, जिससे उस पिण्ड की अन्त्रविभूति या अन्तः शक्ति या तेजो विभूति ज्ञात हो | यह कलात्मक सत्य भौतिक पिण्ड गत देह मर्यादा के साथ व्यस्त अनुपात में सर्वदा बनी रहती है, उसे तात्विक दर्शन भी कहते है | उपर्युक्त इन दोनों लक्षणों के तात्विक पर्यालोचन से स्पष्ट मालूम होता है कि भौतिक मर्यादा ज्यों-ज्यों बढ़ती है त्यों-त्यों द्रष्टा की दृष्टि से भौतिक पिण्ड की दूरी अधिक होती और तात्विक दर्शन में सूक्ष्म कलात्मक विभूति नेत्र गोलक केन्द्रस बिंदु से अल्प हुआ करती है |
इसके विपरीत ज्यों-ज्यों भौतिक पिण्ड का बाह्य शरीर मर्यादा घटती है,त्यों-त्यों भौतिक पिण्ड द्रष्टा के सन्निकट होता है और नेत्र गोलक विन्दु पर कलात्मक विभूति बढ़ती जाती है | यह गणित सिद्ध आकाश सम्बन्ध है | यदि द्रष्टा को नेत्र गोलक केंद्र बिंदु दृश्य, भौतिक पिण्ड गत दृश्य मण्डल के मध्य बिंदु पर हो जाय, तो देहगत भौतिक पिण्ड का यानी बाह्य देहगत मर्यादा का आभाव हो जाएगा और नेत्र गोलक पर कलात्मक विभूति अमयार्दिक या अनन्त हो जाएगी |
उस समय देखने वले को देहाभास न होकर समस्त ईश्वरीय या भौतिक पिण्ड गत दिव्य शक्ति के रूप का ही दर्शन होता है, यही देह की कला है या आत्म विभूति है |जिस समय भौतिक दृश्य पिण्ड गत दृष्टि गत दृष्टि मण्डल की मर्यादा परमाधिक्य या देहार्थ मण्डल के बराबर होता है, तो दृश्य पिण्ड के बाह्य भाग का आधा ही दर्शन होता है |किन्तु दृष्टि स्थान को अमर्यादिक भूमि में फेंकना है, जहाँ दृष्टिगोलक केंद्र पर कलात्मक विभूति का आभाव होता है, यह ज्योतिष दर्शन है | इस दर्शन के उक्त सिद्धांत पर विचार करने से सिद्ध होता है कि विश्व ब्रह्माण्ड के अंतर्गत जितने स्थूल पिण्ड है, उन सबों में उक्त दो प्रकार की विभूतियाँ अनिवार्य रूप से व्यस्तानुपात में बराबर हुआ करती है | यह विभूति अत्यन्त विलक्ष्ण होती है | इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जागतिक प्रत्येक पिण्ड का सूक्ष्माति सूक्ष्म अणु परिमाण अवश्य होता है, जिसे दृग,रश्मि या पिण्ड देह से उठाकर अणु रुप में बाहर फेंकती है | अतएव न्याय वैशेषिक अपने दर्शनशास्त्र में प्रत्येक पिण्ड के परमाणु अवयव को स्वीकार करके ही उसके द्वारा उस पिण्ड का तात्विक रुप बनाते है, जो स्थूल है |
वेदान्त मत में आत्मा को अणु कहा है और महान् से भी महान् कहा है | इसका तात्पर्य यह है कि अणु का यथार्थ ज्ञान महान् ज्ञान का फल है | अतएव नैयायिकों के अणु ज्ञान द्वारा ब्रह्मज्ञान कहना ठीक ही है | जो लोग सूक्ष्म तत्व कि देखते है |उनकों महत् तत्व देखने का ही फल होता है | यह ज्योतिष दर्शन से उपपति युक्त है |
योग दर्शनानुसार प्रथमतः आत्मा का अनुरुप ही दर्शन होता है, इसमें किन्चिन्द्पी संदेह नहीं है | यह परिस्थिति मूलाधार से उठकर आज्ञा चक्र में चले जाने पर सहस्त्रारमूल में अणु का दर्शन होता है | यही विभूति है, इसका दर्शन योगी लोग ज्ञान दृष्टि से प्रत्यक्ष करते है | इसलिए न्याय वैशेषिक कि परमाणु कल्पना अपूर्व और युक्ति युक्त है | आगम शास्त्र में भी ईश्वर को अणु से अणु और महान् से महान् कहा गया है | इसका तात्पर्य यह है कि अणु व्यष्टि रुप में व्यापक है और समष्टि रुप में महान् है, जो इस उक्ति को गौण समझते है,वे भ्रम में है,क्योंकि एक ही वस्तु का एक स्थल में गौण और दूसरी जगह मुख्य कथन उचित नहीं है |
मीमांसा दर्शन में कर्म के तीन भेद बतलाये गये है - संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण | कर्म की पद्धति अविछिन्न रुप से अनादिकाल से ही चली आ रही है |कर्मगत फल को भोगने से ही कर्म का अवसान होता है | जिस कर्म का फल जन्मान्तर के शरीर से होता है, वह प्रारब्ध कर्म है | कर्म करने के समय फल भोगने में जीव को कुछ शेष कर्म रह जाता है | यथा घृत पात्र से परिमाण मात्र घृत निकाल लेने पर भी पात्रगत कुछ न कुछ घृत शेष रह जाता है | इसी प्रकार शरीर द्वारा सभी कर्मों को भोग करने पर भी कर्म शेष रह जाता है | यह संचित रूप में परिणत हो जाता है |
उसका भोग इस जीव को कभी न कभी अनुगत होने पर अवश्य होता है | ऐसी बात कदापि नहीं हो सकती कि बिना भोग के ही कर्म क्षय हो जाय | अपितु पूर्व से वंचित कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा | कर्म कि प्रबलता इतनी शक्तिशाली है कि मुक्तात्मा जीव को भी प्रारब्ध कर्मफल भोगने से ही कर्म क्षय होता है, ज्ञान से नहीं |ज्ञान से केवल उसी कर्म का क्षय होता है जप अनाराब्ध है | इस प्रकार आत्मा इन तीन तरह के कर्मों के कारण अनेक जन्मों को धारण करता है | एवं संस्कार अर्जन करता चला आ रहा है | आत्मा के साथ अनादिकाल कर्म प्रवाह के कारण लिंग शरीर, कर्माण शरीर और भौतिक ( स्थूल ) शरीर का सम्बन्ध है | जोपूर्व प्रतिपादित है | जब तक एक स्थान से आत्मा इस भौतिक शरीर का त्याग करता है, तो लिंग शरीर उसे अन्य स्थूल शरीर की प्राप्ति में सहायक होता है | इस स्थूल भौतिक शरीर में विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों की निश्चित स्मृति को खो देता है | इसलिए ज्योतिर्विदों ने प्राकृतिक ज्योतिष के आधार पर कहा है कि यह आत्मा मनुष्य के वर्त्तमान स्थूल शरीर में रहते हुए एक से अधिक जगत् के साथ सम्बन्ध रखता है, मानव का स्थूल शरीर क्रमशः ज्योतिः, मानसिक और पौद्गलिक( जीव सम्बन्धी ) शरीर में विभक्त है |
यह ज्योतिः उप शरीर द्वारा नाक्षत्र जगत् से मानसिक उप शरीर द्वारा मानसिक जगत् से और पौद्गलिक उप शरीर द्वारा भौतिक जगत् से सम्बन्द्ध है | अतएव मानव प्रत्येक जगत् से प्रभावित होता है तथा अपने भाव, विचार, और क्रिया द्वारा प्रत्येक जगत् को प्रभावित करता है | उसके वर्त्तमान शरीर में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, दुखः आदि अनेक शक्तियों का धारक आत्मा सर्वत्र व्यापक है, तथा शरीर प्रमाण रहने पर भी अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा वुभिन्न जगतों में अपना कार्य करता है | मनोवैज्ञानिकों नेआत्मा की इस क्रिया कि विशेषता के कारण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को बाह्य और आतंरिक दो भागों में बाँटा है |
बाह्य व्यक्तित्व- वह है जिसने इस भौतिक शरीर रूप में अवतार लिया है | यह आत्मा की चैतन्य क्रिया की विशेषता के कारन अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचार, भाव और क्रियाओं कि ओर झुकाव प्राप्त करता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा उस व्यक्तित्व के विकास में वृद्धिं होती है और वह धीरे धीरे विकसित होकर आतंरिक व्यक्तित्व में मिलने का प्रयास करता है |
आन्तरिक व्यक्तित्व - वह जो अनेकों बही व्यक्तियों की स्मृतियों, अनुभवों और प्रवृतियों का संश्लेषण अपने से रखता है|बही और आन्तरिक इन दोनों व्यक्तित्व सम्बन्धी चेतनाओं के ज्योतिष में विचार, अनुभव और क्रिया ये तीन रूप माने गए है | बाह्य व्यक्तित्व का इन तीनों रूपों से सम्बन्ध है पर आन्तरिक व्यक्तित्व के ये तीन रुप, अपनी निजी विशेषता और सकती रखते है, जिससे मनुष्य के भौतिक, मानसिक और आन्तरिक इन तीनों जगतों का
सञ्चालन होता है |
मनुष्य का अंतःकरण इन दोनों व्यक्तित्व के उक्त तीनों रूपों को मिलाने का कार्य करता है | दूसरे दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि ये तीनों रुप एक मौलिक अवस्था में आकर्षण और विकार्षण की प्रवृति द्वारा अंतःकरण की सहायता से संतुलित रुप को प्राप्त होते है | तात्पर्य यह है कि आकर्षण की प्रवृति बाह्य व्यक्तित्व को और विकर्षण की प्रवृति आन्तरिक व्यक्तित्व को प्रभावित करती है और इन दोनों के बीच में रहनेवाला अंतःकरण इन्हें संतुलन प्रदान करता है | मनुष्य की उन्नति और अवन्न्त्ति इन संतुलन के ऊपर ही निर्भर है |
मानव जीवन के बाह्य व्यक्तित्व के तीन रूप और आन्तरिक व्यक्तित्व के तीन रूप तथा एक अन्तःकरण इन सातों के प्रतिक सौर जगत् में रहनेवाले सैट ग्रह माने गए है | ये सातों रुप सब प्राणियों के एक से नहीं होते हैं | क्योंकि जन्म जन्मान्तरों के संचित प्रारब्ध कर्म विभिन्न प्रकार की बातें प्रकट करते हैं | प्रतिरूपों की सच्ची अवस्था बीज गणित की अव्यक्त माना कल्पना द्वारा निष्पन्न अंकों के समान प्रकट हो जाती हैं | यहाँ बही और आन्तरिक व्यक्तित्व के ६ रुप तथा एक अंतःकरण इन सात प्रतिरूपों के आध्यात्मिक प्रतीक सात ग्रह -
गुरु- बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रुप विचार का प्रतिक गुरु है | यह प्राणिमात्र के शरीर का प्रतिनिधित्व करता है और शरीर सञ्चालन के लिए रक्त प्रदान करता है | जीवित प्राणी के रक्त में रहनेवाले कीटाणुओं की चेतना से इसका सम्बन्ध रहता है | इस प्रतीक द्वारा बहत व्यक्तित्व के प्रथम रुप से होनेवाले कार्यों का विश्लेषण किया जाता है | इसलिए ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक ग्रह से किसी भी मनुष्य के आत्मिक, अनात्मिक और शारीरिक तीन प्रकार के दृष्टिकोण से फल कहा जा सकता है | आत्मिक दृष्टिकोण से गुरु विचार, मनोभाव और इन दोनों का मिश्रण, उदारता, अच्छा स्वभाव, सौन्दर्य, प्रेम, शांति, भक्ति एवं व्यवस्था बुद्धि इत्यादि आत्मिक भावों का प्रतिनिधिनित्व करता है |
मंगल- यह इन्द्रियज्ञान और आनन्देच्छा का प्रतिनिधित्व करता है | जितने भी उत्तेजक और संवेदना जन्य आवेग है, उनका यह प्रधान केंद्र है | बाह्य आनंद दायक वस्तुओं के द्वारा यह क्रियाशील होता है | यह साहस, बहादुरी, दृढ़ता, आत्मविश्वास, क्रोध, लड़ाकू प्रवृति प्रभृति भावों और विचारों का प्रतिनिधि है |
चन्द्रमा - स्थूल शरीरगत चेतना के ऊपर अपना प्रभाव डालता है और मस्तिष्क में उत्पन्न होनेवाले परिवर्तनशील भावों का प्रतिनिधि है | यह संवेदना, आन्तरिक इच्छा, उतावलापन, भावना, विशेषतः घरेलू जीवन की भावना,कल्पना, सतर्कता एवं लाभेच्छा पर प्रभाव डालता है |
शुक्र - यह सूक्ष्म मानव चेतनाओं की विधी क्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है | पूर्ण बली शुक्र निःस्वार्थ प्रेम के साथ प्राणी मात्र के प्रति भ्रातृत्व भावना का विकास करता है |
बुध- आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है | इसके द्वारा आन्तरिक प्रेरणा, सहेतुक निर्णयात्मक बुद्धि, वस्तु परिक्षण शक्ति, समझ और बुद्धिमानी का विश्लेषण बड़ी खूबी से करता है |
सूर्य- यह पूर्ण देवत्व की चेतना का प्रतीक है | इसकी सात किरणें है | जो कार्य रुप से भिन्न होती हुईं भी इच्छा के रुप में पूर्ण होकर प्रकट होती है | मनुष्य के विकास में सहायक तीनों प्रकार की चेतनाओं के संतुलित रुप का यह प्रतीक है | यह पूर्ण इच्छा शक्ति, सदाचार, विश्राम, शांति, जीवन की उन्नति एवं विकास का द्योतक है | उह प्रभुता ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता, महत्वाकांक्षा, आत्माविश्वास, आत्म नियंत्रण, विचार और भावनाओं का सन्तुल एवं सहृदयता का प्रतीक है |
शनि- अंतःकरण का प्रतीक है | यह बाह्य चेतना और आन्तरिक चेतना को मिलाने में पुल का काम करता है | यह सात्विक ज्ञान, विचार स्वातंत्र, नायकत्व, मननशीलता, कार्य परायणता, आत्म संयम, धैर्य, दृढ़ता, गंभीरता, चारित्र शुद्धि, सतर्कता, विचारशीलता एवं कार्यक्षमता का प्रतीक है |
आपके अनन्त प्रश्न उसके समक्ष मुँह बाए खड़ी रहती है | इन सभी समस्याओं के बारे में ज्योतिष शास्त्र अपने तौर तरीकों से विचार करता है तथा मानव को बतलाकर उसकी सेवा करता है | इन सारी समस्याओं का निदान ज्योतिष, होरा, प्राण, सामुद्रिक, केरल, अंक, स्वर आदि के माध्यम से बतलाता है | अतः यह शास्त्र ग्रहों के आधार पर ग्रहों के जीवन के सभी विषयों कि व्यवस्था अपनी दृष्टि से कहता है | विश्व कि सृष्टि से लेकर उसके लय तक के विषय में ही नहीं अपितु मनुष्य के गर्भधारण, उत्पति, जीवन उसका अंत, स्वर्ग, मोक्ष आदि सभी विषयों के लिए यह शास्त्र अपना विचार प्रस्तुत करता है | इसी प्रकार इसने ग्रह को आधार मानकर उसके द्वारा विश्व कि सृष्टि और लय का वर्णन भी किया है |
मनुष्य स्वभाव से ही अन्वेषणशील प्राणी है | वह सृष्टि के प्रत्येक वास्तु के साथ अपने जीवन का तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करना चाहता रहता है | उसकी यही प्रवृति ने ग्रहों के साथ अपने जीवन का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया | जो होराशास्त्र के माध्यम से जन्म पत्री के द्वादश भावों में विभक्त भचक्र के भागों तथा उनसे सम्बंधित सूर्यादि ग्रहों के शुभाशुभत्व के गुणों के आधार जन्म चक्र के माध्यम से प्राणी के शुभाशुभ फलों को दर्शाता है | कुंडली मानव के पूर्व जन्म के संचित कर्मों का मूर्तिमान रूप है | जिस प्रकार विशाल वटवृक्ष का समावेश उसके बीज में है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के पूर्व जन्म-जन्मान्तरों के कृतकर्म ज्योतिष से बने जन्म पत्री में अंकित रहता है |
यदुपचितमन्य जन्मनि शुभाशुभंतस्यकर्मणः प्राप्तिम् |
व्यज्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव ||
अर्थात् पूर्वजन्म में किए गए शुभाशुभ फलों को अपने शुभाशुभत्व के आधार पर सूचित करते है कि ताकि व्यक्ति ग्रहों के स्वभाव तथा गुणों द्वारा अन्वय व्यतिरेक रूप कार्यकारण जन्य अनुमान से अपने भावी सुख-दुःख प्रभूति को पहले से अवगत कर अपने कार्यों में सजग रह सके तथा आगामी दुःख-कि सुख में परिणत कर सके | पूर्व प्रतिपादित विषयों के आधार पर यह स्पष्ट है कि संचित पाप- पुण्य जन्य दुःख और सुख को ही मनुष्य भोगता है | अतः पुरुषार्थ के आधार पर अदृष्ट दुःफल को टाला भी जा सकता है |
अथवा न्यून किया जा सकता है | अर्थात् अदृष्ट फल कि अपेक्षा पुरुषार्थ कि प्रबलता में दुःख कि प्राप्ति भी होती है | अतः यह कहना भी उचित होगा कि मनुष्य अपने पुर्वोपार्जित अदृष्ट के साथ साथ वर्त्तमान में जो अच्छे-बुरे कर्म करता है उन कर्मों का प्रभाव उसके पुर्वोपार्जित अदृष्ट पर अवश्य पड़ता है | वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन छः है | ये न्याय, वैशेषिक, जैमिनि -मीमांशा, व्यास उत्तर मीमांशा, सांख्य, योग, |
यदि पुरुषार्थ को नही माना जाय तो जीव को मुक्ति भी नहीं मिल सकती, क्योंकि वह तो पुरुषार्थ कि ही देन है | फलतः हमारे ऋषि महिर्षि ने अपने जीवन के अन्दर ग्रहतत्त्वों का प्रत्यक्ष दर्शन किया और व्याहारिक ज्ञान द्वारा प्राप्त अनुभव का विश्लेषण कर ज्योतिष शास्त्र का सृजन किया | जिसमे सारे तत्त्व ग्रह में रश्मि का अमृतत्व, विषत्व और मिश्रत्व का विवेचन किया तथा साथ ही उनके मानव जीवन पर पड़नेवाली प्रभावों का भी विश्लेषण किया |
अतः ग्रहों के गुण धर्म स्वभाव तथा प्रतीक आदि से सृष्टि और प्रकृति के रहस्यों कि व्याख्या होती है | उनके गुणों के आधार पर ही उनके शुभाशुभत्व का वर्गीकरण किया | समस्त भारतीय विचार की पृष्ठभूमि दर्शनशास्त्र है | कला से लेकर विज्ञान तक सभी शास्त्रों का अपना दर्शन है | इसलिए भारत में सभी प्रकार के ज्ञानों को दार्शनिक दृष्टि से देखता है और उनके परिणाम को आँकता है|
वैदिक दर्शनों में षड्भारतीय दर्शन के अनुसार आत्माअमर है | इसका कभी नाश नहीं होता है यह कर्मों के अनादि प्रवाह के कारण पर्यायों को बदला करता है |आध्यात्म शास्त्र का कथन है कि दृश्य सृष्टि, केवल नाम रुप या कर्म ही नही, अपितु नाम रुपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरुपी, स्वतन्त्र और अविनाशी आत्मतत्त्व है तथा प्राणी मात्र के शारीर में रहनेवाला वह तत्त्व नित्य एवं चैतन्य है केवल कर्म बंधन के कारण वह परतंत्र और विनाशी दिखलाई पड़ता है |
वह इस बंधन से अपने को मुक्त करना चाहता है | क्योंकि बंधन में अतिशय दुःख का अनुभव करता है | दर्शन शास्त्र इसी बंधन से आत्म तत्व को मुक्त होने का उपाय बतलाता है |भारतीय दर्शन छः है | प्रथम गौतम का न्याय शास्त्र, द्वितीय कणाद का वैशेषिक, तृतीय जैमिनि का मीमांश दर्शन, चतुर्थ व्यास का उत्तर मीमांशा वेदान्तदर्शन, पञ्चम कपिल का सांख्यदर्शन और षष्ठ पातंञ्जली का योगदर्शन है | इन सभी दर्शनों का स्वरुप यही प्रति पादन करना मेरा अभिप्राय नही
अपितु ज्योतिष में दर्शन प्राप्त करना है ;-
गौतम का न्यायशास्त्र - नैयायिकों के मतानुसार जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं से होती है | इस जगत में जितने पदार्थ स्थूल रुप से इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होते है वे सभी अपने अपने सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों के साथ अभेद सम्बन्ध रखते है वे सूक्ष्म तत्त्व ही सृष्टि का आधार बीज है | वस्तु के सूक्ष्म तत्त्वों की कल्पना न की जाय तो उस वस्तुगत प्रत्यक्ष स्थूलआकार-प्रकार का प्रत्यक्ष होना असंभव होगा |
अतः कहीं न कहीं इसमें स्थूल आकार गत सूक्ष्म अनिर्वचनीय तत्त्व अवश्य होगा जिसपर आश्रित है | उसी अविभक्त नित्यबिंदु रुप सूक्ष्मतत्त्व का नाम परमाणु है | कई अणुओं का समिष्ट रुप ही यह विशाल पृथ्वी तथा जागतिक पदार्थ है |
गौतम ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय और अभाव से सात वैशेषिक पदार्थ माने है तथा प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद-कहना, जल्प-प्रलाप, बितंडा- निरर्थक, छल, जाति, और निग्रह ये सोलह पदार्थ स्वीकार किये है | उन्होंने इन पदार्थों के तत्त्व ज्ञान से निःश्रेयस् - मोक्ष की प्राप्ति बतलाई है ;-
दुःख जन्मप्रवृति दोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदन्त रापायादपवर्गः
ये सोलहों पदार्थ मोक्ष में उपयोगी होते है | दुःख की आत्यन्तिक निवृति को मोक्ष कहते है | दुःख की उत्पत्ति जन्म मरण और गर्भवास रुप प्रेत्यभाव से होती है और सुख- दुःख का उपभोग रुप जो फल है,उसकी जनक जो प्रवृति है, उसी से प्रेत्यभाव (अपने शुभाशुभ कर्मो के अनुसार जन्म लेकर मरने और मरकर जन्म लेने की परम्परा जो मुक्ति न होने के समय तक चलती है |) उत्पन्न होता है |
प्रेत्यभाव प्रवृति का ही कार्य है | मनोगत राग, द्वेष, मोह, रुप जो दोष है वही प्रवृति के मूल है | दोष का भी कारण मिथ्याज्ञान है | इसलिए मिथ्याज्ञान की निवृति से दोष की निवृति होती है और मिथ्याज्ञान की निवृति शरीर इन्द्रिय तथा विषय के अतिरिक्त आत्मतत्त्व के ज्ञान से होती है | प्रमेय ( नापने) भूत तत्त्वों का ज्ञान ही प्रमाणों का मुख्य प्रयोजन है और इन्द्रियातीत सूक्ष्म विषयों का ज्ञान अनुमान के अधीन है | अनुमान पञ्च अवयवों से युक्त है और दृष्टान्त उसका जीवन है | तर्क अनुमान का सहायक होता है |
इसलिए दृष्टान्त का जीवन है | ऐसा पञ्चावयव युक्त अनुमान ही तर्क की सहायता से सिद्धांत के अनुसार, संशय के निराकरण द्वारा निर्णय करने में समर्थ हो सकता है | निर्णय भी पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रह रुप कथा में वाद से दृढ होता है | वाद रूप में कथा में वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह्स्वान् ये सब हेय होते है | अतः इन सबके स्थान के लिए इसके स्वरुप का ज्ञान भी आवश्यक हो जाता है |
इस प्रकार सूत्रकार से निर्दिष्ट सकल पदार्थों का ज्ञान मोक्ष में उपयोगी होता है | एक बात और जानने योग्य है कि जल्प (प्रलाप) आदि का प्रयोग स्वयं नहीं करना चाहिए | दूसरा प्रयोग करे तो मध्यस्थ को बता देना चाहिए | दूसरा मुर्ख या दुराग्रही हो तो चुप रह जाना चाहिए | यदि मध्यस्थ अनुमति दे तो छल आदि से भी उसे परास्त करना चाहिए |
अन्यथा मुर्ख को विजयी समझकर अज्ञानी लोग उसके मत का अवलम्बन कर अनेक प्रकार के कुमार्ग में फँस जायेगें | इससे यह सिद्ध होता है कि मूर्खों और दुराग्रहियों कि परास्त करने के लिए ही आचार्यों ने छलादि ➖
गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत् प्रतारित |
मार्गादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः ||
मोक्ष और उसके कारण पर विचार करने से पता चलता है कि सकल दुःख का मूल कारण जन्म है | इसके अभाव में दुःख नहीं होता | जन्म का मूल कारण धर्माधर्म है | मिथ्या ज्ञान आत्मा से भिन्न शरीर आदि में आत्मबुद्धि का होना कहा गया है | सब की भलाई करने की भावना को ही धर्म कहा गया है | इन दोनों की संज्ञा प्रवृति है |
मोक्ष ;- दुःख के आत्यान्तिक उच्छेद (काटना) का नाम ही मोक्ष है | उसका उपाय तत्त्व ज्ञान है | तत्त्व ज्ञान होने पर मिथ्याज्ञान स्वयं निवृत हो जाता है | यथा- रज्जू के ज्ञान से सर्प का भ्रम स्वयं निवृत हो जाता है | मिथ्या ज्ञान के नष्ट होने से प्रवृति के कारण जो राग- द्वेषादि दोष है वे स्वयं निवृत हो जाते है | क्योंकि कारण के नाश होने से कार्य का नाश अवश्यंभावी हो जाता है |
कारण नाशात् कार्यनाशः यह स्वतन्त्र सिद्धान्त है दोष के नष्ट होने पर प्रवृति नही हो सकती और प्रवृति के न हिने से जन्म भी नहीं हो सकता, क्योंकि जन्म का कारन धर्माधर्म रुप प्रवृति ही है | जन्म के अपाय (नाश) होने से दुःख का भी आत्यान्तिक उच्छेद हो जाता है |
इसी आत्यान्तिक दुःख प्रवृति का नाम अपवर्ग या मोक्ष है | आत्यान्तिक दुःख प्रवृति वही है,जहाँ सजातीय दुःखान्तर की उत्पत्ति होने की सम्भावना भी नहीं रहती ;-
गौतम -
दुःख जन्म प्रवृति दोष मिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये | तदन्तरापायादर्पवर्णः |
अर्थात् दुःख जन्म प्रवृति दोष और मिथ्याज्ञान इनके उत्तरोत्तर के नाश से पूर्व-पूर्व के नाश होने के कारण अपवर्ग होता है | इससे सिद्ध होता है कि दुःख के अत्यन्तः उच्छेद (समाप्त) का नाश ही अपवर्ग या मोक्ष है |
वैशेषिकों ने आत्मोच्छेद को ही मोक्ष माना है | वे ज्ञान, संतान आत्मा मानते है | संतान का अर्थ प्रवाह होता है | प्रवाह जिस तरह प्रतिक्षण नये-नये रूपों में उत्पन्न होता है, उसी प्रकार उनके मत में ज्ञान भी प्रतिक्षण नये-नये रूपों में उत्पन्न होता है |
इसमें यह विकल्प होता है कि क्या आत्मा क्षणिक ज्ञान- संतान ही है | अथवा उससे भिन्न उसका आश्रय अन्य कोई ? यदि ज्ञान प्रवाह को ही आत्मा मान लें तब तो कोई विवाद नहीं है, क्योंकि आत्मोच्छेद का अर्थ ज्ञानाच्छेद ही होगा और मोक्षावस्था में ज्ञान का उच्छेद नैयायिकों को अभीष्ट है |
इसके अतिरिक्त उसका आश्रय आत्मा को मानें तो भी उसमें यह विकल्प होता है कि आत्मा नित्य है, अथवा अनित्य ?
यदि नित्य है, तो उसका उच्छेद हो नही सकता, क्योंकि नित्य वही है जिसका विनाश नहीं होता |
इस स्थिति में आत्मा के उच्छेद की आशंका नहीं होती यदि आत्मा को अनित्य माना जाय तो मोक्ष के लिए किसी की प्रवृति नहीं होगी |क्योंकि कोई भी बुद्धिमान आत्मनाश के लिए प्रवृत नहीं होगा | संसार में सबसे प्रिय आत्मा है | श्रुति भी यहीं बताती है आत्मनस्तु कामाय सर्वप्रियं भवति | इससे सिद्ध होता है कि मोक्ष - रुप धर्म केअतिरिक्त उसका आश्रय धर्मी कोई अवश्य है और वह नित्य है |
विज्ञानवादी बौद्धों का मत है कि धर्मी के निवृत होने से जिस निर्मल ज्ञान का उदय होता है, वही मोक्ष है |पर उनके मत में सब कुछ क्षणिक है | आत्मा भी उनके मत से अस्थिर है, उसे प्रतिक्षण भिन्न भिन्न होने से दुःखं क्षणिकं इत्यादि भावना का प्रकर्ष इसमें असंभव ही है | इसलीए मोक्ष सामग्री का अभाव उनके मत से सिद्ध होता है |
इसी प्रकार जैनों का भी मुक्ति लक्षण प्रतिबन्ध रहित नहीं है | इनके मत में आवरण भंग का ही नाम मुक्ति है | यदि आवरण का अर्थ धर्माधर्म कि भ्रान्ति है तो ठीक है |अन्यथा आवरण से यदि शरीर माना जाय तो प्रश्न उठता है कि आत्मा मूर्त्त है या अमूर्त्त | यदि आत्मा अमूर्त्त माने तो भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि वे उर्ध्वगमन रुपी क्रिया को मुक्तात्मा में मानते है और क्रिया मूर्त्त में ही होती है, अमूर्त्त में नहीं |
पूर्वमीमांसा महर्षि जैमीनि ने मीमांसा शास्त्र में धर्म को ही प्रधान माना है | यही श्रृष्टि का कारण है | यही जीवों के बंधन में हेतु है | इसका आत्यधिक अभाव ही मोक्ष है | अथातो धर्म जिज्ञासा इस सूत्र में जैमीनि ने धर्म को ही मुख्य मानकर उसके प्रश्रय में कर्म जन्म त्रिविध बन्धनों का उच्छेद और परम पुरुषार्थ का साधन बतलाया है |
शाबर :-
त्रेधाहि प्रपंचः पुरुषं निवाध्नाति तदस्य त्रिविधस्यामि बन्धस्य आत्याधिको विलयों मोक्षः तस्माद् धर्मो जिज्ञासितव्यः सहि निःश्रेयसेन पुरुषं तंयुनक्तीति प्रतिजानीमहे |
अर्थात् जिस क्रिया द्वारा आत्मा को शांति और शाश्वत आनंद प्राप्त हो वह धर्म है | यह धर्म क्रमानुगत है | कर्म से शरीर और शारीर से कर्म बनते है | मीमांसक लोगों का कथन है जावज्जीवं जुहोति यजेत् इत्यादि | श्रुति वाक्य द्वारा विधिपूर्वक कर्म करना ही धर्म है | फलेच्छा रहित कर्म करने से मोक्ष कि प्राप्ति होती है | कर्म स्वभाव से होता है और वह आनादि है |
पुरुषार्थ साधन में कर्म ही प्रधान है इसके लिए अलग ईश्वर कि कल्पना करना कोई आवश्यक नही है | गीता ने कर्मगत सिद्धि को मामाना है श्रीकृष्ण ;- कर्मणैव हि संसिद्धि मास्थिता जनकादयः | अनेक स्थल ऐसे है जहाँ कर्मगत सिद्धि प्रत्यक्ष और क्रमानुगत प्रतीति हो जाती है | जैसे मलिन वस्त्र पर साबुन रगड़ते से वस्त्रगत सफेदी कर्मानुगत प्रत्यक्ष है |
स्नानांतर स्वभावतः शारीरिक मलिनता और आंशिक आत्म संतुष्टि होती है |परन्तु जहाँ पर कर्मानन्तर तद्नुगत सद्यः फल कि प्रत्यक्षता नहीं पायी जाती, वहीं मीमांसक लोग कर्म से एक अपूर्व को निष्पन्न होना मानते है | वह साध्य फल संपादन में हेतु होता है | उनलोगों का कथन है कि कर्म समाप्ति होने पर उससे अपूर्व उत्पन्न होता है, जो साधक गत उदेश्य फल का संपादन करता है |
उत्तर मीमांसा -वेड और उपनिषद् के ग्रंथों से सम्बंधित है | यह ज्ञान कांड है जो उपनिषद् से एकात्म सम्बन्ध रखता है | वेदांत में अद्वैतवाद कि स्थापना कि गयी है | यह सत्,चित्, आनंद और ज्ञान स्वरूप है |
ब्रह्म सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम वाद के प्रथम सूत्र से अथातो ब्रह्म जिज्ञासा के अनुसार ब्रह्म कि जिज्ञासा कि गयी है | वेदान्तियों का सिद्धान्त है कि ‘तत्त्वमसि, अहम् ब्रह्मास्मि’सोयं देवदत्तः, सोऽहं इत्यादि | महावाक्यों का सद्गुरुं द्वारा श्रवण, मनन, निदिध्यासन से आत्मा कि प्रत्यक्षता होती है | यह विषय क्रियांश में योग दर्शन से अनुबंधित है |
वेदांतदर्शन ने भुत और भौतिक समस्त प्रपंचों को मूर्त्त, अमूर्त्त और अव्याकृत तीन रुपों में जो विभक्त किया है वे सब माया के ही परिणाम है | माया के साथ तथा माया के परिणाम के साथ चेतन का जो सम्बन्ध है, वही बंधन कहलाता है | इसका अनुभव मैं अज हूँ, मै देहि हूँ, इस रूप में होता है | एतन्मूलक ही सुख-दुःख का अनुभव होता है |
अर्थात् देह में जबतक अहन्ता या ममता का ज्ञान रहता है, तभी तक सुख-दुःख का अनुभव होता है |
श्रुति भी कहती है - नेह वै शरीरस्य सत् प्रिया प्रियोरपहतिरस्ति |
अर्थात् शरीर के साथ सम्बन्ध रहते प्रिय और अप्रिय का नाश नही होता | प्रिय संसर्ग को ही सुख और अप्रिय संसर्ग को ही दुःख कहा जाता है | यही प्रियाप्रिय का संस्पर्श बन्धन कहा जाता है | इसी से छुटकारा पाने का नाम मोक्ष है | प्रिय और अप्रिय का असंस्पर्श होना ही मोक्ष शब्द का अर्थ है | इस मोक्ष में कुछ अपूर्व वस्तु कि प्राप्ति नही होती |
किन्तु अपने मूल रुप में अवस्थान का नाम मोक्ष है |यद्यपि वृद्धावस्था में आत्मा का मूल स्वरूप से ही अवस्थान रहता है, क्योंकि निर्विकार आत्मा में कदापि किसी प्रकार का विचार नहीं होता, तथापि वृद्धावस्था में अनादि अविद्या के सम्बन्ध होने से उसका ज्ञान नहीं होता, इसलिए अविद्या का विनाश ही मोक्ष है,
यह सिद्ध होता है ;- अविद्याऽस्तमयो मोक्ष साचबंध उदाहृतः | अर्थात् अविद्या का नाश होना ही मोक्ष और अविद्या ही बंधन कही जाती है | अविद्या का नाश रुप मोक्ष केवल विद्या के ही द्वारा होता है | आत्मा के साक्षात्कार को ही अद्वैत वेदान्त के मत में विद्या कहा जाता है | आत्मा का साक्षात्कार हो जाने पर जीवित रहते हुए भी मुक्त ही है | इसी को जीवन मुक्त कहा जाता है | इस आवस्था में द्वैत बके भान होने पर भी कोई हानि नही होती है | यथा - नेत्र दोष से दो चन्द्रमा के भान होने पर भी यह दूसरा चन्द्र कहाँ से आ गया, इस प्रकार कि शंका ही नही होती, क्योंकि उसका वास्तविक ज्ञान है कि चन्द्रमा एक ही होता है |
आत्मा साक्षात्कार के लिए ही वेदान्त शास्त्र कि रचना की गई | आत्मा के यथार्थ स्वरुप के ज्ञान से ही भ्रम कि निवृति होने पर आत्म साक्षात्कार होता है | अविद्या के अतिरिक्त संसार भी कोई वस्तु नहीं है, इसलिए विद्या से अविद्या के नाश के द्वारा आत्म साक्षात्कार होना सिद्ध होता है | यही ब्रह्म साक्षात्कार है | मुक्ति, मोक्ष, कैवल्य,निर्वाण अपवर्ग आदि चरम लक्ष्य है | वेदान्त में इसी की प्राप्ति के लिए मार्ग प्रस्तुत किया है |
सांख्य दर्शन के निर्माता महर्षि कपिल के मत प्रकृत्ति (मन का झुकाव) ही सृष्टि का कारण है | प्रकृत्ति और पुरुष अलग-अलग निष्क्रियरुप में रहते है | प्रकृत्ति जो अव्यक्त है उसके सभी गुणों में साम्यता है,उसे प्रकृत्ति में काल स्वरुप भगवान् पुरुष रुप में सर्वत्र व्याप्त है | प्राकृत्तिक पूर्वलय में अव्यक्त और व्यापक काल सर्वत्र विद्यमान है | जब उसमे व्याप्त काल स्वरूप भगवान् सृष्टि करने कि इच्छा करते है तब उनके अंश से संकर्षक रुपी अंश निकलकर प्रकृति और पुरुष दोंनो में सन्निधि रुप होकर क्षोभ उत्पन्न करते है | उन दोनों के क्षुब्ध होने पर उनसे महान् कि उत्पत्ति होती है,जो बुद्धि स्वरूप है | वह महत्तत्व भगवान् प्रद्युम्न के अंश है | उस महत्तत्व के निर्माणावस्था में प्रद्युम्न से अहंकार कि उत्पत्ति होती है, वही अनिरुद्ध के नाम से प्रख्यात् होते है | ये ही वासुदेव संकर्षण प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के मूर्त्तिभेद वैष्णवागम में प्रसिद्ध है | वह अहंकार रुप गुण के वंश से तीन प्रकार के हो गए | उसका सात्विक अंश वैकारिक, राजस्, अंश और तामस् अंश भूतादी रुप हुए | विष्णु पुराण ;-
तेजसादीन्द्रियाण्याहुर्देबा वैकारिका दश |
एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः ||
अर्थात् इन सबों की संहित से ब्रह्माण्ड का अविर्भाव हुआ | इन उत्पन्न तत्त्वों से पहले प्राकृतिक प्रलय के साथ सब समुद्र के जल में बुदबुदाकर ब्रह्माण्ड बना उस ब्रह्माण्ड के पेट में पद्माकार पृथ्वी का प्रादुर्भाव हुआ | उसमे पद्म के कर्णिका स्वरूप मेरु का प्रादुर्भाव हुआ |उस मेरु के पृष्ठ पर स्थित चतुर्मुख ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ | उसी ब्रह्मा से देव, दानव, मनुष्य, सूर्यादि ग्रह स्वरुप विश्व का प्रादुर्भाव हुआ |जिस आद्यतत्त्व परमब्रह्म के क्षुब्ध प्रकृति पुरुषों से महदादि व्यक्त, अव्यक्त प्रकृति के कार्य है | अतएव व्यक्त रुप कार्य के त्रिगुणत्व् एवं अविवेकित्व इत्यादि धर्मों के आधार पर इन्हीं विशेषताओं से युक्त इसके मूल कारण प्रकृति की सत्ता भी सिद्ध होती है | अर्थात् महदादि व्यक्त कार्य है | महदादि परंपरा रूप समुदायों की उत्पत्ति से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई, उस ब्रह्माण्ड के जठरगत कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से इस विश्व का आविर्भाव हुआ |इस प्रकार हमेशा ब्रह्मा के अवसान में सृष्टि का अवसान और नई सृष्टि का आविर्भाव होता रहेगा |
प्रकृति से अहंकार तक जितने तत्त्व है,वे अव्यक्त और आकाश से पृथ्वी तक जितने भूत है वे व्यक्त भूत कहे जाते है | महत् से लेकर पृथ्वी तक सारे भूतों की समष्टि को ब्रह्माण्ड कहते है | कपिल के अनुसार वैकारिक, तेजस् और तामस स्वरुप सृष्टि है जो महत् तत्व से होती है उस सृष्टि की प्रकृति के द्वारा आरोहण क्रम से जगत् की सृष्टि और अवरोहण क्रम से जगत् का लय होता है |
पूर्व आकाशादि पंचभूतों के जो गुण कहे गये है, वे अपने भूत में प्रधान रुप से रहते है और स्वभूतातिरिक्त अन्य भूतों से रहते है | क्योंकि स्व भूतातिरिक्त अन्य भूतों के गुणों को ण माना जाय तो जगत का कार्य व्यापार ण चलेगा | इन्द्रिय द्वारा उन वस्तुओं का ज्ञान होना असंभव हो जाएगा | यथा पृथ्वी में गंध गुण के अतिरिक्त भूतों का गुण न रहे तो नेत्रेंद्रिय संयोग में रुप दर्शन नही होगा | यदि आकाश का गुण उसमें न हो तो पृथ्वी से शब्द नहीं निकल सकता, यदि स्पर्श गुण उसमें न होता तो स्पर्शत्व न होता | इसलिए माना जाता है कि भूतों में भी सभी गुण ओतप्रोत रहते है | पर अपना मुख्य गुण प्रधान रुप से रहता है | सांख्य मत से पुरुष निष्क्रिय और भिन्न-भिन्न है और प्राकृत प्रधान है | कपिल ने वेदान्त के सामान जगत को मिथ्या नहीं कहा है | सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान है - संख्यायते विज्ञायते अनेन संख्या, इस विग्रह वाक्य से सांख्य शब्द का ज्ञान अर्थ होता है | इस अर्थ को लेकर गीता में भी सांख्य ज्ञान बतलाया गया है, जो अद्वैत ब्रह्म के ज्ञान में अवस्थित है | गीता में - सांख्य और योग को एक ही अर्थ में व्यवहृत किया -
एकं सांख्य च योगंच यः पश्यति सपश्यति |
सांख्य योगौ पृथक् वाला प्रवदन्ति न पण्डिताः ||
योग दर्शन - योग दर्शन का निर्माण करनेवाले महर्षि पतञ्जलि ने अपने योग दर्शन में योग शब्द का अर्थ चित्तवृति का निरोध रुकावट कहा है | उनके विचार के अनुसार मन चित्त भिन्न है | अन्य लोग मन और चित्त को एक ही मानते है | पर योग दर्शन के अनुसार चित्त में पञ्च प्रकार की वृति होती है - मूढ़, विक्षिप्त, क्षिप्त, एकाग्र और निरोध | ये वृत्तियाँ क्रमिक होती है | तात्पर्य यह है कि चित्त की मूढ़ वृत्ति के लय होने पर चित्त, विक्षिप्त वृत्ति में जाती है | उसके बाद क्षिप्त वृत्ति होती है | उसके बाद एकाग्र वृत्ति होती है | एकाग्रता के पर्यवसान में चित्त का निरोध हो जाता है | अर्थात् वहा चित्त नहीं रहता | यद्यपि योग शब्द व्यापक है और अनेक अर्थ में परिगणित होता है | गीता स्मृति में कर्म योग, कर्म की कुशलता, प्राण संयमन, जीवात्मा, परमात्मा का एकीकरण आदि अनेक अर्थों में योग शब्द प्रयुक्त है | पर योग शब्द का यथार्थ अर्थ आत्मा के साथ परमात्मा का एकीकरण, आत्म प्रत्यक्ष ही मुख्य है | जो साधन द्वारा होता है | पतञ्जली के अनुसार इस योग साधन या आत्म प्रत्यक्षीकरण के आठ अंग है - संयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि | एवं अहिंसा, सत्य, असते, ब्रह्मचर्य और परिग्रह ये पञ्च भेद संयम का है | इस प्रकार नियमन के भी पञ्च भेद है - शौच,संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान( देखना) | एकान्त स्थान में किसी उच्च भूमि में जहाँ अँधेरा न हो और किसी प्रकार की अशान्ति न हो एवं चारो तरफ से खुला हो ऐसे स्थान पर सिद्धासन या पद्मासन आदि आसनों में सुख पूर्वक बैठने का नाम आसन है | प्राण, अपान, उदान, व्यान,और समान ये पञ्च प्रकार के प्राण है, जो वायुमय है | इन पाँचों को अन्तराकाश में अलग-अलग रहने के कारण उन सबों को एक साथ प्राण रुप में लाना अर्थात् सामी अवस्था में उसे रखने का नाम प्राणायाम है |
आपको पता है कि भृकुटी मध्य में आज्ञा चक्र है | भृकुटी से ऊपर नाद का स्थान है | यहाँ ज्ञान स्वरुप मकार वर्ण में शिव वास करते है | उस स्थान को अर्ध चन्द्र के आकार में योगी लोग देखते है | मूर्द्धा में सहस्त्र दल कमल तेजोरुप ब्रह्म का है | मूर्द्धा से मूलाधार तक एक विलक्षण सूक्ष्म स्नायुनाड़ी है | जिसके द्वारा योगी लोग परम तत्त्व का अनुभव करते है |इस नाड़ी के अन्त में गुदा है उपर्युक्त किसी स्थान में विशेषतः नाभिः, ह्रदय, ललाट, और मुर्धाओं में चित्त को अनवरत रखने का अभ्यास का नाम धारणा है | यह धारणा सिद्ध होने पर ध्यान होता है जहाँ चित्त की वृत्ति एकाकार हो जाती है | ध्यान पूर्ण होने पर समाधि होती है | जो अनेक प्रकार की है, जिस समाधि में चित्त की वृत्तियाँ कुछ रह जाती है | उसको सम्प्रज्ञात समाधि कहते है | जिस भूमि में चित्तवृत्ति का निरोध होता है उसको प्रज्ञात कहते है | जिस अवस्था में वितर्क, विचार, आनंद और स्मित ये चार प्रकार के आलम्बन रहते है वे क्रमशः वितर्क- समाधि, विचार- समाधि, आनंद- समाधि और स्मित समाधि कहे जाते है | इन सभी भावनाओं का लय होने पर कैवल्या या निःवीज समाधि होती है, जिसमे शरीर काष्ठ स्वरुप हो जाता है | चित्तवृत्ति का एकान्त निरोध होता है और इस अवस्था में संसार का लेशमात्र ज्ञान नही रह जाता | वैसी अवस्था में साधक को ब्रह्म का अद्वैत रुप का दर्शन और परम पुरुषार्थ का साधनभूत पर ब्रह्म का साक्षात्कार होता है यही योग साधन का मुख्य लक्ष्य है | इस अवस्था की स्थिरता होने पर साधक के भृकुटी मध्य का नेत्र खुल जाता है | तब उसे समस्त चराचर सम्बंधित ब्रह्माण्ड का ज्ञान तेजोमय रुप में भासमान (दिखाई देना ) होता है |
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