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ज्योतिष, सृष्टि और उसका लय | Astrology, Creation, and Its Dissolution

ज्योतिष, सृष्टि और उसका लय 

  

जानामि मुक्तं लयं वा कदाचित् 


लंकानगर्यामुद्याच्चभानोस्तस्यैव  बारे  प्रथमं    बभूब 

मधोः सितार्छेर्दिनमास  वर्ष युगादिकानां युगपत्प्रवृतिः ||

सृष्टि के आदि में जब काल और व्यक्तिजनक भग्रहादि का प्रादुर्भाव होता है तब उन दोनों का दिन, मास, युगादि का एकावली प्रारंभ होता है | ज्योतिष शास्त्र काल गणना का शास्त्र है | काल का उत्पादक भचक्र है और उसमें स्थित सूर्यादि ग्रह है | बिना उसके काल की उत्पत्ति संभव नहीं है | आगमोक्त सृष्टि चक्र की पर्यालोचना से काल से अनादि और अनन्त में इस चर-अचर संसार का आविर्भाव और तिरोभाव दिग्, देश और काल के वश से होते है,जो गति विद्या के प्रमाण पथ के आधार पर स्पष्ट जाना जाता है | 

लय का शाब्दिक अर्थ -चित्त की वृत्तियों का सब ओर से हटकर एक ओर प्रवृत्त होना | सृष्टि और लय शब्द का अर्थ होता है कि किसी निश्चित समय में वस्तुओं का उत्पन्न होना और कुछ समय के बाद उस का अवसान होना | क्योंकि सृष्टि गत पदार्थों का आविर्भाव एवं तिरोभाव एक निश्चित समय में होता रहता है | इसलिए किसी एक समय में सभी पार्थिव पदार्थों का एक ही प्रवृति और पुनः कुछ समय बाद एक साथ निवृति भी होती है, जो सृष्टि और लय हो जाते है | नैयायिकों की नित्य सृष्टि परपरागत विषय है, जिस प्रकार सृष्टि गत पदार्थों का आविर्भाव और तिरोभाव प्रत्यक्ष देखे जाते है, उसी प्रकार सृष्टावच्छिन्न काल की भी प्रवृति और निवृति होती है | 

यतः सृष्टिरेषां दिनादौ दिनान्ते लयस्तेषु सत्स्वेव तच्चारचिन्ता

यतोयुज्यते कुर्वते तां पुनर्येऽप्यसत्स्वेषु तेभ्यो महद्भ्यो नमोऽस्तु  ||

भास्कराचार्य ने व्यंग्य व्यंजक भाव से प्रवृति शब्द के द्वारा यहाँ काल को अभिव्यक्त किया है | जो सूर्यादिक ग्रहों के रहने पर ही उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं | इसलिए सृष्टियादि में उन ग्रहों के रहने के कारण काल की सत्ता रहती है, और प्राकृतिक प्रलय होने के पश्चात् उसके आभाव होने पर काल का भी आभाव होता है | काल के स्फुटत्व और अव्यक्त गत सुक्ष्मावस्थानत्व रुप प्रवृति एवं प्रलयों को दर्शाकर उसके अनादी और अनन्तत्व को बतलाता है | 


भारतीय ज्योतिष के आचार्यों में इस अर्थ में मतभेद है कि काल के उत्पादक भचक्र और सूर्यादि ग्रह सतत् विद्यमान रहते है या उनका भी लय  होता है कुछ इस पक्ष में है कि लय होने पर भी आकाश में सूर्यादि ग्रह विद्यमान रहते है | 

दैनन्दिन सुसृष्टयर्थमनििरुद्धोर्कजो विधिः

भूस्थितानां जीवानां, स्थिराम्बरवासिनाम् ||

कल्पान्ते दिनान्ते सर्वान् संहृत्य शेते विधि || 

और कुछ लय के साथ ही सृष्टि गतसमस्त पिण्डों, ग्रहों और नक्षत्रों का भी लय मानते है | इससे यह स्पष्ट होता है कि सूर्यादि पिण्डों के अभाव वाले पक्ष के अनुसार काल का भी लय होता है एवं विपक्ष के अनुसार काल का लय नहीं होता है | भारतीय ज्योतिर्विदों ने काल के उत्पादक भचक्र एवं वहाँ रहनेवाले ग्रहों को माना है | भचक्र का अर्थ कोई धातु का बना या काष्ठ का बना ठोस विशेष नहीं है | पर आकाश में भिन्न भिन्न जगहों में अपने अपने कण के आगे 

चलनेवाले ग्रह और नक्षत्रों के सम समन्वय से एक भौमोपाधि से रहित कोई अनन्ताकाश प्रवेश विशेष है | जिससे भू - गत जीवों के नित्य समवायि सम्बन्ध है | जहाँ चल पदार्थों में बाधोत्पात नहीं होता, वहाँ वह पदार्थ अपनी सत्ता को नहीं छोड़ता है | यह आकर्षण नियंत्रित नियम के द्वारा यहाँ भी भिन्न भिन्न गोलों से समुत्पन्न वायु जनित दोषापत्ति से रहित होकर वायु विशेष का संवेग के द्वारा समाहत भचक्र का आकाश में समगति से संक्रमित होता है, का निश्चय किया गया है | वहाँ ग्रह, गति के सम्मिश्रण से ही पदार्थांतर को उत्पन्न करता है और उससे पृथ्वी पर स्थित प्राणियों का जीवनाव काश होता है | यहीं ज्योतिष शास्त्र के मुलभुत काल को उत्पन्न करने वाला भचक्र है | 


भारतीय ज्योतिष की विश्लेषणात्मक परिधि का विस्तार इतना है कि उसके अंतर्गत सभी सांसारिक पदार्थों का विश्लेषण आ ही जाता है | अतः यह शास्त्र ग्रहों के आधार पर प्राणी के जीवन के सभी विषयों की व्याख्या अपनी दृष्टि से कहता है | विश्व की सृष्टि से लेकर उसके लय तक के विषय में ही नहीं, अपितु मनुष्य के गर्भधारण,उत्पत्ति, जीवन, उसका अन्त, स्वर्ग, मोक्ष आदि सभी विषयों के लिए यह शास्त्र अपना विचार प्रस्तुत करता है | इसी प्रकार इसने ग्रह को आधार मानकर उसके द्वारा विश्व की सृष्टि और लय का वर्णन भी किया है | 

पराशर सृष्टि वर्णन -

  एकोऽव्यत्त्क्तात्मको विष्णुरनादिः प्रभुरीश्वारः |

शुद्ध तत्त्वो जगत्स्वामी निर्गुणस्त्रिगुणान्वितः ||

संसार कारकः श्रीमान् निमित्तात्मा प्रतापवान् |

एकांशेन    जगत्सर्वं   सृजत्यवति   लीलया   ||

त्रिपादं   तस्य   देवस्य    ह्यमृतंं तत्त्वदर्शिनः  |

विदन्ति   तत्प्रमाणं    सप्तधानं तथैकपात्   ||

व्यक्ताऽव्यक्तात्मको विष्णुर्वासुदेवस्तु  गीयते |

यद  व्यक्तात्मको विष्णुः शक्तिद्वय समन्वितः ||

त्रिशक्ति युक्तो व्य्क्तात्मा गदितोऽनन्तशक्तिभृत् ||

 अर्थात् पराशर ने बतलाया है कि अव्यक्त विष्णु जो अनादि प्रभु शुद्ध सत्व जगत्स्वामी, निर्गुण हैं, जिनके तीन सत्व रज तमः गुण है | वे संसार की सृष्टि करनेवाले सर्वशक्तिमान हैं, अपने एक अंश चरण से संसार की सृष्टि और पालन करते है, जिनके अमृतरुप तीन चरणों को केवल तत्त्वदर्शी लोग जानते है, उनके प्रधान प्रकृति सहित एक अंश चरण व्यक्त और अव्यक्त आत्मा विष्णु कहलाते है | अव्यक्त आत्मा विष्णु की दो शक्तियाँ है और क्यक्त आत्मा विष्णु की तीन शक्तियाँ है | इन शक्तियों से युक्त विष्णु अनन्त शक्तिवाले कहलाते है | उस व्यक्त विष्णु की तीनों शक्तियाँ सत्व प्रधान श्रीशक्ति, रजो प्रधान भूशक्ति और तमो गुण प्रधान लीनशक्ति है | इन तीनों से अतिरिक्त चतुर्थ वासुदेव है | जब विष्णु श्रीशक्ति से प्रेरित होते हैं तब संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध स्वरुप तीन मूर्तियाँ धारण करते है | जब संकर्षण नील शक्ति से प्रद्युम्न भूशक्ति से और अनिरुद्ध सत्व शक्ति से संयुक्त होते है तब संकर्षण से महातत्त्व, प्रद्युम्न से अहंकृत्ति और अनिरुद्ध से अहंकार मूर्तिधारी स्वयं ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है |अहंकार के भी तीन भेद होते है | सात्विक, राजस और तामस | सात्विक से देवगन दिक्, वाट अकार्दि, तेजस् से इन्द्रियादि और तमस से भूतादि पञ्चमहाभूताकाशादि  स्व स्व गुणों से युक्त होकर सृष्टि रचना में योगदान करते है | इन सभी जीवों के बीच जीवांश और परमात्मांश विराजमान रहते है | उन जीवों में किसी में जीवांश की अधिकता होती है तो किसी में परमात्मांश की कमी | जैसे सूर्यादि ग्रह, देवगण, ब्रह्मा, रूद्र, विष्णु आदि में परमात्मांश की अधिकता है | इन्हीं शक्तियों को लेकर ब्रह्मा ने भौतिकसृष्टि की रचना की जो वैदिक सृष्टि के नाम से प्रसिद्धि है |

ऋतं सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽद्यजायत |

ततो रात्रय   जायत ततः समुद्रो अर्णवः ||

समुद्रादर्णवादधिसम्वत्सरो     अजायत |

अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतोवशी ||

सुर्याच्चन्द्रमसौधाता यथा पूर्वमकल्पयत् |

दिवं       पृथ्वीं      चान्तरिक्षमथोस्वः ||  

वैदिक सृष्टि में पुराण के समान समस्त प्राणियों का तथा भौतिक वस्तुओं का निर्माण करनेवाले ब्रह्मा ही माने गए है | पर वहीं सूर्य को संसार की आत्मा के रूप में माना गया है | सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ज्योतिष काल वाचक शास्त्र है | काल ही संसार को लय और उत्पत्ति के रूप में बदलता है, उस काल का वाहक सूर्य है | सूर्य के बिना काल की उत्पत्ति और क्रमबद्धता संभव नहीं होगी | अतएव सूर्य न केवल कालात्मिक सृष्टि के अयन, ऋतु, मास, दिन, पक्ष, युग, कल्प, सौर, चन्द्र, रात, दिन, घटी, पल आदि मूर्त्त और त्रुट्यादि अमूर्त कालों का उत्पादक ही है, अपितु समस्त चराचर भूतों का संरक्षक, आधार और सौर- परिवार का पोषक, भूम्यादि ग्रहों का संरक्षक भी है |   


पराशर की सृष्टि में श्रीशक्ति से सहित विष्णु जगत् का पालन, भूशक्ति से युक्त ब्रह्मा सृष्टि का सृजन और नील शक्ति से सहित शिव प्रलय करते है | परमात्मांश की शक्ति से संपन्न सूर्यादि ग्रह अपने-अपने प्रभाव से संसार के प्राणी को प्रभावित करते है | फलतः अवतारों को उत्पत्ति में तथा उनके प्रभावों की श्रीवृद्धि में उन ग्रहों के हाथ प्रबल रूप से पाए जाते है ➖

रामोऽवातरः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः | 

नृसिंहो भूमिपुत्रस्य बुद्धः सोम सुतस्य ||

वामनो विबुधेज्यस्य भार्गवो भार्गवस्य च |

कुर्मो भास्करपुत्रस्य सैहिकेयस्य सूकरः ||

केतोः मीनावतरश्च ये चान्ये तेऽपि खटेजाः |

परमात्मांशोधिको येषु ते सर्वे खेचराभिधाः ||


इस प्रकार अवतारों की उत्पत्ति का कारण भी ग्रह ही है | नैयायिक लोग परमाणुवाद को मानते हैं | उनके विचार से इस भौतिक सृष्टि का कारण परमाणु है, और उसका अभाव लय है |  इस दृष्टि से प्रत्येक ग्रह पिण्ड परमाणुओं का संघात है | आधुनिक वैज्ञानिक एवं ज्योतिषी लोग मानते है कि ग्रह पिंडों में भिन्न-भिन्न गुणवाले परमाणु विद्यमान है | इस प्रकार ज्योतिष तर्क के अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता है कि इसकी समस्त क्रियाएँ बिंदु के आधार पर चलती है जो कि निर्गुण निराकार ब्रह्म का प्रतीक है | बिन्दु दैघ्र्य और विस्तार से रहित अस्तित्व वाला माना गया है | यद्यपि परिभाषा की दृष्टि से बिन्दु स्थूल है, पर वास्तव में वह अत्यंत सूक्ष्म, कल्पनातीत, निराकार है | केवल व्यवहार चलाने के लिए उसे अंकित करते है | यहीं बिन्दु आगे चलकर गतिशील होता है और रेखा के रुप में बदल जाता है | जिस प्रकार ब्रह्म से एकोऽहं बहुस्याम  कामना रूप उपाधि के कारण माया का आविर्भाव हुआ है, उसी प्रकार बिन्दु से एक गुण दैघ्र्य रेखा उत्पन्न हुई | तात्पर्य यह है कि ग्रह गति में बिन्दु ब्रह्म का प्रतीक है और भ्रमण रूप रेखात्मक क्षेत्र माया का प्रतीक है | इन दोनों के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है | उसके आत्यंतिक अभाव को सृष्टि का लय कहा गया है |  इसमें कर्म तीन प्रकार के होते है | संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण | इन तीन प्रकार के कर्मों को जन्म जन्मान्तरों से करते आने के कारण जीवों में उसका संस्कार बना रहता है | अतः उक्त तीनों कर्मों से अनादिकालीन कर्म प्रवाह के कारण लिंग शरीर का सम्बन्ध है | जब लिंग शरीर, भूत, शरीर धारण करता है, तब वह अपने कर्म को भूल जाता है | इन तीनों कर्मों के चलते ही सृष्टि की उत्पत्ति और लय होता है | इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र ने काल को परब्रह्म, सूर्य को पुरुष और चन्द्रमा को स्त्री, अर्थात् पुरुष और प्रकृति के रूप में माना है | इस प्रकार उनके संयोग और वियोग से सृष्टि का प्रादुर्भाव और लय माना है |  

योग वसिष्ठ ने चिदाकाश, चित्ताकाश और भूताकाश इन तीनों भूमियों का उल्लेख किया है | चित्ताकाश और भूताकाश, चिदाकाश के गर्भ में है | चित्ताकाश और भूताकाश के संयोग भूमि के मध्य बिन्दु में जो चिदाकाश के गर्भ में है,वही आत्मा का रुप हैं | वही दर्शन है | ज्ञान की दृष्टि से देखनेपर वही काल की अधिष्ठान भूमि है | इस आज्ञा चक्र के ऊपर चित्ताकाश की मर्यादा में तमोरूप का अत्यंत अभाव, भूमि को अंतिम लव पर पहुँचने से योगियों के अनुभव में आता है | वही ज्ञान भूमि है, वही ब्रह्म रूप काल का अधिष्ठान है, उसी से सब प्रपंच है | यह निर्विकप्ल स्माधिज्ञान से गम्य है | 

ज्योतिष शास्त्रव में पृथ्वी से अविच्छिन्न आकाश रूप आवरण, भूमि में सूर्य की स्पंदन रुप किरण, जो मण्डलाकार मानी गयी है, वह क्रांति मण्डल शब्द से वाच्य है | जिस मण्डल में सूर्य का स्पंदन नित्य अभेद रुप से वर्त्तमान रहता है, वही गति रुप स्पन्दन या सूर्य का अनुकिरण, उक्त आवृति भूमि के साथ संयोग होने पर जड़ और चेतन का संयोग कहा जाता है, यही ज्योतिष शास्रा का लग्न है | वैज्ञानिकों का यही समाहितमन है और हिरण्यगर्भ है | इसी से नाना प्रकार के शरीर बना करते हैं | महाभारतान्तर्गत शांति पर्व के राजधर्म उपपर्व  में भृगु की उक्ति द्वारा, यह सृष्टि मानस कल्पित कही गयी है | योग वाशिष्ठ में वशिष्ठ ने इस जगत् को मन का विकास माना है | वशिष्ठ का कथन है कि जड़ और चेतन का संयोग  जहाँ है,,उसी के मध्यवर्ती अनिर्वचनीय सोपाधिक चित्त शक्ति को मन कहते है, जो जड़ भी नहीं चेतन भी नहीं जड़ और चेतन से भिन्न भी नहीं है | वही मन इस नामरुपात्मक जगत् को विवर्त्त रूप में इंगित करता है, जो प्रपंच रुप में भान होता है | जो भूमि से अवरुद्ध आकाश में क्षितिज शब्द से वाच्य है, वहां सूर्य रश्मि का अनु का अधिष्ठान है, जहाँ पर जड़ और चेतन दोनों संयुक्त होते है और उनके अनु के दो रूप में विभक्त होते है | एक अग्नि और दूसरा सोम | इन दोनों के सम्बन्ध से सृष्टि होती है | अग्नि की सत्ता का पोषण आकाशस्थ सूर्य मण्डल से और सोम का सता का पोषण चन्द्र मण्डल से होता है | अतएव यह जगत् अग्नि सोमात्मक कहा जाता है कालात्मा सविता है, मन चन्द्रमा है, बुद्धि आदि से इन दोनों का सम्बन्ध है | अन्य उपादानों द्वारा काल का प्रतिस्वरूप अलग बनता है जिसमे मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि ये पञ्च ग्रह, पञ्च तारा शब्द से आख्यात है | ये पाँचों ग्रह ही संख्य दर्शन के पञ्च तत्त्वों के प्रतीक है, शरीर संगठन में इन्हीं पंचोपादानों का मुख्यत्व है | शनि आकश तत्त्व का, बुध वायु तत्त्व का, और मंगल पृथ्वी तत्त्व का अधिष्ठान है | इन्हीं तत्त्वों के प्रभेद से किसी के मन में पंचीकरण और आगम में अग्नि, जल और पृथ्वी इन त्रिवृत कारणों से शरीर का निर्माण माना गया है | इस शरीर में चन्द्रमा मन है और सूर्य आत्मा है | मंगल, बुध आदि पञ्च ग्रह उक्त अन्य उपादानों का केंद्र है | इन आकाशीय ग्रह मण्डलों के द्वारा काल रुप, चेतन, शरीर का पोषण, उत्पत्ति और संहार हुआ करता है | जिनसे उत्पत्ति और लय का द्वंद्व अक्षुण्ण हुआ करता है | शरीर भिन्न भिन्न होने के कारण शरीर साक्षी, चैतन्य अलग अलग रहता है | शरीर के तात्विक परिक्षण से ही साक्षी चेतना का भी परिक्षण होता है | क्रांतिमण्डल रुप सूर्य के स्पंदन में अन्य आकाशीय जीवों का समन्वय अनिवार्य रुप से इस सृष्टि की प्रक्रिया चलाने के लिए है | अन्य जीवों में कालात्मा सविता की सोपाधिक विभूति और अपने मण्डल में चित्त् शक्ति है | इन दिनों का समन्वय अक्षुण्ण हुआ करता है, यही उत्पत्ति आदि में हेतु है | इसी को शास्त्रकार ने ग्रहयोग कहा है | गृह कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य का निज स्पन्दन अन्य मण्डलागत माध्यमिक शक्ति को अनिर्वचनीय काल के माध्यम से आकर्षित किया करता है, वही आकृष्ट पुञ्जीभूत शक्ति पदार्थ मात्र को संग्रहीत कर गूढ़ रूप में इस व्यक्ति और समष्टि रूप ब्रह्माण्ड में रहती है | अतएव इसका नाम ग्रह है | ग्रह शब्द का अर्थ है वस्तु मात्र को एकत्र ग्रहण करना और पारिणामिक रूप बनाना उसका फल है | इन उपादानों को सक्रिय बनानेवाले विधान को गणित, सिद्धांत और उसके पारिणामिक निर्वाचन करने वाले विज्ञान को फलित शास्त्र कहा जाता है | इन दोनों का सम्बन्ध अग्नि और दाह, पाषाण और कठिनत्व एवं जल और द्रवत्व जसा है | 


कारण  के बिना कार्य नहीं होता यह अकाट्य वैज्ञानिक सिद्धान्त है | सामान्य दृष्टि से कारण अनेक है, पर तात्विक विवेचन करने पर कार्य मात्र का एक ही कारण है, जिसके अधिष्ठान में कार्यकारण कि परम्परा, अनादिकाल से चली आ रही है, और अनन्त काल तक यह पद्धति अक्षुण्ण रूप से चलती रहेगी | अनेक दार्शनिक कार्य के संहारे कारणकूट में जाने को प्रक्रम करते है, क्योंकि व्यापहारिक जगत् में कार्य के गर्भ में कारण निहित है, जो अव्यक्त है | अतएव - अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्ति | अर्थात्  - अव्यक्त ही काल धर्म से अपना विलक्ष्णरुप ( प्रपञ्च )  बनाता है जिसको कार्य कहते हैं | अतः कार्य को छोड़कर कारण में जाना अस्वाभाविक नहीं हैं |  संस्कृत शास्त्र के परिशीलन से स्पष्ट होता है कि इस विश्व में जितने चराचर जीव है, और उनके जो प्रपञ्च है, वे सभी किसी न किसी अव्यक्त मूल तत्त्व से सतत् अनुबंधित हैं | अन्यथा सांसारिक प्रपञ्चों के इस दृश्य का अक्षुण्ण रुप में टिका रहना असंभव हो जाता है | वह अव्यक्त रुप, मूल कारण वर्ण्य है, जिसे शाब्दिक स्फोट कहते है तार्किक सूक्ष्माणु  कहते है | ज्योतिष दर्शन में रेखागणित को बिन्दु,अंकगणित को अंक और बीजगणित को बीज कहते है | और ज्योतिष विज्ञान इन तीनों का संघात कहलाता है | ज्योतिष शास्रा के अनुसार संसार के जितने चराचर प्रपञ्च है, उनमें अंक, रेखा और बीजात्मक त्रिकोण,व्यापक रूप से वर्त्तमान है - पाढ़ी त्रैराशिकं ज्ञेयं बीजं विमलामतिः


इनके विचार से सभी सांसारिक वस्तुओं का समावेश त्रिकोण में होता है | तंत्र शास्त्र की दृष्टि में त्रिकोण मूलाधार है | योग दर्शन ने त्रिपुटी करण विधान किया है | अतएव सभी दर्शनों का मूल कारण सूर्य रश्मि है, यह वैज्ञानिकों का मत है | जिसे वेद ने पहले ही बतलाया है | सूर्य आत्मा जगतस्तस्थु षश्च संसार के समस्त चराचर वस्तुओं में सूर्य की किरणें ऊष्मा के रुप में विद्यमान हैं, वही चैतन्य हैं | उसमे सक्रिय कार्य व्यापार की सत्ता निहित हैं | जिसके शेयर पृथ्वी जन्य पार्थिव प्रपञ्च, तेजोजन्य तेज प्रपञ्च और वायुजन्य प्रपञ्च, इन्द्रिय गोचर होता है | इन्हीं प्रपञ्चों के प्रत्यक्षीकरण में समष्टि और व्यष्टि रुप से ग्रह पद्वाच्य है | इसकी माध्यमिकता में मध्यम और सोपाधिकता में स्फुटत्व का अभिधान है | माध्यमिकता की उपयोगिता, कारण भूमि में होती है, कार्य भूमि में नहीं | अतः ग्रह सर्वत्र ओतप्रोत है | वह पिण्ड ब्रह्माण्ड और समाष्टि ब्रह्माण्ड से भिन्न नहीं है | इसलिए इसको उपयोगिता सर्वत्र सतत् मान्य है | इसके बिना प्राणी मात्र का स्पंदन भी असंभव है | अतएव 


दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियं यदृषिभि र्ब्राह्मं वासिकादिभिः | 

पारंपर्यवसाद्रहास्यभवनी  नीचं  प्रकाश्यं   तत्      ||

नैतद्वेष्टिकृतज्ञ    दुर्जनदुराचारा     चिरावासिनां  | 

स्यादायुः सुकृत क्षयो मुनिकृतां सीमामिमामुक्षतः ||


मतान्तर से - सांख्य, योगशास्त्र, श्रुति एवं पुरानों में माना गया है कि प्रकृति जो अव्यक्त हैं, उसके सभी गुणों में साम्य है, उस प्रकृति में काल, स्वरुप, भगवान् सर्वत्र, पुरुष रूप में व्याप्त हैं | तात्पर्य यह है कि प्रकृति में सत्व, रज, और तम गुण सम भाव में सर्वत्र व्याप्त हैं | प्राकृतिक पूर्वलय में अव्यक्त और व्यापक काल सर्वत्र विद्यमान है | जब उसमे व्याप्त काल स्वरुप भगवान् सृष्टि करने कि इच्छा करते हैं, तब उनके अंश से संकर्षण रुपी अंश निकाल कर प्रकृति और पुरुष दोनों में संनिधिस्थ होकर क्षोभ उत्पन्न करते हैं | उन दोनों के क्षुब्ध होने से, उनसे महान् कि उत्पत्ति होती है, जो बुद्धि स्वरुप है | वह महतत्त्व, भगवान् प्रद्युम्न का अंश है | उस महतत्त्व के निर्माणावस्था में प्रद्युम्न अहंकार कि उत्पत्ति होती है | जो अनिरुद्ध के नाम से प्रख्यात् होते हैं |जो अहंकार गुण के वशीभूत हो, तीन प्रकार के हो गए | उन अहंकार का सात्विक अंश वैकारिक, रजस् अंश तेजस् और तामस् अंश से भूतादि रुप हुए |

वैकारिक्स्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामसः|  

त्रिविधोऽयमहंकारो  महत्तात्वादजायत ||

उसमे जो तामस अहंकार है, वही भूतादि कहलाता है | उसमे अपने अपने गुणों के साथ आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी स्वरुप पञ्च भूतों कि उत्पत्ति हुई | जिनमे आकाश का गुण शब्द, वायु का गुण स्पर्श, अग्नि का गुण रुप, जल का गुण रस और पृथ्वी का गुण गंध हुए, जो तन्मात्रा शब्द से व्यवहृत हुए | अर्थात् शब्द तन्मात्रा से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा उससे वायु, वायु से रुप तन्मात्र,उससे तेज, तेज से रस तन्मात्र, उससे जल, जल से गंध तन्मात्र, उससे पृथ्वी की उत्पत्ति हुई |

इस प्रकार पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अन्तः कारण - मन , बुद्धि, चित्त और अहंकार | अंतरिन्द्रिय केवल मन | इनमें बाह्य इन्द्रियाँ क्रमशः गन्धः, रस, रुप, स्पर्श तथा शब्द की उपलब्धि मन के द्वारा होती है | सुख दुःख आदि भीतरी विषय है | आकाश आदि पञ्च तत्त्वों से एक एक गुण का आविर्भाव हुआ | इन गुणों के ग्राहक का कान, त्वचा, आँख, जिह्वा और नासिका ये पञ्च बुद्धि इन्द्रियों की उत्पत्ति हुई एवं क्रमशः वाणी, हाथ, पैर गुदा और लिंग ये पञ्च कर्मेन्द्रियों का आविर्भाव हुआ और कर्मेन्द्रियों एवं बुद्धेन्द्रियो में विहरण करनेवाला उभय व्यापी मन का आविर्भाव हुआ | क्योंकि इन्द्रियाँ स्वतंत्रतापूर्वक गुण ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो सकती | अतः उनके अधिष्ठात् देवताओं का आविर्भाव हुआ |     

दिग्वातार्क प्रचेतोऽश्वि बह्नीन्द्रोपेन्द्र मित्रकाः |           

इस प्रकार श्रोतेन्द्रियों की दिशाए, त्वचा का वायु, आँख का सूर्य, जिह्वा का वरुण, नासिकाओं का अश्विनी कुमारद्वय, वाणी का अग्नि,भुजाओं का इंद्रा, पैरों का विष्णु, मुदा का मित्र, मेढू का प्रजापति और मन का चन्द्रमा आदि इन्द्रियों के अधिपति हुए | इनमे जो इन्द्रियां हैं, वे तेजस् अहंकारो से और देव हैं वे वैकरिकों से हुए है | यथा विष्णु पुराण मे -

तेजसादिन्द्रियाण्याहु देवा वैकरिकाद्दश |

एकादशं मनश्चात्रदेवाः वैकारिका स्मृताः ||

इन सबों की संगति से ब्रह्माण्ड का आविर्भाव हुआ | ब्रह्माण्ड के पेट में पद्माकार पृथ्वी का प्रादुर्भाव हुआ | उस पक्ष में कर्णिका स्वरुप मेरु का प्रादुर्भाव हुआ, मेरु के पृष्ठ पर स्थित चतुर्मुख ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई, उससे देव, दांव, मनुष्य, सूर्यादि नवग्रह आदि से युक्त विश्व की उत्पत्ति हुई | अतः हमेशा ब्रह्मा की उत्पत्ति से सृष्टि की उत्पत्ति एवं उसके अवसान से सृष्टि का अवसान होता रहेगा | इससे यह स्पष्ट होता है ब्रह्माण्ड को ब्रह्माण्ड का स्वरुप प्रदान करनेवाले परमपिता परमेश्वर का स्वरुप अनिर्वचनीय है, जो अनादी और अनंत आदि नाम से कहे जाते है | वही अनिर्वचनीय, अनादि, अनंत परमपिता परमेश्वर, काल स्वरुप है | यद्यपि काल केवल अतीन्द्रिय दृष्टिवाले आचार्यों से ही स्व-संवेद्य हो सकता है, तथापि लौकिक प्रक्रियाओं के साधन के लिए दुसरे गणनात्मक काल की आवश्यकता हुई  ;-


लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः

   द्विधा  स्थूल  सूक्ष्मत्वात्  मूर्तश्चामूर्त  उच्यते  ||


इस प्रकार काल का दो भेद माना गया | एक वह जो अनिर्वचनीय है और लोगों को अन्त करनेवाला है | दूसरा गणनात्मक  काल है | इस गणनात्मक काल के भी दो भेद होते है, एक मूर्त और दूसरा अमूर्त | मूर्त काल वह है जो मानव व्यवहार में आता है | अमूर्त काल व्यवहार में ग्रहण करने योग्य नहीं है | यथाः - 


प्राणादिः कथितोमूर्त   स्त्रुट्याद्योऽमूर्त संज्ञकः |

सूच्याभिन्ने   पद्य्पन्ने    त्रुटिरित्यभिधियते      ||

तत्षष्ठ्या रेणुरित्युक्तो रेणु षष्ठ्या लवः स्मृतः |

तत्षष्ठ्या लीक्षकं प्रोक्तं तत्षष्ठ्या प्राण उच्यते ||


विचार होना चाहिए कि कालरुपी परब्रह्म को अनादी और अनन्त क्यों कहते है जब काल का प्रारम्भ और अवसान दोनों होता है | हाँ मूर्त और व्यापक भगवान् रुपी काल का अव्यक्त प्राकृतिक लय होने के बाद व्यक्ति जनक सूर्यादि ग्रहों के अभाव से अव्यक्त का अव्यक्त में जो अवसान होता है, वह उसका लय कहा जाता है | पर वह काल का आत्यन्तिक लय नहीं होता है | यथा :- कान्ते सपक्वस्तेनैव सहाव्यक्ते लयं व्रजते् | 

 

यह उसी अव्यक्तावस्था के अभिप्राय से कहा गया है, भचक्र के द्वारा काल कि उत्पत्ति होती है, प्रवह से आहत ज्यादा भचक्र सतत् काल कि उत्पन्न करता है, फलतः कब इसका प्रारम्भ और कब अन्त होता है, इसका निश्चय नहीं होता, इसलिए काल अनन्त है | जिनके मत में सूर्यादि आकाशस्थ पिण्डों का नित्यत्व है, अर्थात् प्रलय होने पर होने पर भी आकाश में स्थित ज्योतिष्मान् ग्रह, नक्षत्रों का विनाश नहीं होता | उनके विचार से काल कि प्रवृति और प्रलय नहीं होता | चूँकि प्रलय के बाबजूद भी ग्रहों कि सत्ता रहती है, जिससे काल का रहना सिद्ध होता है | 

  इसका समाधान इस रूप में किया जा सकता  है, कि काल कि प्रवृति और प्रलय पार्थिव जीवों के अभिप्राय से माने गए है | जिस तरह रात बीतने के बाद सूर्योदय होने पर दिन कि प्रवृति होती है,उसी तरह प्राकृतिक प्रलय के बाद, प्रजा का सृजन होने से सो-कर उठे हुए के समान, उसे सूर्यादि ग्रहों का प्रथम दर्शन होने के कारण, उनकी सृष्टि का प्रारम्भ होता है एवं पार्थिव प्रजाओं का अव्यक्तगत सूक्ष्मावस्थान रुप में प्राकृतिक प्रलय होने पर व्यक्तिजनक सूर्यादिक ग्रहों कि सत्ता रहने पर भी वर्त्तमान खण्ड काल कि गणना  का अभाव होने से, उसका लय माना जाता है | जिस प्रकार घड़ा नहीं है घटो नास्ति इससे घड़ा रुप पदार्थ का अत्यन्ताभाव नहीं मन जाता |  उसी प्रकार सूर्यादि के अभाव से उनके अत्यन्ताभाव कि कल्पना नहीं कि जा  सकती | भास्कराचार्य :-

यतः सृष्टिरेषांं दिनादौ दिनान्ते लयस्तेषु सत्स्वेवतंचार  चिंता |

अतो युज्यते कुर्वते तां पुनर्येऽप्यसत्स्वेषुतेभ्यो महद्भयो नमोऽस्तु ||

श्रीकृष्ण

अव्यक्ताव्यक्तयः  सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमें |

रात्र्यागमे   प्रलीयन्ते   तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ||

  ब्रह्मगुप्त 

ग्रह नक्षत्रोत्पतिर्ब्रह्मदिनादौ दिनक्षये प्रलयः

यस्मात् कल्पस्तस्माद  ग्रहगणिते कल्पयाताब्दा ||

श्रीपति ज्योतिर्ग्रहाणां विधिवासरादौ सृष्टिर्लयस्ताद्दीवसा वासाने | 

यस्मादतोऽस्मिन्  गणिते  ग्रहणां  योग्यो मतोनः खलु कल्प एव ||


जानामि पुण्यं जानामि तीर्थं जानामि मुक्तं लयं वा कदाचित् | 

जानामि भक्तिं व्रतं वाऽपि मातर्गतिसत्त्वं गतिस्त्त्वं त्वमेका भवानि ||


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