ज्योतिष और मानव जीवन मार्ग
मानव मस्तिष्क सतत् कार्यशील, जाग्रत और प्रगतिशील रहता है, वह नित्य नई नई भावनाओं और कल्पनाओं को जन्म देता रहता है तथा उसको मूर्त्त रुप देने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है | कर्म हम उसे कहते है जो कर्म वर्त्तमान क्षण तक किया गया है | चाहे वह इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्मों में ये सभी कर्म संचित कहलाता है | जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों को एक साथ भोगना संभव नहीं है | अतः उन्हें एक एक कर भोगना पड़ता है, क्योंकि इनसे मिलने वाले फल परस्पर विरोधी होते है | उन संचित कर्मों में से जितने कर्मों के फल का पहले भोगना प्रारम्भ होता है, उसे प्रारब्ध कहते है | ध्यान देने योग्य बात यह है कि जन्म जन्मान्तरों के संचित कर्मों को प्रारब्ध नहों कहते, अपितु उनसे जितने भाग का फल भोगना प्रारब्ध हुआ है, उसे ही प्रारब्ध कहते है | देश, काल, जाति के अनुसार सबों की अपनी संस्कृति होती है, जिसके अनुसार मानव अपना जीवन संचालित रखता है | सदियों से आयी हुई प्रत्येक देश, काल आदि की अपनी रीति- रिवाज, रहन- सहन, संस्कार, पूजा-पाठ आदि जिन नियमित तौर तरीकों से होते है, उन्हें ही हमलोग संस्कृति तथा सभ्यता कहते है | सम्यक्तया कार्याणि परम्परया आगतानि क्रियन्ते इति संस्कृति | इसमें कभी सफल- कभी असफल - ? ➖
पूर्वजन्म कृत कर्मणः फलं पाकमेति नियमेन देहिनः |
तत्ववश्यमुप भुज्यतेनृभिः प्राक्तनस्य निजकर्मणः फलम् ||
अर्थात् प्राणी पूर्व जन्म में जैसे शुभ और अशुभ कर्म करता है उसका परिणाम इस जन्म में भोगता है, वही भाग्य पद से वाच्य है | प्रश्न उठता है कि क्या भाग्य फल को कर्त्तव्य के माध्यम से ऊनाधिक किया जा सकता है | परन्तु स्व अर्जित कर्म ग्रह शांति, पूजा पाठ से कम नहीं होता | तात्पर्य पूर्व अनिष्ट फलों को व्रत, यज्ञ, उपवास आदि करके अशुभता में कमी ला सकते है | परन्तु इस जन्म में कुकर्म को भोगना ही पड़ेगा |
अवश्यं भावि भावानां प्रतीकारो भवेद्यदि |
तदा दुःखैर्नबाध्येरन्नल राम युधिष्ठिरा ||
व्यास जी :- तत्कालिक या पूर्वार्जित कर्म के कारण दुष्ट फलों का यज्ञादि उपाय करने पर भी भोग करना पड़ता है | परन्तु पूजा- पाठ करने से मनोबल बढ़ा रहता जिससे आराम मिलता है इस कारण पूजा पाठ नित्य नियमित करना ही चाहिए | यथा -
फलेद्यदि प्राक्तनमेव तत्किं कृष्याद्यु पायेषु परः प्रयत्नः |
श्रुतिः स्मृतिश्चापि नृणां निषेधविध्यात्मके कर्मणि किंं निषऽणः ||
अर्थात् भाग्य ही सब कुछ है, उसी से शुभ फलों कि उपलब्धी होती है, तो कृषि कार्य में मनुष्य को श्रम करने कि क्या आवश्यकता | साथ ही वेद, पुराण आदिग्रथों में पौरुष रुप यज्ञ, पूजन, पाठ, व्रत, आदि का क्या महत्व रह जाएगा | कर्म की सिद्धि, फल की प्राप्ति, इष्ट और अनिष्ट फलों की प्राप्ति आदि फल भाग्य के द्वारा प्राप्त होने में अव्यवस्थित होते हुए भी प्रयत्नरुपी पुरुषार्थ में व्यवस्थित होता है | पूर्वजन्म में उपार्जित पुरुषार्थ का नाम भाग्य है | पूर्व जन्मार्जित पुरुषार्थ और तात्कालिक पुरुषार्थ मिलकर महान फल को प्रदान करता है | यथा :-
पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म दैवमिति संप्रचक्षते |
उद्यमेन तदुपार्जितं सदा वांञ्छितं फलति नैव केवलम् ||
फल कि सिद्धि के लिए अकेला भाग्य या कर्म सक्षम नहीं होता | तदर्थ दोनों कि आवश्यकता होती है | यथा :-
यथाह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |
तद्वत्पुरुष कारेण बिना देवं न सिद्धयति ||
अर्थात् पूर्व जन्म में किया गया कर्म भाग्य कहलाता है, वह बीज है | तात्कालिक कर्म उस बीज का जलादि संस्कार है | जलादि से संस्कृत उत्तम कोटि का बीज अच्छी तरह उन्नति करता है | कभी क्षीण नहीं होता है | उसी प्रकार पूर्व जन्मार्जित कर्म रुपी भाग्य सत्प्रयत्नरुप यज्ञादि शुभकर्म से अभिवर्द्धित होता है, अन्यथा क्षीण होता है | इसलिए ग्रह की दशा के पर, हवा के झोकें से बुझ जाता है | उसी प्रकार मनुष्य आयु से परिपूर्ण रहते हुए भी शान्त्यादि यत्न से रहित होकर ग्रह्कृत उत्पात से मृत्यु को प्राप्त होता है | प्राणी अपनी शुभ और अशुभ दशा को जानकर तदनुकूल वैदिकादि शुभ अनुष्ठान और सदाचार आदि क्रिया के संपादन से कल्याण कि उपलब्धि करता है | तात्पर्य यह कि अशुभ दशमे यज्ञादि के संपादन से उस कि निवृति और शुभ दशा में शुभानुष्ठान से सम्पादन से उसकी वृद्धि होती है | यथा :-
प्राक्कर्मबीजं सलिलनलोर्वीसंस्कारवत् कर्म विधीयमानम् |
शोषाय पोषाय च तस्य तस्मात्सदा सदचारवतां न हानिः ||
शान्त्यादि कार्य से दुष्ट फलों कि शान्ति होती है यथा- किसी प्राणी का दुष्ट समय चलता हो, उस समय यदि वह नही को तैरता है, प्रद पर चढ़ता है,दुसरे के घर में प्रवेश करता है, रात में चलता है, यात्रा करता है, तो उसे अनिष्ट होने की संभावना प्रबल होती है | यदि ऐसा नहीं करता तो अनिष्ट कि संभावना क्षीण होती है | इस प्रकार हम देखते है कि शान्ति से दुष्ट फल की निवृति होती है | परन्तु कुछ लोगों का विचार है कि दुःख और सुख अनायास ही आता है, इस में मनुष्य का प्रयत्न कुछ काम नहीं करता, भाग्य ही सर्वोपरि होता है | यथा
अप्रार्थितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम् |
सुखान्यपि तथा मन्ये पुम्प्रयत्नो निर्थाकः ||
इससे भाग्य कि प्रधानता अभिव्यक्त होती है, पर यह समुचित नहीं क्योंकि प्रयत्न के अभाव में कोई काम सिद्ध नहीं होता है | मनुष्य अपने रहने के लिए घर ,जल, मार्ग, वस्त्र और विद्यालय आदि का निर्माण नहीं करे तो उनकी उपलब्धी भाग्य से नही होगी | मानव के उपभोग्य वस्तु प्रयत्न से ही प्राप्य है न कि भाग्य से :_
न बिना मानुषं दैवाद्दैवंवा मानुषाद्विना |
नैको निर्वर्तयत्यर्थमेंकारणिरिवानालम ||
इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि कार्य की सिद्धि भाग्य और प्रतत्न दोनों के संयोग से होती है | दोनों एक दुसरे के पूरक है |
भाग्य दो प्रकार का होता है :- १.दृढ़ात्मक और २. अदृढ़ात्मक
दृढ़ात्मक भाग्य प्रयत्न नहीं होता है और अदृढ़ात्मक भाग्य प्रयत्न साध्य होता है | ज्योतिष शास्त्र दोनों प्रकार के भाग्य का व्याख्या करता है | वह दृढ़ भाग्य विषयक जानकारी प्राप्त कराकर मनुष्य की निश्चित फल से अवगत करता है पर अदृढ़ात्मक भाग्य की जानकारी प्राप्त कराकर उसके व्रत, उपवास,पूजन, पाठ आदि करने के लिए आदेश भी देता है | इस प्रकार देखने से ज्योतिष आदेशात्मक और विधेयात्मक शास्त्र है | ज्योतिष शास्त्र भारतीय मनीषियों के त्याग तपस्या जनित बुद्धि की दें है | इस शास्त्र का क्रमिक विकास इसकी सत्यता का प्रमाण है | इसका गणित भाग विश्व मानव के मस्तिष्क की वैज्ञानिक उन्नति की जड़ है और फलित भाग उसका फल फुल है |
ज्योतिष तत्वात्मक विचार से ग्रह देवातात्मक शक्ति का नाम है | वही मनुष्यकृत शुभाशुभ कर्मजन्य सुख और दुःख को उत्पन्न करता है | पर इतना तो निश्चित है कि ग्रह सुख और दुःख का कारण नहीं है, अपितु उसके आश्रय से वह उत्पन्न होता है | यथा:- मान लिया जाय कि किसी एक नली से पानी निकलता है, पर नली पानी के उत्पादन में कारण नहीं है | कारण तो कुछ और है | इसी प्रकार ग्रह प्राणी के शुभाशुभ फल को देता है | पर शुभाशुभ फल तो उसके प्राक्तन कर्म जन्य है | ग्रह जो शुभ और अशुभ को प्राक्तन कर्म के आधार पर प्राणी के बीच वितरित करता है | ज्योतिष शास्त्र के भेदों के आधार पर यदि इसका विवेच्न्किया जाय तो उसके अनेक रुप होगें | प्रथम आकाशगत पिण्ड, जिसे देखकर मानव सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि ग्रह कहते है | पर वास्तव में विचार किया जाय तो वे ग्रह, ग्रहपिण्ड है इनमें वह शक्ति नहीं जो शुभाशुभ फलों को दे सके |बिम्बात्मक ग्रह तो ग्रहों की देह है, वह उसकी आत्मा नहीं है | कमलाकर:-
ग्रहर्क्षदेह्गोलाये ते तु तद्विम्बगोलकाः |
पूर्वाचार्यों के विचार को ध्यान से देखने पर ऐसा मालुम होता है कि स्थानात्मक ग्रह ही शुभाशुभ फलों को देने वाला है | फलतः उन्होंने सिद्धान्त ज्योतिष में उन्ही का आनयन किया है जिस प्रकार किसी भाठी से शक्ति पाकर अग्नि के सम्बन्ध से लोहा भी अग्निरुप हो जाता है | उसी प्रकार सूर्य कक्षा में आत्मतत्त्व स्वरुप भगवान् सूर्य से शक्ति ग्रहण कर सभी बिम्बात्मक ग्रह ग्रहत्व को प्राप्त करते है और शुभाशुभ शक्ति उत्पादक होते है | महर्षियों और पूर्वाचार्यों ने ग्रह के विषय में जो बात बतलाई है, उनसे स्पष्ट होता है कि गणित के द्वारा आनयन करने पर बिम्ब्निष्ट स्थ्सं का ज्ञान नहीं होता, अपितु बिम्ब सम्बंधित क्रांति मण्डलीय स्थान का ज्ञान होता है | आचार्यों ने उसे ही ग्रह कहा है | और उसी से शुभाशुभ फल कहने का आदेश दिया है | भास्कराचार्य ने भी इसी स्थानात्मक ग्रह को लक्ष्य कर कहा है :-
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें