कुण्डली में षड्वर्ग विचार - Kundli Me Shadvarg Vichaar
गृहं होरा च द्रेष्कणो नवांशो द्वादशान्शकः |
त्रिंशांशचेति षड्वर्गास्ते सौम्य ग्रहजाः शुभाः ||
समस्त ब्रह्माण्ड गोलाकार रुप में विद्यमान है | जिसमें ३६०ं अंश माने गये है | इन अंशों के द्वादश भाग और तीस अंश का एक लग्न माना गया है |
अथ षोडशवर्गेषु विवृणोमि विवेचनम्,
लग्ने देहस्य विज्ञानं होरायां सम्पदादिकम् |
द्रेष्काणेे भ्रातृजं सौख्यं तुर्यांशे भाग्यचिन्तनम्,
पुत्रपौत्रादिकानां वै चिन्तनं सप्तमांशके ||
नवमांशे कलत्राणां दशमांशे महत् फलम्,
द्वादशांशे तथापित्रोंश्चिन्तनं षोडशांशके |
सुखासुखस्य विज्ञानं वाहनानां तथैव च,
उपासनासा विज्ञानं साध्यं विंशति भागके ||
विद्या या वेद वाह्वेशे भांशे चैव बलावलम्,
त्रिंशांशके रिष्ट्फलं खवेदांशे शुभाशुभम् |
अक्षवेदविभागे च षष्टयंशेऽखिलमीक्षयेत्,
यत्र कुत्रापि सम्प्राप्तः क्रूरषष्टयंशकाधिपः ||
अर्थात् लग्न ३० अंश का होता है जिससे देह का विचार है | आधा हिस्सा १५ं अंशों के एक होरा धन का विचार, लग्न का तीसरा भाग १० अंश का द्रेष्काण भाई बहन का विचार, चतुर्थ भाग ७/३० अंश का चतुर्थांश भाग्य विचार, सप्तम भाग ४/१७ अंश का सप्तमांश से सन्तान का, नवम भाग ३ /२० अंश का नवमांश से विवाह और जीवन मार्ग सभी का, दशम भाग ३ अंश का दशमांश से नौकरी का, द्वादश भाग २ /३० अंश का द्वादशांश से माता-पिता का, षोडशः १ /५२ /३० अंश का षोडशांश से वाहन का, बीसवां भाग को १ /३० अंश का विशांश से उपासना का, चौबीसवां भाग १ /१५ अंश का चतुर्विशांश से विद्या का, सताइसवां भाग १ /६/ ४० अंश का सप्तविशांश से बलाबल का, तीसवां भाग १ अंश का त्रिशांश से अरिष्ट का, चालीसवां भाग ० /४५ अंश का खवेदांश से शुभाशुभ का, पैतालिसवाँ भाग ० /४० अंश का अक्षवेदांश से सर्वस्थिति और साठवां भाग ० /३० अंश का षष्ठांश से भी सर्वस्थिति कहलाता है | षड्वर्ग - लग्न, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, द्वादशांश और त्रिशांश को (पञ्चमांश (पांच -पांच में ) भी नाम है) इस प्रकार प्रत्येक ग्रह का षड्वर्ग बनता है | और इसमें सप्तमांश जोड़ देने से सप्तवर्ग कहलाता है | और इसमें दशांश, षोडशांश और षष्ठांश जोड़ देने पर दशवर्ग कहलाता है तथा और उसमें विशांश, चतु र्विशांश, त्रिशांश, खवेदांश, अक्षवेदांश और षष्ठ्यांश जोड़ देने पर षोडशवर्ग होता है |
वर्गभेदानहं वक्ष्ये मैत्रेय त्वं विधारय, षड्वार्गाः सप्तवर्गाश्च दिगवर्गा नृपवर्गाकाः |
भवन्ति वर्गसंयोगे षड्वर्गे किन्शुकादयः,द्वाभ्यां किंशुकनामा च त्रिभिर्व्यञ्जनमुच्यते||
चतुर्भिश्चामराख्यं च छत्रंपञ्चभिरेव च,षड्भिः कुण्डल योगः स्यान्मुकुटाख्यं च सप्तभिः …………………………………|
जातक के कुण्डली के हर वर्ग में कम से कम दो ग्रह स्ववर्ग होने से राजयोग प्राप्त करते है | प्रत्येक वर्ग में अलग-अलग राजयोग का नाम, रुप और फल अलग-अलग मिलता है | यथा- षड्वर्ग में दो कुण्डली में स्ववर्ग संयोग होने से किंशुक नाम है, तीन कुण्डली में स्ववर्ग से व्यञ्जन, चार कुण्डली में स्ववर्ग होने से चामर, पञ्चम कुण्डली में स्ववर्ग के संयोग छत्र और षष्ठ कुण्डली में स्ववर्ग होने से कुण्डल संज्ञा है | सप्तवर्ग में भी द्वध्यादि स्ववर्गों से उसी के साथ सप्त वर्ग में भी योग का नाम मुकुट राजयोग बनता है | दशवर्ग में स्ववर्ग संयोग होने से उसी योग का नाम पारिजात आदि संज्ञा होती है | यथा - दो कुण्डली में स्ववर्ग होने से पारिजात, तीन कुंडली में स्ववर्ग होने से उत्तम, चार कुण्डली में स्ववर्ग होने से गोपुर, पञ्च कुण्डली में होने से सिंहासन, षष्ठ कुण्डली ने होने से पारावत, सप्त कुण्डली में होने से देवलोक, अष्ट कुण्डली में स्ववर्ग होने से ब्रह्म लोक , नवम कुण्डली में स्ववर्ग होने से शक्रवाहन और दश कुण्डली में स्ववर्ग होने से श्रीधाम संज्ञा ज्ञात होती है | षोडश वर्ग में कुण्डली में दो स्ववर्ग होने से भेदक, तृतीय कुंडली में स्ववर्ग होने से कुसुम, चार कुण्डली में स्ववर्ग होने से नागपुष्प, पांच कुण्डली में स्ववर्ग होने से कन्दुक, छः कुण्डली में स्ववर्ग होने से केरल, सात कुण्डली में स्ववर्ग होने से कल्पवृक्ष, आठ कुण्डली में स्ववर्ग होने से चन्दनवन, नौ कुण्डली में स्ववर्ग होने से पूर्णचन्द्र.दशम कुंडली में स्ववर्ग होने से उच्चैःश्रवाः, एगारह कुण्डली में स्ववर्ग होने से धन्वन्तरि, बारहवें कुण्डली में स्ववर्ग होने से सूर्यकान्त, तेरहवें कुण्डली में स्ववर्ग होने से विद्रुम, चौदहवें कुण्डली में स्ववर्ग होने से शक्र-सिंहासन, पंद्रहवें कुण्डली में स्ववर्ग होने से गोलोक,सोलहवें सभी कुण्डली में स्ववर्ग होने से श्रीवल्लभः योग से जातक सुसज्जित होते है | किसी भी वर्ग में जो ग्रह स्ववर्ग, उच्च, मूलत्रिकोण,स्वराशि के स्वामियों के तथा लग्न प्रद से केन्द्राधीशों के वर्ग शुभ होते है | उसमें और ज्यादा राजयोग में मजबूती मिलती है | अस्तंगत ग्रहों के द्वारा पराजित, नीचगत, निर्बल, तथा शयनादि दुरवस्थागत ग्रहों के वर्ग अशुभकारक एवं उपर्युक्त योगों के नाशक होते है |
कुण्डली से ज्ञात प्राप्त करने के लिए सप्तवर्ग या दशवर्ग का जन्म कुण्डली में महत्त्वपूर्ण स्थान है इन वर्गों के संयोग से किंशुक पारिजात आदि विशिष्ट राजयोग बनता | सप्तवर्ग को ग्रहों के बल का हेतु कहा गया है –
विलग्न होरा द्रेष्काण नवांश द्वादशांशकाः
त्रिंशांशकश्च षड्वर्गः शुभकर्मसु शस्यते |
सप्तांशयुक्तः षड्वर्गः सप्तवर्गोऽभिधीयते,
जातकेषु च सर्वेषु ग्रहाणां बलकारणम् ||
जिस जातक के दशवर्ग में दशों वर्ग अपने ही हो जाय तो पराशर मुनि ने श्रीधाम राजयोग माना है | किन्तु लग्न, होरा, द्रेष्काणादि दशवर्ग स्वकीय तभी सम्भव है यदि होरा और त्रिशांश सभी ग्रहों के हों | होरेश सूर्य और चन्द्रमा ही होते है | त्रिशांशेश सूर्य, चन्द्र के अतिरिक्त ही ग्रह होते है | अतः श्रीधाम या वैशिषिक योग की संभावना ही असंभव प्रतीत होती है | इसलिए वर्ग संयोगे का आशय स्ववर्ग न कर शुभ ग्रहों के वर्ग संयोग में करना ही उपयुक्त होगा | शुभ ग्रहों के सभी वर्ग सम्भव है |
१. लग्न का फल - देहं रुपं च ज्ञानं च वर्णं चैव बलाबलम् |
` सुखं दुःखं स्वभावं च लग्नन्निरीक्षयेत् ||
लग्न से समस्त जीवन का शुभ और अशुभ फलों का विचार करना चाहिए | शरीर, स्वरुप, ज्ञान, वर्ण, बल, सुख, दुःख, स्वभाव आदि का विचार लग्न भाव से करना चाहिए | विशेष प्रश्न उसी कुण्डली प्राप्त कर सकते है आपको किस वर्ग से क्या बाते विचार करनी चाहिए | लग्न कुण्डली में शुभ ग्रह हो एवं लग्नेश बलवान् होकर त्रिकोण में हो या लग्न पर गुरु की दृष्टि हो तो जातक का शरीर स्वस्थ, सुन्दर और सुन्दर स्वभाव होता है | लग्न में या लग्नेश उत्तम संयोग बना लेने से जातक उत्तरोत्तरः लाभ प्राप्त करता है | चन्द्रमा लग्न कुण्डली में पीड़ित हो जाने से जातक में भटकाव आ जाता है और अपने संस्कार और सस्कृति से काफी दूर चले जाते है | लग्न और एकादश भाव या भावेश शुभ ग्रह से सम्बन्ध होने से जातक सुखी संपन्न होते है | लग्न से जातक का व्यक्तित्व देखा जाता है उसका समाज के क्या प्रभाव है उसका यश, मान, सम्मान, आचरण आदि का विचार कुण्डली के लग्न से करना चाहिए बिना व्यक्तित्त्व के जीवन में प्रतिष्ठा नहीं मिलती | लग्नेश चतुर्थ भाव में उच्च या स्वराशि होकर बैठा हो तो जातक प्रसिद्ध होता है | चतुर्थ भाव में लग्नेश या गुरु,चन्द्र या शुभ ग्रह होने से धनवान योग बनता है |
जिस भाव में क्रूर षष्ट्येंशेश हो उस भाव का नाश होगा | जिस भाव में शुभ षोडशांशेश होगा उस भाव की पुष्टि होगी | लग्न से नवम, दशम और एकादश भावों से पिता का विचार करना चाहिए वही सूर्य से नवम, दशम और एकादश भावों से पिता का विचार होता है | लग्न से द्वितीय, चतुर्थ, नवम और एकादश भावों से जो विचार करना चाहिए वही विचार चन्द्रमा से द्वितीय, चतुर्थ, नवम और एकादश भावों से करना चाहिए | तृतीय भाव से जो विचार करना चाहिए वही विचार मंगल से तृतीय भाव से, षष्ठ भाव से जो विचारणीय है वही बुध से भी षष्ठ भाव से विचार करना चाहिए | पञ्चम भाव से जो विचारणीय है | वही गुरु से जो विचारणीय है | शुक्र से पत्नी का विचार और शनि से आयु का विचार किया जाता है तो क्रमशः शुक्र के सप्तम से विवाह और शनि के अष्टम भाव से भी आयु का विचार किया जाना चाहिए | षड्वर्ग पर अपनी अनुभव व्यक्त कर रहा हूँ
२. होरा का फल -
आद्या होरा चौजराशौ रवैः स्याद्युग्मे, चान्द्रिः प्रोच्यतेऽथोऽग्निभागा |
जब होरा कुण्डली में विषम राशियों के पाप ग्रह सूर्य की होरा में हो तो वह जातक बली, क्रुर वृत्ति एवं धनी होता है | गुरु, सूर्य, भौम ये तीनों सूर्य होरा का फल और चन्द्र, शुक्र, शनैश्चर ये चन्द्र होरा का फल देते है | बुध, सूर्य चन्द्र दोनों के होरा फल देता है | शुभ ग्रह सम राशियों में जाकर चन्द्र की होरा में स्थित हो तो वह जातक नम्र विनयशील, आनन्दी, प्रेमी, प्रतिभाशाली और भाग्यशाली होता है | शुभ या पाप राशि का चन्द्र सूर्य की होरा में हो और उसके साथ शुभ, पाप दोनों प्रकार के ग्रह हो तो फल मिला जुला होता है | जिसकी जन्मपत्री में लग्न, चन्द्रमा,लग्नेश और चन्द्र राशिश, बलि हो तो मनुष्य दीर्घायु होता है | होरा कुण्डली से धन का विचार किया जाता है जब होरा कुण्डली का लग्न सिंह राशि हो उसमे सूर्य हो तो जातक रजोगुणी होता है, उच्च पदाधिकारी होता है | यदि सूर्य के साथ गुरु और शुक्र हो तो जातक धनी, ज्ञानी और शासक होता है | जन्म लग्न सूर्य की होरा में हो तो जातक की बाल्यावस्था साधारण हो तो बाद में परिश्रम करके वह धनी हो जाता है | चन्द्र की होरा में जन्म हो तो बाल्यावस्था में सुखी और युवावस्था में विदेश वास करता है | होरेंश कुण्डली में केन्द्रगामी हो, शुभ ग्रह से दृष्टि हो तो जातक सुखी और धनि होता है | जब ट्रिक में हो पाप दृष्ट हो तो, शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो वह सुख संपत्ति से हिन् होता है | जब होरा लग्न कर्क हो उसमे चन्द्रमा हो तो जातक शांत स्वभाव, मातृ भक्त, लज्जालु, कृषि कार्य, ईषत्, लाभ से संतुष्ट होता है | उसके साथ शुभ ग्रह गुरु, शुक्र और बुध हो तो जातक की प्रवृति धार्मिक होती है | विद्वान्, सदाचारी, धनी, सन्ततियुक्त और सुखी होता है | होरा लग्न में चन्द्र के साथ पाप ग्रह हो तो जातक आचरणहीन, निर्धन, दुष्ट, दुःखी और नीच कर्मरत होता है |
ओजे क्रूरेऽर्कहोरां गतवति बलवान् क्रूरवृत्तिर्धनाढ़यो
युग्मे चान्द्रों शुभेषु द्युतिविनयवचोहृद्यसौभाग्ययुक्तः|
व्यस्तं व्यस्तेऽत्र मिश्रे समफलमुदितं लग्नचन्द्रौ बलिष्ठौ
तन्नाथौ द्वौ च तद्वद्यदि भवति चिरंजीव्यदुःखी यशस्वी ||
जिनकी जन्म कुण्डली में क्रूर ग्रह मेष, मिथुन,सिंह, तुला, वृश्चिक और कुम्भ राशि में स्थित होकर सूर्य की होरा में हो वे व्यक्ति क्रूर वृत्ति वाले, बलवान् धनाढ्य होते है | इसके विपरीत जिनकी जन्म कुण्डलियों में शुभ ग्रह बरिश, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियों में स्थित होकर चन्द्र होरा में हों तो वे लोग कान्तियुक्त विनयी, नम्र, वचन बोलने वाले, हृद्य और सौभाग्य शाली होते है | जिनकी जन्म कुण्डली में लग्न और चन्द्रमा दोनों बलवान् हो तथा लग्न का स्वामी और चन्द्रमा जिस राशि में हो उसका स्वामी ये दोनों भी पूर्ण बलवान् हो तो वह व्यक्ति दीर्घायु, सुखी और यशस्वी होता है |
सूर्य अपनी होरा में हो तो धार्मिक, भोगी और दाता बनता है | चन्द्र अपनी होरा में जातक को सुखी और दीर्घायु बनाता है | चन्द्र जब सूर्य की होरा में हो तो जातक को स्त्री कष्ट, बन्धुहीन और रोगी बनाता है | सूर्य चन्द्र को होरा में हो तो जातक प्रतापी, सुखी और पत्नीहीन होता है | सूर्य की होरा में पाप ग्रह हो तो जातक धन- धान्य से सुखी होता है | चन्द्रमा की होरा में शुभ ग्रह हो तो जातक स्त्रीप्रिय होता है | लग्न चन्द्र की होरा में हो उसमें चन्द्रादि ग्रहों का क्रमिक फल चन्द्र से स्त्रीप्रिय, मंगल से मृत पत्नी, बुध से प्रख्यात, गुरु से तेजस्वी, शुक्र से भोगी पत्नी, शनि से दासी पत्नी और सूर्य से दुखी होता है एवं लग्न सूर्य की होरा में हो उसके साथ सूर्यादि ग्रहों के क्रमिक फल सूर्य से विद्वान्, जितेन्द्रिय, शूर प्रख्यात, धनी, शुभ मित्रों से युक्त, बुध से दरिद्रऔर चुगलखोर, गुरु से रोगी, शुक्र से गम्य पति और शनि से दासी पति होता है |
३. द्रेष्काण का फल - द्रक्काणेशे स्ववर्गे शुभखगसहिते स्वोच्चमित्रर्क्षगे वा
तद्वर्त्त्रिशांशनाथे बलवति यदि चेद् द्वाद्शान्शाधिये वा |
होरानाथे तथा चेन्निखिलगणो नित्यशुद्धप्रवीणों
दीर्घायुः स्याद्दयावान् सुतधनसहितः कीर्तिमान्नाजभोगः ||
यदि लग्न द्रेष्काण का स्वामी अपने उच्च वर्ग में, स्ववर्ग में, या मित्र के वर्ग में शुभ ग्रह के साथ हो, यदि लग्न होरा, लग्न त्रिशांश तथा द्वादशांश के स्वामी भी अपने अपने उच्च वर्गो में, स्ववर्गों में या मित्र वर्गों में हो और शुभ ग्रह सहित हो तो उस व्यक्ति में अनेकानेक गुण होते है | वह चतुर दीर्घायु, दयावान् पवित्र, यशस्वी, राजाओं के सदृश भोग भोगने वाला होता है | उसको पुत्र सुख प्राप्त होता है और वह धनी भी होता है |
द्रेष्काण कुण्डली में शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोण में हो तो जातक धनी, प्रख्यात, विद्वान् और कला निपुण होता है | द्रेष्काण पति और द्रेष्काण लग्न शुभ प्रभाव में हो तो अच्छे दोषत, यशस्वी और प्रख्यात होता है | यदि द्रेष्काण पति शत्रु क्षेत्री, नीचराशिगत, अस्त, निर्बल हो तो जिस राशि में वह स्थित होगा तद्राशि तुल्य द्योत्तक शरीरांग में कष्ट प्रदान करता है | द्रेष्काण से सोदर का विचार किया जाता है | द्रेष्काण पति जिस राशि में बली होता है, उसके राशि स्वामी के समान भाई बहन होते है | उसपर जितने पाप ग्रहों का प्रभाव होता है | उसमे नष्ट होते है | शुभ ग्रह के प्रभाव से दीक्षित और दीर्घायु होते है | एवं पुरुष ग्रह के प्रभाव से भाई और स्त्री के प्रभाव से बहने होती है | जातक के लग्नेश और द्रेष्काणेश में मैत्री होने से भाइयों में शुभ सम्बन्ध सम होने से समता और शत्रु होने से श्त्रुत्ता होती है | जातक पाप द्रेष्काण में जन्म ले तो दुष्ट भ्रमणशील, पापी, और छिन्द्रान्वेषी होता है | द्रेष्काणेश पुरुष ग्रह हो तो भाई से सुख या स्त्री राशि हो तो बहन से सुख होता है | द्रेष्काणेश चन्द्र के साथ पाप ग्रहों से युक्त हो तरो जातक कर्ण रोगी बनता है | बन्धु विरोधी होता है | द्रेष्काणेश मंगल अष्टम भाव में हो तो उसका भाई उच्च जगह से कष्ट पाता है | द्रेष्काणेश गुरु शनि के साथ होने से विष से कष्ट योग बन जाता है | द्रेष्काणेश सूर्य और मगल लग्न से अष्टम अग्नि भय बन जाता है द्रेष्काणेेश अष्टम भाव में हो तो शरीर में कोई चिन्ह होता है | द्रेष्काणेश शुभ ग्रह के साथ हो तो अभिमानी,प्रतापी और स्वस्थ शरीर वाला होता है | यदि वह षष्ठ भाव में हो तो उसकी राशि की संख्या के समान मास में मृत्यु का योग होता है |
४. नवांश का फल -जन्म कुण्डली से ज्यादा सम्पूर्ण जीवन की फलित संभावना ज्यादा प्रभाव शाली नवांश का फल होता है | जन्मपत्री में राजयोग उपलब्ध रहने पर भी उसका उत्तम फल दृष्टि गोचर नही होता है | इसका कारण यह है कि जो ग्रह जन्मपत्री में स्वगृही, स्वोच्च राशि आदि में रहता है वह नवांश में नीच शत्रु गृह हो तो वह नीचादि का फल ही देता है | क्योंकि जिस राशि का जो नवांश है वह उस राशि से अधिक बली होता है | राशि की दुर्बलता से नवांश भी दुर्बल होता है | यदि राशि मध्यम बली हो तो नवांश भी मध्यम बली होता है इसका प्रभाव फल पर पड़ता है ➖
स्वोच्चे नीचांश के दु:खी नीचे स्वोच्चांश के सुखी |
स्वांशे वर्गोत्तमे भोगी राजयोगी भविष्यति ||
यथा जन्म कुण्डली में ग्रह अपनी उच्च राशि का है और वही ग्रह नवांश कुण्डली में नीच राशि गत है | तो उसकी राशिगत उच्चता का फल नहीं मिलता | नीच राशि का ग्रह यदि नवांश कुण्डली में भी नीच का ही हो तो ग्रह वर्गोत्तामो समझा जाएगा और अपनी वर्गोत्तम स्थिति के कारण अशुभ फल न देकर शुभ फल ही देगा, उसकी राशिगत नीचता का फल नही होगा |
नवांश कुण्डली से स्त्री का सुख-दुःख, स्वभाव और आचरण आदि का विचार किया जाता है | नवांश लग्न मंगल हो तो स्त्री क्रूर और आचरण हीन होती है | सूर्य का हो तो पतिव्रता, चन्द्र का हो तो शांत का प्रकृति और रुपवती, बुध का हो तो चतुर, सुंदरी कला निपुण, गुरु हो तो सदाचारणी, धर्मीष्ट, शुक्र हो तो श्रृंगार प्रिय चतुर, सुन्दर, भोगी, आचारहीन और शनि हो तो क्रूर, नीच, पति के विपरीत विचारवाली होती है | नवांशपति पाप ग्रह हो, पाप युक्त, पाप दृष्ट, या पाप प्रभाव में हो तो स्त्री झगड़ालू होती है | यदि शुभ ग्रह हो शुभ दृष्टि हो, केन्द्र त्रिकोण में बली हो तो स्त्री पूर्ण सुख मिलता है | नवांश पति दुसरे, लाभ और भाग्य भावों में से किसी स्थान में शुभ सम्बन्ध में हो तो ससुराल से अच्छा लाभ होता है या पत्नी के द्वारा अर्थागमन में विशेष सहयोग प्राप्त होता है | नवांश पति पापी हो, पाप ग्रहों से विशेष रुप से प्रभावित हो तो पत्नी का सुख नहीं मिलता है या जितने पाप प्रभाव में नवांश पति होगें उतनी स्त्री का विनाश या उससे विरोध होता है | नवांश पति जन्म लग्न से दुसरे हो तो विवाह के बाद भाग्योदय होता है | नवांश पति जन्म लग्न में स्वगृही हो या या तृतीय,पञ्चम, सप्तम, नवम या दशम भावों में हो तो सुन्दर भाग्यशाली स्त्री का लाभ होता है | नवांश पति जन्म लग्न से षष्ठ अष्टम भाव में हो तो स्त्री का वियोग होता है या हानी होती है | जन्म लग्नेश जहाँ हो वहां के नवांशेश के गृह में जब गोचर का गुरु जाएगा तब विवाह या पत्नी से लाभ होगा | लग्नेश शत्रु या नीच नवांश गत हो तो स्त्री हानि या विवाह में बाधा होती है |
५. द्वादशांश फल- जन्म कुण्डली और द्वादश कुण्डली में द्वादशांशेश यदि लग्न में हो तो मनुष्य पिता के समान भाग्यशाली होता है | त्रिक स्थान में हो तो अपने शरीर और माता-पिता का भी सुख नहीं मिलता | द्वादशांश एकादश भाव में हो तो पिता का धन गुप्त रहता है, जिसे उसकी संतान भोगता है | यदि द्वादशांश लग्न नीच, अस्त, पाप, शत्रु से पीड़ित हो तो माता पिता को क्लेश आदि अशुभ फल मिलता है | चोर या राजा से भी होता है | द्वादशांशेश धन स्थान में हो तो जातक पिता से अधिक गुणी और धनी होता है | तृतीय भाव में हो तो पिता से अधिक यशस्वी,चतुर्थ भाव में हो तो भाग्यशाली, पञ्चम भाव में हो तो बुद्धिमान, षष्ठ भाव में हो तो शत्रुवाला, सप्तम भाव में हो तो सुखी, अष्टम में हो तो पिता से, शत्रु से, या विषैले जीव से अपमृत्यु, नवम भाव में हो तो पिता तीर्थ सेवी, दशम भाव में हो तो सुख समृद्धि, एकादश भाव में हो तो अचानक धनागमन और द्वादश भाव में हो तो जातक पिता से अधिक धन नाश करता है | द्वादशांश पति स्वगृही, उच्च और मूल त्रिकोण में बली हो तो जातक भाग्यशाली होता है | यदि नीच राशि, शत्रु राशि, पापयुक्त, पाप दृष्ट और निर्बल हो तो जातक दुःखी, रोगी, अनेक चिंताओं से युक्त और प्रशन रहता है | यदि उच्चादि शुभ स्थान स्वामित्रादि होकर केन्द्र और त्रिकोण में हो तो जातक सुखी होता है | स्व नीचादि में या शत्रु गृहादि में होकर निर्बल हो तो जातक दुखी होता है |
६. त्रिशांश का फल - जन्म कुण्डली और त्रिशांश से सुख -दुःख का विचार किया जाता है | त्रिशांश लग्न से जन्म में अष्टमेश यदि शुभ ग्रह हो, शुभ दृष्ट हो, लग्न में शुभ हो तो जातक की मृत्यु शुभ और सुख से होती है | अन्यथा महारोग और कष्ट से मृत्यु होती है | त्रिशांशेश पाप ग्रह हो, अस्त हो, पाप दृष्ट हो, नीच राशि का हो और दो पापों के बीच का हो तो भाई - बन्धु, माता- पिता, के साथ अकारण झगड़ा - फसाद करता है | त्रिशांशेश यदि त्रिक में हो तो जातक राजभय प्राप्त करता है | यदि शुभ ग्रह से युक्त, दृष्ट हो तो सर्वथा सुखी होता है | त्रिशांश में बैठा भाव कारक ग्रह पूर्ण फल देता है | त्रिशांश पति पाप ग्रह हो तो जातक दुःखी रहता है, शुभ ग्रह हो तो सुखी होता है | अपने त्रिशांश में बैठा एक भी ग्रह स्वगृही, मित्र गृही , स्वोच्च में हो तो जातक धनी होता है अन्यथा धनहीन योग बनता है | चन्द्रमा द्रेष्काण कुण्डली में स्वराशि, स्व मित्र राशि का हो तो जातक कल्याण कारक होता है | चन्द्र यदि नीचादि राशियों में हो तो विपरीत फल देता है | शुभग्रह के त्रिशांश में शुभ वाणी वाला और अशुभ ग्रह के त्रिशांश में हो तो अशुभ वाणी वाला होता है | त्रिशांश पति स्वोच्च स्वमित्र, स्वगृही आदि में हो तो शुभ सुन्दर और सुखी होता है | त्रिशांशेश पापी, अष्टम राशि में हो तो राज्य से मरण भय होता है | त्रिशंशेश से द्वादश भाव में शत्रु ग्रह हो तो जातक को मुकदमे से परेशानी होती है | तत्रिशांश लग्न से मृत्यु भाव के स्वामी शुभ ग्रह, शुभ दृष्ट होहो तो जातक की मृत्यु शुभ स्थान में दान -धर्म के साथहोती है | यदि वहां से अष्टमेश क्रूर हो तो अपमृत्यु होती है |
षड्वर्गेषु शुभग्रहाधिकगुणैः श्रीमांश्चिर जीवति
क्रुरांशे बहुले बिलग्नभवने दीनोऽल्पजीवः शठः |
तन्नाथा बलिनो नृपोऽस्त्यथ नवांशेशो दृगाणेश्वरों
लग्नेशः क्रमशः सुखी नृपसमः क्षोणीपतिर्भाग्यवान् ||
यदि शुभ ग्रह षड्वार्गो में बलवान् हो तो मनुष्य धनवान और दीर्घायु होता है | जिस प्रकार ग्रहों के षड्वर्ग देखे जाते है | उसी प्रकार लग्न स्पष्ट करके यह देखना चाहिए कि जो राशि, अंश, कला, विकला उदय हो रही है | वह लग्नेश की अपनी किंवा शुभ ग्रहों के वर्ग में है या नहीं | यदि लग्न क्रूर अंशो के श्द्वार्गों में हो तो जातक अल्पायु, दरिद्र और दुष्ट प्रकृति का होता है | किन्तु यदि जिन अंशों में लग्न स्पष्ट है उन अंशों के स्वामी बलवान् हों तो मनुष्य बहुत उच्च पदवी प्राप्त करेगा | यदि लग्न के नवांश का स्वामी बलवान हों तो मनुष्य सुखी होगा, यदि लग्न द्रेष्काण का स्वामी बलवान् हो तो मनुष्य राजा या उच्चाधिक पद प्राप्त करता है | और यदि स्वयं लग्नेश बहुत बलवान् हो तो मनुष्य पृथ्वी का स्वामी और भाग्यवान् होता है |
अस्तंगता ग्रहजिता नीचगा दुर्बलस्तथा,
शयनादिगता दुःस्था ग्रहाः स्युर्योगनाशकाः ||
शुभ ग्रहों का षड्वर्ग शुभ अन्यथा अशुभ है | चर स्थिर या कारक ग्रहों में से जिसका कारक ग्रह बलवान् होता है वही सत्त्व बलवान् और निर्बल कारक होने से निर्बल फल प्राप्त करता है | सूर्य आत्मा कारक बलवान् होने से आत्मा बली होता है चन्द्र के निर्बल होने से मन निर्बल होता है और वह सदा दुखी रहता है | सभी कारक इस प्रकार फल वाले है | विपरीत्तंशनेः अर्थात् शनि दुःख कारक बलवान् होने से दुःख अधिक तथा नौकरी आदि का नाश करता है, निर्बल होने से दुःख कम और नौकरादि का सुख अधिक होता है |
मारक ग्रह - सूर्य से शनि, शनि से मंगल, मंगल से गुरु, गुरु से चन्द्र, चन्द्र से शुक्र, शुक्र से बुध, बुध से चन्द्र निश्चय पूर्वक अर्थात् सूर्य से शनि का दोष मिटता है यानि सूर्य शनि से बली है इसी प्रकार सभी जानने चाहिए |
किसी ग्रह के बलाबल का विचार करना हो तो देखिये कि वह ग्रह केन्द्र या त्रिकोण में है अपनी राशि, मूल-त्रिकोण राशि, उच्च राशि या वर्गोत्तम में है क्या, इसके बाद सप्त वर्ग या दस वर्ग में विचार कीजिये | साथ जिस विषय का देखना हो उसका विशेष कुण्डली चाहिए ही ,यथा- सन्तान के लिए सप्तमांश से विचार किया जायेगा | `
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