Janiye Kon Hote Hai Mangalik Aur Kya Hota Hai Mangal Dosh
विवाह में अमांगलिक दोष - मंगल दोष
अति महत्वपूर्ण विवाह में अमांगलिक दोष यानी
(खराब कुण्डली) प्रसिद्धः (मांगलिक-दोष)
विचार:- मंगल, नवांश और त्रिशांश
विषय :- आप लोग जो कुण्डली मिलान करवाते है I वह केवल १०% मात्र सही होता है मंगल दोष का अर्थ स्वतंत्र विचार अपने से मतलब परिवार और समाज से मतलब नही रखता ऐसे जातक है I मंगल या पृथक कारी ग्रह जिस भाव रहता उस भाव को दूषित करता है I क्या विचार करना चाहिये:- प्रस्तुत है:---------
विवाहो
जन्मतः स्त्रीणां युग्मेऽब्दे पुत्रपौत्रदः I
अयुग्मे
श्रीप्रदः पुंसां विपरीते तु मृत्युदः II१II
जातक का विवाह जन्म से सम
संख्यक वर्षों में कन्या का विषम संख्यक वर्षों में पुरुष का विवाह शुभ फलदायक ( सभी
अशुभ विचार या संयोग को भी नष्ट करता ) होता है I इसके विपरीत होने पर हानिकारक
होता है I
यद्यत्पुन्प्रसवे समं तदखिलं स्त्रीणां
प्रिये वा
वदेन्माङ्गल्यं
निधनात् सुतांश्च नवमाल्लाग्नात्तनोश्चारुताम् I
भर्त्तारं सुभगत्वमस्तभवनात्सङ्गं
सतीत्वं सुखात्
सन्तस्तेषु शुभप्रदास्त्वशुभदाः क्रूरास्तदीशं विना II२II
इसमें जो भी विचार या फल पुरुष के
जन्माङ्ग के लिए कहे गये है वे भी स्त्री जन्मांङ्ग में कहना चाहिए I स्त्री के कुंडली
के अष्टम भाव से उसकी सम्पन्नता और सुख का विचार करना चाहिये I नवम भाव से संतान सुख
का विचार, लग्न से उसके सौन्दर्य का, सप्तम भाव से पति को प्रभावित करने की उसकी क्षमता
और पति के शुभाशुभ फल का विचार, चतुर्थ भाव से समागम और सतीत्व का विचार करना
चाहिए I उक्त भावों में शुभ ग्रह की स्थिति शुभ फल और पाप ग्रह अशुभ फल देते है I
किन्तु पाप ग्रह अशुभ फल देते है I किन्तु पाप ग्रह यदि स्व गृही हो तो वे भी शुभद
होते है I
वर
का गुण:-
कुलं
च शीलं च सनाथतां च विद्यां च वित्तं च वपुर्वयश्च I
वरे
गुणान्सप्त परीक्ष्य देया कन्या बुधैः शेष चिन्तनीयम् II३II
वर का विचार विवाह से पूर्व ही कुल, शील,
सनाथता, विद्या, धन, शरीर और आयु ये सात गुणों की परीक्षा करनी चाहिए I
कन्या
का गुण:-
अनन्यपूर्विकां
कन्यामसपिण्डां यवीयसीम् I
अरोगिणीं
भ्रात्रृमतीमसमानार्पगोत्रजाम् II४ II
जिस कन्या का अन्य किसी ने दान या उपभोग
न किया हों, जो सापिण्डय न हों, अपने लड़के से उम्र में व शरीर में कम हों, निरोगी,
सोदर बन्धु युक्त और भिन्न गोत्र वाली कन्या देखकर विवाह करनी चाहिए I
लग्ने
व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजः I
कन्या
भर्तुविनाशाय भर्त्ता कन्याविनाशकृत् II५ II
एवंविधे
कुजे संस्थे विवाहो न कदाचन I
कार्यो वा गुणबाहुल्ये कुजे वा तादृशे तयोः II ६ II
किसी भी एक भाव में मंगल या पापी ग्रह होने से वैवाहिक सुख या सामान्य
सुख का नाश करने वाला होता है और पुरुष की जन्म कुण्डली में ऐसा योग होने पर कन्या
का नाश कारक होता है I अतः ऐसे योग वालों का विवाह, परस्पर कुण्डली मिलाने से यदि
गुण अधिक मिलते हों वा दोनों को समान योग हों तभी करना चाहिये, अन्यथा हानिकारक I
जामित्रे
च यदा सौरिर्लग्ने वा हिबुकेऽथवा I
अष्टमे
द्वादशे वापि भौमदोषविनाशकृत् II७ II
अजे
लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके कुजे I
द्युने
मृगेऽष्टमे कर्के भौमदोषो न विद्यते II ८ II
वर और कन्या की जन्म कुण्डली में एक को पूर्वोक्त प्रकार से अनिष्टकर्त्ता मंगल हों और दूसरे को यदि १, ४, ७, ८ और दशम भाव में शनि हों तो उक्त अनिष्ट का नाश कारक होता है I लग्न में मेष का मंगल, द्वादश भाव में धनु का मंगल, चतुर्थ में वृश्चिक का मंगल, सप्तम में मकर का मंगल और अष्टम में कर्क का मंगल हों तो अमंगल (मंगल) कारक नहीं होता है I
श्वश्रूविनाशमहिजौ
सुतरां विधतःकन्या सुतौ निर्ऋतिजौश्वसुरं हतश्च I
ज्येष्ठाभजाततनया
स्वधवाग्रजंचशक्राग्निजा भवति.देवरनाशकर्त्री II९II
आश्लेषा नक्षत्रोत्पन्न कन्या
और वर अपनी सास को नाश ( मृत्यु ) करती, मूल नक्षत्रोत्पन्न अपने श्वसुर को नाश या अनिष्टकर्त्ता
होते है I ज्येष्ठा नक्षत्रोत्पन्न कन्या अपने पति के ज्येष्ठ बन्धु क नाश या कष्ट
देती, और विशाषा नक्षत्रोत्पन्न कन्या अपने पति के लघु बन्धु को अनिष्ट कारक
होती है I
मंदारार्किदिर्नेऽबुपाग्निफणिभं
भद्रातिथिश्चेदिहो-
द्भुता
सा विषकन्यकाऽपि तनुगौ सौम्यौ रिपुक्षेत्रगौ I
एकः
क्रूरः इहोभ्द्वाऽप्यथ तनौ सौरी रविः पुत्रगो
धर्मस्थो
धरणीसुतोऽयमपरो योगोऽपि तज्जा विषा II १० II
अगर शनिवार, मंगलवार और रविवार, शतभिषा,
कृत्तिका और अश्लेषा नक्षत्र तथा २, ७, द्वादशी तिथि, इनमे से वार, नक्षत्र और
तिथि में से दो का संयोग से थोड़ा ज्यादा या तीनों का संयोग बने तो योग वाले दिन
उत्पन्न हुई कन्या विष कन्या कहलाती है I यथा:- शनि+शतभिषा या +द्वितीय = तीनों में
से दों होने पर या जोड़ने से = विष योग बनता है I दो शुभ ग्रह शत्रु राशि के होकर
लग्न में बैठे हों तो विष योग होता है I एक क्रूर ग्रह शत्रु क्षेत्री होकर लग्न
में हों तो विष योग होता है I तथा लग्न में शनि हों, पञ्चम भाव में सूर्य हों और
नवम भाव में मंगल हों तो भी विष योग होता है I इसमें उत्पन्न हुई कन्या अनिष्ट
कारिणी होती है I
मुले
सार्पे विशाषायामैन्द्रभे चोद्भवः युष्मान् I
न दोष कृद्विवाहेषु स्त्रियः सर्वत्र गर्हिताः
II ११ II
अगर जातक मूल, आश्लेषा, विशाषा
और ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्त्पन्न पुरुष विवाह में दोष कर्त्ता नही है, परन्तु इन
नक्षत्रोत्पन्न स्त्रियाँ सर्वत्र दोष कारक कही जाती है I
वरे वर्णाधिके प्रीतिरुत्तमा स्त्री वरानुगा I
समवर्णे मिथः सख्यं हीने स्नेहो न जायते II १२
II
वर का वर्ण उच्च हों तो
स्त्री पति के वश में रहती है, दोनों वर्ण समान हों तो परस्पर स्नेह रहता है, किन्तु
पति का वर्ण कन्या के वर्ण से हीन रहने पर अशुभ है I
षट्काष्टकं
मृतिर्नन्दनवमे त्वनपत्यता I
नैःस्वं
द्विर्द्वादशेऽन्येषु दम्पत्योः प्रीतिरुत्तमा II १३ II
वर कन्या की राशि परस्पर षष्ठ या अष्टम
हों तो मृत्यु कारक होता है, पञ्चम नवम हों तो संतान रहित होते है, द्वितीय द्वादश
हों तो निर्धन बन जाते है तथा शेष शुभ होता है I
राक्षसी
यदि नारी नरो भवती मानुषः I
मृत्युस्तत्र
न संदेहो विपरीतः शुभावहः II १४ II
यदि कन्या का राक्षस गण हों और वर का मनुष्य गण हों तो निःसंदेह वर का मृत्यु
कारक है I किन्तु विपरीत होने से शुभ होते है I
राश्यैक्ये चेद्भिन्नमृक्षं द्वयोः स्यान्नक्षत्रैक्ये
राशियुग्मं तथैव I
नाड़ीदोषो नो गणानां च दोषो नक्षत्रैक्ये पादभेदे
शुभं स्यात् II१५ II
यदि कन्या और वर की एक राशि होने पर यदि नक्षत्र अलग हों, दोनों कन्या-वर
का नक्षत्र एक होने पर राशि अलग हो, अथवा नक्षत्र एक होने पर चरण अलग-अलग हो तो
नाड़ी दोष और गण दोष नहीं होता है I
नाड़ीदोषस्तु
विप्रस्य वर्णदोषस्तु क्षत्त्रिणः I
वैश्यस्य
गणदोषो वै शूद्रस्य चैव योनिजः II१६ II
ब्राह्मण को नाड़ी दोष, क्षत्रिय को
वर्ण दोष, वैश्य को गुण दोष और शुद्र को योनि दोष अवश्य देखना चाहिये I यदि ये दोष
प्रबल हों तो विवाह नहीं करना चाहिये I l
लग्नद्युनस्वामी
लग्नमदनभं लग्नमदनं I
प्रपश्येद्वा
बध्वाः शुभमितरथा ज्ञेयमशुभम् II१७ II
विवाह समय का लग्न वा उसका नवमांश स्वस्वामी
से दृष्ट या युक्त हों तो वर को शुभ होता है, लग्न अथवा नवांश से सप्तम भाव के
स्वामी से युक्त या दृष्ट हों तो कन्या को शुभ होता है I
‘‘लग्ने
व्यये सुखेवाऽपि सप्तमे वाऽपिचाष्टमे।
शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्ति न संशयः।I १८ II
यदि स्त्री की जन्मकुंडली के लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में मंगल स्थित हो तो, इस स्त्री के पति का विनाश होता है I इन भावों में उस कुण्डली का पापी मंगल या उस कुण्डली का पापी ग्रह स्थित होता है तब कुण्डली में अमंगल ( आप लोग मागलिक दोष कहते है ) दोष माना जाता है। सप्तम भाव से हम दाम्पत्य जीवन का विचार करते हैं। अष्टम भाव से दाम्पत्य जीवन के मांगलीक सुख को देखते है। मंगल लग्न में स्थित होने से सप्तम भाव और अष्टम भाव दोनों भावों को दृष्टि देता है।
चतुर्थ भाव में मंगल के स्थित होने से सप्तम भाव पर मंगल की चतुर्थ पूर्ण दृष्टि पड़ती है। द्वादश भाव में यदि मंगल स्थित है तब अष्टम दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है। इसके अतिरिक्त सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए हम पांच बातों का विचार करते हैं:-स्वास्थ्य, भौतिक सम्पदा, दाम्पत्य सुख, अनिष्ट का प्रभाव और जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अच्छी धनयोग देखा जाता है I ज्योतिष में इन पांचों बातों का प्रतिनिधित्व लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव करते हैं।
इसीलिए इन पांचों भावों में मंगल की स्थिति को मागलिक दोष का नाम दिया गया है। इस ग्रह स्थिति में उत्पन्न स्त्री का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता अपितु विभिन्न प्रकार के कष्टों से परिपूर्ण होता है। यह ग्रहस्थिति न केवल स्त्री जातक में अपितु पुरुष जातक के जन्मांग में भी कुजदोष उत्पन्न करता है। जन्मांग के अतिरिक्त चंद्रकुंडली में भी यदि उपरोक्त ग्रहयोग हो तो भी कुजदोष का निर्माण होता है। उससे ज्यादा नवांश में अमंगल दोष और जब हम कुजदोष या मंगल दोष की बात करते हैं, तो यह ग्रहयोग मंगल ग्रह से ही संबंधित है।
केवल मंगल ग्रह की जन्मांग के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावों की उपस्थिति ही
कुजदोष या मंगलदोष की उत्पत्ति का कारण नही बनती है। परंतु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य
ध्यातव्य है ‘भौमपंचक दोष’ संज्ञा से अभिहित किया गया। अर्थात् न केवल मंगल
अपितु सूर्य, शनि, राहु और केतु ये समस्त पाँचों ग्रह
उपरोक्त भावों में स्थित होकर कुजदोष का ही प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यह स्पष्ट है
कि विवाह संबंधी प्रसंग में कुजदोष तक सीमित न रहकर अन्य क्रूर ग्रहों की स्थिति
पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक है। इस दोष का परिहार महर्षि पराशर:-
परस्त्रीहन्ता परिणीता चेत्
पतिहन्त्री कुमारिका।
तदा वैधव्य योगस्य भंगो भवति
निश्चयात्।I १९ II
कुजदोष से पीड़ित स्त्री अथवा पुरुष का विवाह यदि इसी दोष से पीड़ित स्त्री-पुरुष से किया जाए तो इस अशुभ ग्रहयोग का प्रभाव पूर्णतया समाप्त हो जाता ! ऐसा नहीं होता है। परन्तु अपनी अनुभव से देख रहा हूँ कि जो दोष कुण्डली में जातक को प्राप्त हूँआ है उसका भोग करना ही पड़ता है I मंगल स्वराशि अथवा उच्च का हो। मंगल वक्री, नीच अथवा अस्त हो। द्वादश भाव में मंगल, बुध तथा शुक्र की राशियों (मिथुन, कन्या, वृष, तुला) में स्थित हो। चतुर्थ, सप्तम अथवा द्वादश में मेष या कर्क का मंगल हो।
मंगल लग्न में मेष अथवा मकर राशि, चतुर्थ में वृश्चिक राशि, सप्तम में वृष अथवा मकर राशि, अष्टम में कुंभ अथवा मीन राशि तथा द्वादश में धनु राशि में स्थित हो। बली गुरु या शुक्र स्वराशि, उच्च अथवा त्रिकोणस्थ होकर लग्न या सप्तम भाव में हो। केन्द्र त्रिकोण में शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भाव में पाप ग्रह और सप्तमेश सप्तम भाव में हों। मंगल-गुरु, मंगल-राहु या मंगल-चंद्र का योग उपरोक्त भावों में हो। सप्तमस्थ मंगल पर गुरु की दृष्टि हो। सप्तम भाव गुरु द्वारा दृष्ट हो।
जन्मांग के द्वितीय भाव में शुक्र हो, मंगल राहु के साथ हो अथवा मंगल गुरु द्वारा दृष्ट हो। ये समस्त ग्रहयोग कुजदोष को भंग कर देते हैं। तो फिर समस्या कहाँ है? यह बात ठीक है कि कुजदोष परिहार से संबंधित कई योगों की चर्चा अनेक ग्रंथों में की गई है I और प्रयोग में भी इन ग्रहयोगों के कारण जातक के जीवन में मंगल दोष विषयक कष्टों का अभाव अथवा न्यूनता भी दृष्टिगत होती है। परन्तु समस्या उन ‘‘कुजदोषपरिहार ग्रहयोगों’’ से है जिसमें मंगल पर शुभ ग्रहों यथा गुरु, शुक्र, चंद्रमा तथा छाया ग्रहों राहु व केतु की दृष्टि अथवा युति को इस दोष की समाप्ति में समर्थ माना गया है।
भारतीय
ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिन-जिन भावों अथवा
ग्रहों पर शुभ ग्रहों (गुरु, शुक्र, पूर्ण चंद्र, अकेला बुध) की दृष्टि अथवा युति हो
उन-उन भावों अथवा ग्रहों से संबंधित फलों में वृद्धि होती है- ‘‘यद्भे
सन्तस्तस्य पुष्टिं विदध्युः’’, ‘‘यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैर्वा
स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिः’’ आदि। तो स्पष्ट है कि यदि मंगल अष्टम भाव में
स्थित हो और द्वितीय भावस्थ गुरु अथवा शुक्र उस पर दृष्टिपात कर रहे हों तो इस
परिस्थिति में कुजदोष का परिहार न होकर कुजदोष के प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि होगी।
इसी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव
कुजदोषोत्पत्ति कारक मंगल के शुभग्रहों से युक्त होने पर होता है और मंगल के
नकारात्मक प्रभाव में वृद्धि होती है न कि कमी। इसी प्रकार राहु-केतु के सन्दर्भ
में भी विचारणीय है कि राहु व केतु की युति ग्रहों व भावों के लिए फलवृद्धिकारक
होती है-
‘‘यद्यद्भावगतौ
वापि यद्यद्भावेश संयुतौ।
तत्ततफलानि
प्रबलौ प्रदिशेतां तमोग्रहौ II २०II
अतः कुजदोष का निर्माण कर रहे मंगल
के साथ राहु व केतु की युति कुजदोष को बढ़ाएगी न कि उसको समाप्त करेगी। हम जानते
हैं कि पाप ग्रहों की दृष्टि भाव फल तथा ग्रहयोग जन्य फल का नाश करने वाली होती
है-‘‘पापैरेवंतस्य भावस्य हानिर्निदेष्ट्व्या’’।
इस सिद्धांत के अनुसार लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भावस्थ मंगल पर पापग्रहों की दृष्टि तथा राहु-केतु
के अतिरिक्त पापग्रहों (सूर्य, शनि)
की युति मंगलदोष को भंग करेगी। इसी प्रकार शुभग्रहों की सप्तम व लग्न भाव पर
दृष्टि कुजदोष परिहार अथवा कुज दोष भंग में सक्षम होगी बशर्ते लग्न व सप्तम भाव
में मंगल स्थित न हो। आखिर संशय उत्पन्न कहाँ से हुआ? ‘बृहत्पाराशरहोराशास्त्र’’ में महर्षि
पराशर की उक्ति है-
‘‘लग्ने
व्यये सुखे वाऽपि सप्तमे वाऽपि चाष्टमे।
शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्तिं न संशयः।I २१ II
यही वह श्लोक है जिसमें कुजदोष से
संबंधित ग्रह स्थितियों तथा कुजदोष भंग योग का एक ही स्थान पर निर्देश किया गया
है। उपरोक्त श्लोक का ‘शुभदृग्योगहीन’ शब्द संशय का मूलकारण प्रतीत होता है।
‘शुभदृग्योगहीन’ शब्द मंगल के लिए न प्रयुक्त होकर विवाह के कारक सप्तम भाव तथा
सप्तमेश के लिए प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है।
पापर्क्षे
मदनस्थिते शनियुते वैधव्यमेत्यङ्गना
जारासक्तविलासिनी
सितकुजवान्योन्यराश्यंशगौ I
चन्द्रे
कामगृहं गते तु पतिना सार्द्ध दुराचारिणी
मन्दारर्क्षविलग्नगौ
शशिसितौ वन्ध्या सुतस्ठे खले II२२ II
यदि कन्या के जन्माङ्ग में सप्तम
भाव में यदि पाप ग्रह की राशि का होकर शनि स्थित हों तो उत्पन्न कन्या विधवा होती
है I यदि भौम नवांश में शुक्र और शुक्र नवांशस्थ भौम सप्तम भाव में पाप ग्रह की
राशि के होकर स्थित हों तो उत्पन्न कन्या दुश्चरित्र पुरुष में आसक्त होती है I
यदि चन्द्र सप्तम भाव में हों तो जातक पति के साथ दुश्चरित्रा होती है I उसका पति
असामाजिक व्यभिचारिणी रहता है I मेष, वृश्चिक, मकर या कुम्भः राशि के लग्न में
चन्द्र के साथ शुक्र स्थित हों और पञ्चम भाव
में पाप ग्रह से युत्त हों तो जातक वन्ध्या होती है I
सौरारभांशोपगतग्रहेषु
शुक्रेन्दुयुक्तेष्वशुभेक्षितेषु I
जाता कुलाचारगुणैर्विहीना मात्रा च साकं व्यभिचारिणी II२३II
यदि शनि ( मकर-कुम्भ ) और मंगल (
मेष-वृश्चिक) की राशियों के नवांश में स्थित ग्रह शुक्र और चन्द्र संयुक्त हों या
पाप ग्रहों से दृष्ट हों तो जातक स्वकुल के आचार और गुणों से हीन रहती और माता साथ
वह भी व्यभिचार रत होती या उससे उस परिवार को कोई बुरा नहीं लगता है I इस प्रकार
बहुत कुछ योग होता है अंतर व्यवहार जानने की तरिका I
स्वोच्चे नीचांशके दुःखी नीचे स्वोच्चान्शके
सुखी I
स्वांशे वर्गोत्तमे भोगी राजयोगी भविष्यति II२४ II
नवांश नाथे स्वलवे
स्वभावौ
शुभेक्षिताढय्येऽशुभेयोगहीने
I
रामामतुलामवश्यं प्राप्नोति
नरो विनायासमपापरुपाम् II२५II
नवांशेश बली होकर जन्म कुण्डली में केंद्र में स्थित हो तो कम अवस्था बाल्यावस्था में विवाह या शारीरिक सम्बन्ध का संयोग बनता है I अगर त्रिकोण में हो तो २५ वर्ष युवावस्था के आस-पास विवाह होता है I केंद्र त्रिकोण से बाहर है तो बड़ी (प्रौढ़ा) आयु में विवाह का संयोग बनता है I तथा नवांश कुण्डली के सप्तम भाव में पाप ग्रहों का योगादिक हो तो विवाह सुख नही मिलता है I
नवांश कुण्डली में जो ग्रह बलवान
वर्गोत्तम या उच्च का होकर बैठा हो, वह उतना ही उत्तम एवं शुभफलप्रद सिद्ध होता है I नवांश कुण्डली फलादेश के लिए विशेष
महत्वपूर्ण होता है, अतः इसकी उपेक्षा करना भारी भूल होगी I वैसे नवांश कुण्डली से स्त्री का
स्वभाव आचरण तथा सुख-दुःख आदि का भी विचार किया जाता है I
सेनानीर्धनवान्
पिशङ्गनयनश्चोरश्च मेषांशके
पीनस्कन्धमुखांसकोऽसितवपुर्जातो
वृषांशे विधौ I
चार्वङ्गः
प्रभुसेवको लिपिकरो युग्मांशके पण्डितः
श्यामाङ्गः
पितृपुत्रसौख्यरहितश्चन्द्रे कुलीरान्शके II२६II
जातक का जन्मकालिक चन्द्रमा यदि मेषराशि के नवांश में स्थित हों तो जातक सेनापति, सेना, धनवान, पीताभ नेत्र और सुडौल शरीरधारी होता है, वृष राशि के नवमांश में हों तो जातक स्थूल स्कन्ध और मुख वाला तथा श्यामावर्णी होता है, मिथुन राशि के नवांश में हों तो जातक सुडौल शरीर, राजसेवारत, लेखक लिपिकार, विद्वान् होता है, कर्क राशि के नवांश में स्थित हों तो जातक श्यामल वर्ण तथा पुत्रादि के सुख से हीन होता है I सिंह राशि के नवांश में यदि चन्द्रमा स्थित हों तो जातक पुष्ट शरीरधारी, उठी हुई नासिका तथा धन और बल से विख्यात होता है I
कन्या राशि के नवांश में हों तो
मिष्टभाषी, दुर्बल शरीर धारी और द्युत क्रिया में
प्रवीण होता है, चन्द्रमा यदि तुलाराशि के नवांश में
हों तो जातक राजकर्मचारी,
सुलोचन और कामासक्त होता है, चन्द्रमा यदि वृश्चिक राशि के नवांश
में हो तो जातक विकल, निर्धन, दुर्बल शरीर, सेवक, यायावर और रोगी होता है यदि जन्म कालिक चन्द्रमा धनुराशि के नवांश में
स्थित हों तो जातक की भुजाए और शरीर दुर्बल लम्बी होती है, तथा वह त्यागी, तापसी और धनवान् होता है, मकर राशि के नवांश में यदि चन्द्रमा
अवस्थित हों तो जातक लोभी,
श्यामल शरीर तथा स्त्री-पुत्रादि से
सुखी होता है, चन्द्रमा यदि कुम्भराशि के नवांश में
स्थित हों तो जातक अर्थहीन बकवास करने वाला, असत्यवाक् और और स्त्री के वशीभूत होता है यदि चन्द्रमा मीनराशि के
नवांश में स्थिति हों तो जातक मृदुभाषी, दीनवचः और तीर्थाटन में रूचि रखने वाला
होता है I
दृक्संस्थावसितसितौ परस्परांशे शौक्रे
वा
यदि घटराशिसम्भवोंऽशः I
स्त्रीभिः
स्त्रीमदनविषानालं प्रदीप्तं
संशान्तिं
नयति नराकृतिस्थिताभिः II२७II
जिस जातक के नवमांश कुण्डली में शुक्र
और शनैश्चर ये दोनों परस्पर एक दुसरे के नवांश में स्थित हों अर्थात् शुक्र (वृष, तुला) के नवांश में शनैश्चर स्थित हों
और शनैश्चर (मकर, कुम्भ) के नवांश में शुक्र स्थित हों
तथा शुक्र को शनैश्चर देखता हों या शनैश्चर को शुक्र देखता हो अथवा वृष या तुला इन
दोनों में से कोई लग्न में स्थित हों और उसमे कुम्भ का नवांश हों तो वह जातक
(स्त्री या पुरुष) किसी पुरुषाकार स्त्री
के साथ कामाग्नि को शांति करती है I
शुन्ये
कापुरुषोऽबलेऽस्तभबने सौम्यग्रहावीक्षिते
क्लीबोऽस्ते
बुधमन्दयोश्चारगृहे नित्यं प्रवासान्वितः I
उत्कृष्टा
तरणौ कुजे तु विधवा बाल्येऽस्तराशिस्थिते
कन्यैवाशुभवीक्षितेऽर्केतनये
द्यूने जरां गच्छति II२८ II
जिस जातक या स्त्री के जन्मकालिक लग्न या चन्द्र से सप्तम भाव में कोई ग्रह स्थित न हों अथवा बलरहित हों या शुभ ग्रहों की दृष्टि उस ग्रह पर न हों तो उस स्त्री का पति कापुरुष होता है I तथा सप्तम भाव में शनैश्चर स्थित हों तो उसका पति क्लीब अर्थात् हिजरा होता है I सप्तम भाव में चर राशि होने से उसका स्वामी विदेश या दूर ( विवाह विच्छेद के कारण )रहने का योग बना देता है I
जिस जातक के सप्तम भाव में सूर्य हो उस
कारण वह स्त्री पति से त्यागी हुई होगी ही I अगर सप्तम भाव में पापी मंगल स्थिति हों तो वह बाल विधवा होती है I तथा उसी सप्तम भाव में पापी ग्रह हों
या पाप ग्रह दृष्ट शनैश्चर स्थिति हों तो वह वृद्धा कन्या हो जाती है I या उसका विवाह नही होता है I
आग्येयैर्विधवास्तराशिसहितैर्मिश्रैः
पुनर्भूर्भवेत्
क्रूरे
हीनबलेऽस्तगे स्वपतिना सौम्येक्षिते प्रोज्क्षिता I
अन्योन्यांशगयोः
सितावनिजयोरन्यप्रसक्ताङ्गना
द्यूने
वा यदि शीतरश्मिसहितौ भर्तुस्तदानुज्ञया II२९II
यदि स्त्री जातक के कुण्डली के सप्तम भाव में पापग्रह हों तो वह स्त्री विधवा ही होती है और यदि शुभ अथवा अशुभ दोनों ग्रह स्थिति हों तो वह स्त्री पति को छोड़कर दुसरे पुरुष को स्वीकार करती है I
यदि सप्तम भाव में पापी तथा क्रूर ग्रह बलरहित होकर स्थिति हों और शुभग्रहों से दृष्ट हों तो वह स्त्री अपने पति से त्यक्ता होती है और यदि किसी स्थान में शुक्र या मंगल ये दोनों परस्पर अर्थात् शुक्र के नवांश में मंगल और मंगल के नवांश में शुक्र स्थिति हों तो वह स्त्री परपुरुषों से सम्भोग करनेवाली होती है और यदि सप्तम भाव में चन्द्रमा युक्त मंगल या शनैश्चर ये दोनों स्थिति हों तो अपने स्वामी ही की आज्ञा से पर पुरुष रता होती है I
सौरारर्क्षे लग्नगे
सेंदुशुक्रे मात्रा सार्द्धं बन्धकी पापदृष्टे I
कौजेऽस्तांशे सौरिणा व्याधियोनिश्चाश्रोणी
वल्लभासद्ग्राहांशे II३०II
यदि जिस स्त्री के जन्मकाल में मेष, वृश्चिक, मकर या कुम्भ इन राशियों में से कोई लग्न हों तथा वहीं पर पापग्रह से दृष्ट शुक्र या चन्द्रमा स्थित हों तो वह स्त्री घर वालों के साथ या घर से अगल रह करके परपुरुषों के साथ भोग करने वाली होती है I या जिस स्त्री के लग्न से ज्यादा नवांश कुण्डली के सप्तम भाव में मंगल हो या मंगल के नवांश होने से स्त्री के भंग (योनी) में रोग होता है I परन्तु यदि उसी सप्तम भाव में शुभ ग्रह हों या शुभ का नवांश होने से वह स्त्री सुन्दर भंगवाली और अपने स्वामी के अतिप्यारी होती है I
वृद्धो
मूर्खः सूर्यजर्क्षांश्के वा स्त्रीलोलः स्यात् क्रोधनश्चाावनेये I
शौक्रे कान्तोऽतीवसौभाग्य युक्तो विद्वान्भर्ता
नैपुनश्च बौधे II३१II
जिस जातक के जन्म कुण्डली के सप्तम भाव
में शनि मकर या कुम्भ का राशि हों तथा शनैश्चर का नवांश हों तो उस जातक का स्त्री
या स्वामी वृद्ध और मूर्ख होता है I या सप्तम भाव में मंगल मेष या वृश्चिक का राशि हों और मंगल का नवांश
भी हों तो उस जातक का स्वामी या स्त्री परगामिनी और क्रोधी होता है I उसी सप्तम भाव में शुक्र वृष या तुला का
राशि हों अथवा शुक्र का नवांश हों तो उस जातक का पति या पत्नी अति सुन्दर एवं सबको
प्रिय होता है I सप्तम भाव में बुध मिथुन या कन्या का
राशि हो तथा बुध का नवांश भी हों तो उस जातक का पति या पत्नी विद्वान् तथा सब
कार्यों में चतुर होता है I
मदनवश गतो मृदुश्च चान्द्रे त्रिदशगुरौ गुणञ्जितेन्द्रियश्च
I अतिमृदुरतिकर्मकृच्च सौर्येभवति
गृहेऽस्तमयस्थिर्तेंऽशके वा II३२II
जिस जातक के कुण्डली के सप्तम
भाव में कर्क राशि हों तथा चन्द्रमा का
नवांश हों तो उस जातक का पति या पत्नी अति कामी तथा कोमल स्वभाव वाली होता है I तथा उसी सप्तम भाव में गुरु का (धनु या
मीन ) राशि हों अथवा बृहस्पति का नवांश होने से पति या पत्नी गुणी एवं जितेन्द्रिय
होता है और सप्तम भाव में सिंह राशि स्थित हो तो अथवा सूर्य का नवांश होने से उस
जातक का स्त्री या पति अति कोमलवाली तथा बहुत कार्य करने वाली होती है I
क्रूरेऽष्टमे
विधवता निधनेश्वरोंऽशे
यस्य स्थितो वयसि तस्य समे प्रदिष्टा I
सत्स्वस्र्थगेषु
मरणं स्वयमेव तस्याः
कन्यालिगोहरिषु
चाल्यसुतत्वमिन्दौ II३३II
जिस जातक के कुण्डली के अष्टम भाव
में क्रूर, पापी
ग्रह या पापी मंगल स्थित हों और नवांश में भी इन्हीं ग्रहों का राशि हो और दशा चले
तो विधवा का संयोग बन जाता है I यदि
यही लग्न से अष्टम भाव में क्रूर ग्रह स्थित हों परन्तु द्वितीय भाव में कोई शुभ
ग्रह स्थित हों तो वह स्त्री पति से पहिले उस स्त्री का मरण होता है I और जिस स्त्री के जन्म कुण्डली में
कन्या, वृश्चिक, वृष या सिंह इन राशियों में से किसी राशियों में चन्द्रमा स्थित हों तो उस स्त्री के पुत्र
एक होते है I
नवांश में लग्न का स्वामी मंगल हो तो पति या पत्नी क्रूर स्वभाव वाली एवं आचरण हीन होती है I नवांश का लग्नेश सूर्य होने से जातक की स्त्री पतिव्रता लेकिन उग्र प्रकृति वाली होती है I चन्द्रमा नवांश स्वामी होने से शांत प्रकृति, रुपवती और सुन्दर आचरण वाली होती, बुध नवांश स्वामी होने से जातक की पति या पत्नी चतुर सुन्दर व्यवहार कुशल होते है I
गुरु नवांश स्वामी होने से जातक की पति या पत्नी सदाचारिणी तीर्थयात्रा और सात्विक जीवन जीने वाले होते है I शुक्र नवांश स्वामी हो तो श्रृंगार प्रिय, सुन्दर, भोगविलास में प्रवीण, अगर शुक्र पापी होने से आचारहीन होने का भय रहता है I यदि नवांश का स्वामी शनि हो तो स्त्री क्रूर स्वभाव वाली, नीच संगति वाली, पति से विरुद्ध विचार वाली होती है I यदि नवांश लग्नेश राहु किंवा केतु के साथ हो तो गुप्त दुराचार दुष्टा कुटिला, पति विरुद्ध आचरण करने वाली स्त्री होती है I
नवांश पति व्यय भाव में हो तो जातक स्त्री से संतुष्ट नही होता I नवांश पति ग्रह युक्त दृष्ट हो तो स्त्री झगडालू होती है, नवांशेश जन्म कुण्डली में शुभ ग्रह युक्त या दृष्ट हो या स्वराशिस्थ या केंद्र त्रिकोण में हो तो स्त्री का पूर्णसुख मिलता है I जन्म कुण्डली में नवांशेश द्वितीय और एकादश भाव के साथ युत हो तो व्यक्ति को ससुराल से लाभ होता है I अथवा स्त्रियों द्वारा अनेक प्रकार से लाभ होता है I
यदि नवांशेश पाप ग्रहों से युक्त दृष्ट हो तो उतनी ही स्त्रियों का नाश या उतने ही सम्बन्ध छूटते है I ऐसे ही स्त्री की कुण्डली में भी पति सौख्य का विचार अपनी बुद्धि पूर्वक करना चाहिये I नवांशपति जन्म कुण्डली में द्वितीय भाव में हो तो विवाह बाद धनी होता है I नवांशेश जन्म लग्न में स्वगृही हो या ३, ५, ७, ९, १० भाव में हो तो सुन्दर भाग्यशाली स्त्री का वियोग या हानी होती है I जन्म लग्नेश जहाँ हो वहाँ के नवांशेश के भाव में जब गोचर में गुरु आवे तब स्त्री लाभ हो I लग्नेश शत्रु या नीच नवांश गत हो तो स्त्री हानि या विवाह में बाधा या काफी विलम्ब होता है I
जातक के जन्म कुण्डली में कई राजयोग देखने को मिलता है परन्तु उनका जीवन कष्टप्रद और उलझन से भड़ा हुआ तथा गिरी हुई हालत में ही गुजरता रहता है, ऐसे ही किसी की कुण्डली में महाभाग्यवान् है I इसका कारण नवांश गत ग्रहों की परिस्थिति संयोग से जीवन चक्र चलता है ये कुण्डली गुप्त कुण्डली है I आजकल ९९% ज्योतिषी जन्म या चन्द्र कुंडली से फलित करते है जो सामान्य फलित होता है I क्योंकि फलादेश कथन में नवांश कुण्डली वर्गोत्तमी ग्रह भाव का जीवन में विशेष महत्त्व है I
नवांश कुंडली के बिना फलादेश कहना उस ज्योतिषि का पूर्ण ज्ञान का अभाव समझा जाता है I क्योंकि विशेष विचारों में जन्म कुण्डली से भी अधिक विशेष महत्त्व नवांश कुण्डली का होता है I यदि नवांश कुण्डली में नीचांश के कारण ग्रह निर्बल हों तो वह व्यक्ति उन्नति नही कर सकता, भले ही जन्म कुण्डली में ग्रह प्रबल हो I दैवज्ञ नवांशगत ग्रहस्थिति का अध्ययन करके ग्रहों के वास्तविक बलाबल एवं कुण्डली की शक्ति का ज्ञान करता है I
कोई भी शुभाशुभ योग जन्मकुण्डली की
अपेक्षा नवांश कुण्डली में शुभ होने पर अधिक शुभ, या अशुभ होने पर अधिक अशुभ कहा जाता है I कोई भी योग्य ज्योतिषी ग्रहफल निर्णय
के समय नवांश की उपेक्षा नही कर सकता I आपको पुर्णतः ध्यान देना होगा कि अत्यंत प्रबल राजयोग तभी माना जाता
है जब नवांश में भी उसी या उससे ज्यादा बलवान हो नही तो निष्फल माना जाता ”योग” I
नवमांश कुंडली मुख्यरूप से विवाह और वैवाहिक जीवन के लिए देखी जाती है यदि लग्न कुंडली में विवाह होने की या वैवाहिक जीवन की स्थिति ठीक न हो अर्थात् योग न हो लेकिन नवमांश कुंडली में विवाह और वैवाहिक जीवन की स्थिति शुभ और अनुकूल हो, विवाह के योग हो तो वैवाहिक जीवन का सुख प्राप्त होता है।
जन्म कुन्डली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, एकादश और द्वादश भावों में किसी में भी मंगल विराजमान हो तो वह विवाह को विघटन में बदल देता है, यदि इन भावों में विराजमान मंगल यदि स्वक्षेत्री हो, उच्च राशि में स्थिति हो, अथवा मित्र क्षेत्री हो, तो दोषकारक नही होता है I
यदि जन्म कुण्डली के प्रथम भाव में मंगल मेष राशि का हो, द्वादश भाव में धनु राशि का हो, चतुर्थ भाव में वृश्चिक का हो, सप्तम भाव में मीन राशि का हो और अष्टम भाव में कुम्भ राशि का हो, तो मंगली दोष नही होता है I यदि जन्म कुन्डली के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, नवम और द्वादश भाव में शनि विराजमान हो तो मंगली दोष नही होता है I
यदि जन्म कुन्डली में मंगल गुरु अथवा चन्द्रमा के साथ हो, अथवा चन्द्रमा केन्द्र में विराजमान हो, तो मंगली दोष नही होता है I
यदि मंगल चतुर्थ, सप्तम भाव में मेष, कर्क, वृश्चिक अथवा मकर राशि का हो, तो स्वराशि एवं उच्च राशि के योग से वह दोष रहित हो जाता है, अर्थात मंगल अगर इन राशियों में हो तो मंगली दोष का प्रभाव नही होता है, कर्क का मंगल नीच का माना जाता है, लेकिन अपनी राशि का होने के कारण चतुर्थ में माता को पराक्रमी बनाता है, दशम भाव में पिता को पराक्रमी बनाता है, लग्न में खुद को जुबान का पक्का बनाता है, और सप्तम में पत्नी या पति को कार्य में जल्दबाज बनाता है, लेकिन किसी प्रकार का अहित नही करता है I
केन्द्र और त्रिकोण भावों में यदि शुभ ग्रह हो, तथा तृतीय षष्ठ एवं एकादश भावों में पापग्रह तथा सप्तम भाव का स्वामी सप्तम में विराजमान हो, तो भी मंगली दोष का प्रभाव नही होता है I वर अथवा कन्या की कुण्डली में मंगल शनि या अन्य कोई पाप ग्रह एक जैसी स्थिति में विराजमान हो तो भी मंगली दोष नही लगता है I
यदि वर कन्या दोनो की जन्म कुन्डली के समान भावों में मंगल अथवा वैसे ही कोई अन्य पापग्रह बैठे हों तो मंगली दोष नही लगता, ऐसा विवाह शुभप्रद दीर्घायु देने वाला और पुत्र पौत्र आदि को प्रदान करने वाला माना जाता है I यदि अष्टम भाव में मंगल वक्री, नीच ( कर्क राशि में ) अथवा शत्रु क्षेत्री ( मिथुन अथवा कन्या ) अथवा अस्त हो तो वह खराब होने की वजाय अच्छा होता है I
कन्यैव
दुष्टा व्रजतीह दास्यं साध्वी समाया कुचारित्रयुक्ता I
भूम्यात्मजर्क्षक्रमशोंऽशकेषु
वक्रार्किजीवेंदुजभार्गवानाम् II
३४II
जातक
के जन्म काल में लग्न मेष वृश्चिक का हो तथा उसी में चन्द्रमा इन राशियों में
स्थित हों तथा मंगल ( मेष या वृश्चिक) का त्रिशांश हो तो वह जातक (स्त्री या पुरुष
) दुष्टा अर्थात् बिना विवाह के ही शारीरिक सम्बन्ध से दूषित हो जाते है, शनैश्चर का त्रिशांश होने से तो
दास्यभाव को प्राप्त होती है, बृहस्पति
का त्रिशांश हों तो वह साधु शीलवाली होती है, बुध का त्रिशांश हों तो वह मायाविनी होती है, शुक्र का त्रिशांश हों तो निन्दित कर्म
करने वाली होती है I
दुष्टा पुनर्भूः सगुणाः कलाज्ञा ख्याता
गुणैश्चासुरपूजितर्ज्ञे I
स्यात्कापटीक्लीबसमा सती च बौधे गुणाढय्या प्रविकीर्ण कामा II३५II
जातक के जन्मकाल का लग्न वृष या तुला का हो तथा उसी में चन्द्रमा भी हों और उसी काल में मंगल का त्रिशांश हो तो वह जातक दुष्ट स्वभाववाली होती है, शनैश्चर का त्रिशांश हों तो वह जातक विवाह के अनंतर दुसरे की स्त्री या पुरुष से सम्बन्ध में रहती है, बृहस्पति का त्रिशांश हों तो वह गुणवती या गुणवान होते है, बुध का त्रिशांश हों तो वह गीत-वाद्यादि कलाओं की जानने वाली होती है, शुक्र का त्रिशांश हों तो वह अपने गुणों के कारण बहुत प्रसिद्ध होते है I
ऐसे ही लग्न और चन्द्रमा मिथुन या
कन्या इन दोनों राशियों में से किसी में स्थित हों और उसी काल में मंगल का
त्रिशांश हों तो वह कपटी,
शनैश्चर का त्रिशांश हों तो वह नपुन्सक
के समान होती है, बृहस्पति का त्रिशांश हों तो वह
पतिव्रता होती है, बुध का त्रिशांश हों तो वह बहुत गुण
संयुक्त होती है, शुक्र का त्रिशांश हों तो वह काम से
विक्षिप्ता अर्थात् बहुत पुरुषों से भोग करने वाली होती है I
स्व्च्छन्दापतिघातिनी
बहुगुणा शिल्पिन्यसाध्वीन्दुभे
नाचारा कुलटार्कभे
नृपवधूः पुंश्चेष्टितागम्यगा I
जैवे नैकेगुणाल्परत्यतिगुणा विज्ञानयुक्ताऽसती
दासी नीचरतार्किभे पतिरता दुष्टाऽप्रजा
स्वांशकैः II३६II
जातक के कुंडली में कर्क लग्न हो और उसमें चन्द्रमा स्थित हों तथा मंगल का त्रिशांश हो तो वह जातक अपने मन की होती है, शनैश्चर का त्रिशांश हों तो वह पति को मारने वाली होती है, बृहस्पति का त्रिशांश हों तो वह बहुत गुणोंवाली होती है, बुध का त्रिशांश हों तो वह चित्रादि खीचने तथा लौकिक कार्य करने में निपुण होती है, शुक्र का त्रिशांश हों तो वह दुष्ट स्वभाववाली होती है I
जातक का लग्न तथा चन्द्रमा सिंह राशि का हो तो और त्रिशांश कुंडली मंगल का होने से स्त्री में पुरुषत्त्व गुण हो जाता है और पुरुष जैसा व्यवहार करते है, शनैश्चर का त्रिशांश हो तो जातक पर-स्त्री या पुरुष गामिनी होती है, बृहस्पति का त्रिशांश से राजा,धन या आफिसर की स्त्री होती है, बुध का त्रिशांश होने से स्त्री में पुरुषत्त्व गुण और विचार रहता है, शुक्र का त्रिशांश हो तो किसी भी स्त्री या पुरुष के साथ भोग करने वाली होती है I
जातक का लग्न धनु या मीन हो तथा चन्द्रमा हो और मंगल का त्रिशांश तो वह जातक अनेक गुणों वाला होता है, शनैश्चर का त्रिशांश हो तो वह शीघ्र रति करनेवाली होती है, बृहस्पति का त्रिशांश हों तो वह बहुत गुणों वाला होता है, शुक्र का त्रिशांश हों तो वह जातक पर-स्त्रीपुरुष गामिनी दुष्टा होती है I
जातक का लग्न मकर या कुम्भ का हो तथा चन्द्रमा उसी में स्थिति हों और
मंगल का त्रिशांश हों तो वह जातक दास या दासी होती है, शनैश्चर का त्रिशांश हों तो वह नीच
जाती से सम्बन्ध होती है,
बृहस्पति का त्रिशांश हों तो वह
पतिभक्ता होती है, बुध का त्रिशांश हों तो दुष्टा होती है, और शुक्र का त्रिशांश हों तो वह जातक
बन्ध्या ( बच्चा रहित) होती है I
जन्म कुन्डली में मंगल यदि द्वितीय भाव में मिथुन अथवा कन्या राशि का हो, द्वादश भाव में वृष अथवा कर्क का हो, चतुर्थ भाव में मेष अथवा वृश्चिक राशि का हो, सप्तम भाव में मकर अथवा कर्क राशि का हो, और अष्टम भाव में धनु और मीन राशि का हो अथवा किसी भी त्रिक भाव में कुम्भ या सिंह राशि का हो, तो भी मंगल दोष नही होता है I
जिसकी जन्म कुण्डली में चतुर्थ, पञ्चम, सप्तम, अष्टम अथवा द्वादश भाव में पापी कोई ग्रह या पापी मंगल विराजमान हो, तो उसके साथ विवाह नही करना चाहिये, यदि वह मंगल बुध और गुरु से युक्त हो, अथवा इन ग्रहों से देखा जा रहा हो, तो वह मंगल फ़लदायी होता है, और विवाह जरूर करना चाहिये I
शुभ ग्रहों से युक्त मंगल अशुभ नही माना जाता है, कर्क लग्न में मंगल कभी दोष कारक नही होता है, यदि मंगल अपनी नीच राशि कर्क का अथवा शत्रु राशि तृतीय या अष्टम भाव में विराजमान हो तो भी दोष कारक नही होता है I यदि वर कन्या दोनो की जन्म कुन्डली में लग्न चन्द्रमा अथवा शुक्र से प्रथम द्वितीय चतुर्थ सप्तम अष्टम अथवा द्वादश भावों में मंगल वर्गोत्तम हो, अर्थात वर की कुण्डली में जहां पर विराजमान हो उसी स्थान पर वधू की कुण्डली में विराजमान हो तो मंगली दोष नही रहता है I
परन्तु यदि वर कन्या में से केवल किसी एक की जन्म कुन्डली में ही उक्त प्रकार
का मंगल विराजमान हो, दूसरे की कुण्डली में नही हो तो इसका
सर्वथा विपरीत प्रभाव ही समझना चाहिये, अथवा वह स्थिति दोषपूर्ण ही होती है, यदि मंगल अशुभ भावों में हो तो भी विवाह नही
करना चाहिये, परन्तु यदि गुण अधिक मिलते हो, तथा वर कन्या दोनो ही मंगली हो, तो विवाह करना शुभ होता है I
लग्ने
चन्द्रखला रिपौ शशिसितौ सर्वे द्यूने खे बुधो-
ऽऽब्जोऽन्त्येनऽगुः
सुखगोऽष्टमाः कुजशुभाः शुक्रस्तृतीयः शुचेः I
लाभे
सर्वखगाः शुभा अखिलगास्त्र्यष्टारिगाः स्युः खला-
श्चन्द्रस्त्र्यम्बुधने
श्रियेंऽशभदृकेट् स्यान्मृत्यवेऽष्टारिगः II३७II
विवाह मुहूर्त्त काल के समय अगर लग्न
में चन्द्र और पाप ग्रह हों, षष्ठ भाव में चन्द्र और शुक्र हों, या सप्तम भाव में
सर्व ग्रह हों, या बुध नवम भाव में हों, या चन्द्र द्वादश भाव में हों, राहु
चतुर्थ भाव में हों, मंगल और शुभ ग्रह अष्टम भाव में तथा शुक्र तृतीय भाव में हो,
इन योगों में से कोई भी योग तात्कालिक विवाह लग्न कुण्डली में हों तो अशुभ होता है
I एकादश भाव में शुभ ग्रह हो, अशुभ भाव छोड़कर शेष सभी भाव में शुभ ग्रह हों, तृतीय,
षष्ठ या अष्टम भाव में पापो ग्रह ( मंगल अष्टम भाव में सबसे ज्यादा हानि करता है
I) द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ भाव में चन्द्र होने से शुभ कारक होते है I लग्नेश,
नवमांशेश और द्रेष्काण का स्वामी यदि षष्ट या अष्ठम भाव में हों तो अशुभ होता है I
जन्मलग्नभयोर्मृत्युराशौ नेष्टः कर ग्रहः I
एकाधिपत्ये राशिशे मैत्रे वा नैष दोषकृत्
II३८II
जन्म लग्न या जन्म राशि से अष्टम लग्न
में विवाह अशुभ होता है, परन्तु यदि जन्म लग्न या जन्म राशि का और अष्टम लग्न का
स्वामी एक हों या दोनों के स्वामियों में मित्रता हों तो यह दोष नहीं होता है I
शुद्रान्त्येषु पुनर्भुवापरिणयः प्रोक्तो विवाहोक्तभै-
र्नालोक्यं तिथिमासवेधभूगुजेज्यास्तादि
तत्रार्कभात् I
त्रित्र्यृर्क्षेषु मृतिर्धनं मृतिमृती पुत्रा मृतिर्दुर्भगं
श्रीरौन्नत्यमथो धृतीशकृततत्वर्क्षेऽतय्यः
साभिजित् II३९II
हिन्दू समाज में पुर्नविवाह ( द्वितीय विवाह ) केवल अज्ञानी, अनपढ़, नीच, शुद्र या धोबी आदि जाति में संभव है I अगर द्वितीय विवाह करनी है तो यह विवाहोक्त नक्षत्रों में करना चाहिये, इस में तिथि, मास, वेध, गुरु और शुक्र का अस्त नहीं देखना चाहिए I
सूर्य के नक्षत्र से प्रथम-तीन नक्षत्र
में मृत्यु होती, द्वितीय-तीन नक्षत्रों में धन हानि होती, उससे आगे तीन नक्षत्रों
में मृत्यु होती है, उससे आगे तीन नक्षत्र में फिर मृत्यु होती, उससे आगे तीन
नक्षत्र में पुत्रलाभ, उससे आगे तीन नक्षत्र में मृत्यु होती, उससे आगे तीन
नक्षत्र में दुर्भाग्य का समय रहता है, अष्टम-तीन नक्षत्र लक्ष्मी की प्राप्ति योग
तथा अंतिम तीन नक्षत्र में उन्नति होती है I अपने सूर्य के नक्षत्र से अभिजित् और
४, ११, १८ और २५ वे नक्षत्र में पुनर्विवाह करने से मृत्यु होता है I
दिग्देशस्थितिधर्मकर्मजगुणाः
पुञ्जातके योषितां
ये
नारीजनजातके निजपतौ संयोजितास्तात्त्वतः I
द्युनांशोयगतग्रहेषु
बलवत्खेटांशतुल्याः सुताः
केंद्रे
कामपतिः करोति विपुलं कल्याणकालोत्सवम् II४० II
पुरुष के जन्माङ्ग के सम्बन्ध में जो
फल कहे गये है उन सबको देश, काल, परिस्थिति, धर्म, कर्म और गुण आदि के अनुसार फलित
में प्रभावित होता I उनकी योजना स्त्री के कुंडली में भी करनी चाहिये I स्त्री के
कुंडली में दिग्-देश-काल-परिस्थिति के अनुसार जो नहीं घटने योग्य हैं उनकी योजना
उसके पति में कहनी चाहिये I सप्तम भाव में स्थित ग्रहों में जो सर्वाधिक बलवान्
हों उसके नवांश संख्या तुल्य जातक के संतान
की संख्या होती है I केंद्र भावों में सप्तम की स्थिति अत्यन्त कल्याणकारी होती है
I
इति शुभमस्तु
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