Janiye Shashtron Aur Nervous System Ka Sambandh - अथ सर्वस्व नाड़ी ज्ञान (नसों) | Nervous System | तंत्रिका प्रणाली
Janiye Shashtron Aur Nervous System Ka Sambandh
अथ सर्वस्व नाड़ी ज्ञान (नसों) - Nervous System
ईश्वरीय शक्ति से सब कुछ प्राप्त कर सकते है जिसको कास्मेटिक शक्ति कहते है :--- मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से। इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है।
सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब हमारे दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस जाग्रत होता है। इड़ा, पिंगला और सुषुन्मा के अलावा पूरे शरीर में हजारों नाड़ियाँ होती हैं। उक्त सभी नाड़ियों का शुद्धि और सशक्तिकरण सिर्फ प्राणा याम और आसनों से ही होता है। शुद्धि और सशक्तिकरण के बाद ही उक्त नाड़ियों की शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है I छठी इंद्री को अंग्रेजी में सिक्स्थ सेंस कहते हैं।
सिक्स्थ सेंस को जाग्रत करने के लिए योग में अनेक उपाय बताए गए हैं। इसे परामनोविज्ञान का विषय भी माना जाता है। असल में यह संवेदी बोध का मामला है। गहरे ध्यान प्रयोग से यह स्वत: ही जाग्रत हो जाती है। कहते हैं कि पाँच इंद्रियाँ होती हैं- नेत्र, नाक, जीभ, कान और यौन।
इसी को दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श कहा जाता है। किंतु एक और छठी इंद्री भी होती है जो दिखाई नहीं देती, लेकिन उसका अस्तित्व महसूस होता है। वह मन का केंद्रबिंदु भी हो सकता है या भृकुटी के मध्य स्थित आज्ञा चक्र जहाँ सुषुन्मा नाड़ी स्थित है।
हिप्नोटिज्म जैसी अनेक विद्याएँ इस छठी इंद्री के जाग्रत होने का ही कमाल होता है। हम आपको बताना चाहते हैं कि छठी इंद्री क्या होती है और योग द्वारा इसकी शक्ति कैसे हासिल की जा सकती है और यह भी कि जीवन में हम इसका इस्तेमाल किस तरह कर सकते हैं।
व्यक्ति में भविष्य में झाँकने की क्षमता का विकास होता है। अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं। किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है। एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है।
छठी इंद्री प्राप्त
व्यक्ति से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता और इसकी क्षमताओं के विकास की संभावनाएँ अनंत
हैं। छठी इंद्री : यह इंद्री सभी में सुप्तावस्था में होती है। भृकुटी के मध्य
निरंतर और नियमित ध्यान करते रहने से आज्ञाचक्र जाग्रत होने लगता है जो हमारे
सिक्स्थ सेंस को बढ़ाता है। योग में त्राटक और ध्यान की कई विधियाँ बताई गई हैं।
उनमें से किसी भी एक को चुनकर आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।
शांत-स्वच्छ वातावरण : अभ्यास के लिए सर्वप्रथम जरूरी है साफ और स्वच्छ वातावरण, जहाँ फेफड़ों में ताजी हवा भरी जा सके अन्यथा आगे नहीं बढ़ा जा सकता। शहर का वातावरण कुछ भी लाभ दायक नहीं है, क्योंकि उसमें शोर, धूल, धुएँ के अलावा जहरीले पदार्थ और कार्बन डॉक्साइट निरंतर आपके शरीर और मन का क्षरण करती रहती है। प्राणायाम का अभ्यास : वैज्ञानिक कहते हैं कि दिमाग का सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत हिस्सा ही काम करता है। हम ऐसे पोषक तत्व ग्रहण नहीं करते जो मस्तिष्क को लाभ पहुँचा सकें, तब प्राणायाम ही एकमात्र उपाय बच जाता है। इसके लिए सर्वप्रथम जाग्रत करना चाहिए समस्त वायुकोषों को।
फेफड़ों और हृदय के करोड़ों वायुकोषों तक श्वास द्वारा हवा नहीं पहुँच पाने के कारण वे निढाल से ही पड़े रहते हैं। उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता। उक्त वायुकोषों तक प्राणायाम द्वारा प्राणवायु मिलने से कोशिकाओं की रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है, नए रक्त का निर्माण होता है और सभी नाड़ियाँ हरकत में आने लगती हैं। छोटे-छोटे नए टिश्यू बनने लगते हैं। उनकी वजह से चमड़ी और त्वचा में निखार और तरोताजापन आने लगता है। तो सभी तरह के प्राणायाम को नियमित करना आवश्यक है।
भृकुटी पर ध्यान लगाकर निरंतर मध्य स्थित अँधेरे को देखते रहें और यह भी जानते रहें कि श्वास अंदर और बाहर हो रही है। मौन ध्यान और साधना मन और शरीर को मजबूत तो करती ही है, मध्य स्थित जो अँधेरा है वही काले से नीला और नीले से सफेद में बदलता जाता है। सभी के साथ अलग-अलग परिस्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं।
मौन से मन की क्षमता का विकास होता जाता है जिससे काल्पनिक शक्ति और आभास करने की क्षमता बढ़ती है। इसी के माध्यम से पूर्वाभास और साथ ही इससे भविष्य के गर्भ में झाँकने की क्षमता भी बढ़ती है। यही सिक्स्थ सेंस के विकास की शुरुआत है। अंतत: हमारे पीछे कोई चल रहा है या दरवाजे पर कोई खड़ा है, इस बात का हमें आभास होता है।
यही आभास होने की क्षमता हमारी छठी इंद्री के होने की सूचना है। जब यह आभास होने की क्षमता बढ़ती है तो पूर्वाभास में बदल जाती है। मन की स्थिरता और उसकी शक्ति ही छठी इंद्री के विकास में सहायक सिद्ध होती है I यह साधना सभी रोगों का एक ही इलाज़ से आपका मन, तन, यश, आयु और धन पूर्णतः आपके बस में रहेगा I अगर आप नित्य नितमित करते रहेगे तो:-
मेरे जैसे अल्पज्ञों की शक्ति का विषय यह कैसे हो सकता है इतने पर भी अनाधिकार चेष्टा कर अपने जिज्ञासुओं की उत्सुकता बढ़ाने के लिए थोड़ा सा आन्तरिक भाव जो कि हमारे ग्रहोपचार इस पुस्तक के कार्य में आने वाला है लिखकर अपने चित्त की प्रसन्नता के लिए जिससे शरीर की रचना या बनाबट का थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये कि शारीरिक देवालय के अन्दर कारीगर (ईश्वर) ने किस प्रकार एक के अन्दर एक वस्तु का निर्माण कर किस प्रकार इस मानव शरीर कोण चलता-फिरता महलमय घर बनाया है I
इसके यंत्र स्वतः ही एक चालू मशीन की तरह अपना-अपना कार्य सुचारु रुप से निरंतर अहर्निशं करते रहते हैI फिर भी जंग लग जाने पर जिस प्रकार मशीन कार्य करना बन्द कर देती है, ठीक उसी प्रकार सफाई, भोजनादि की दुर्व्यवस्था होने पर मानव की आतंरिक शक्ति क्षीण हो जाती है और बीमार पड़ जाता है I शरीर में जिस धातु की कमी हो जाती है वही अङ्ग कार्य करना छोड़ देता है I
अतः उसी की थोड़ी-सी जानकारी के लिए हम यहाँ शरीर रचना का थोड़ा सा परिचय करते हुए यद्यपि यह रोग उसके लक्षण, निदान और उपचार का विषय पूर्णतया डॉक्टरों का है फिर भी ज्योतिषी ग्रह-राशि-नक्षत्र के साथ रोगों के लक्षण समझ कर रोगी को रोग से मुक्त कर सकने में सक्षम होते है I इस विद्धा के कारण कष्ट आने से पहले ही आप सावधान रह कर रोग निदान कर सकते है I इस मानव शरीर पर विहङ्गम दृष्टि डालने पर हमें सिर,आँख, कान, नाक, मुँह, हाथ, पैर पिन्डादि दृष्टिगोचर होते है I
इसके त्वचा, नीचे चर्बी की झिल्ली होती है जिसके अन्दर रुधिर वाहिका तंत्रिका सूत्र होते है जिसके नीचे ढकने वाली झिल्ली होती है जिसके अन्दर रक्त वाहिनी तन्त्रिकाएं होती है इन तन्त्रिकाओं और हड्डियों के बिच एक और झिल्ली होती है और अंत में हड्डियों का कंकाल जिनके अन्दर भी गुदा, मज्जादि भरा रहता है I इतने जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् अपने ग्रह-राशि-नक्षत्र आदि रोग विषय की गुणकर्म स्वभाव के अनुसार आप निम्नलि खित बातों को यथेष्ट रुप से स्मृत रखने की चेष्टा करेगें तो निश्चय पूर्वक ग्रहों द्वारा उत्पन्न रोगों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में सफल हों सकेगें इन यहाँ इतना कह देना मैं अत्यन्तं आवश्यक समझता हूँ कि अनुभव जन्य है I
कभी-कभी-अपने अनुभव से आगे बात अधिक सत्य होती है I ग्रहों को देखकर रोग लक्षण तथा शुभाशुभ फलादेश कहना तो प्राचीन प्रथा है I मुख्य-मुख्य नाड़ियाँ, धमनियाँ, ह्र्दय, संधि और अस्थि आदि की शरीर में कुल 79 अंग होते हैं I गतिविधियों पर प्रकाश डालने का प्रयास करने जा रहा हूँ :---
वैदिक मान्यताओं के अनुसार हमारे शरीर में तैतीस करोड़ नाड़ियाँ है I आधुनिक विज्ञान कुछ और ही कहता है I खैर जो भी हो, सत्ताईस करोड़ नाड़ियाँ हाथ में, पांच करोड़ नाड़ियाँ पैर में तथा एक करोड़ में शेष शरीर क़ी नाड़ियाँ है I ज्यादातर नाड़ियों का सघन संक्रमण इन हथेलियों एवं पांवो में होने के कारण ही आदि काल से इन्हीं शरीर के भागो को दंड स्वरुप प्रताड़ित करने क़ी परम्परा चली आ रही है I
ध्यान रहे, नाड़ियों एवं ग्रंथियों में अंतर होता है I ये नाड़ियाँ अपने आकार प्रकार एवं संरचना एवं क्रिया के आधार पर 9 वर्गों में बँटी हैं I चाहे शरीर के किसी भी भाग क़ी नाडी क्यों न हो, एक प्रकृति क़ी नाड़ियाँ रीढ़ रज्जू (Spinal Chord) के एक अलग कशेरुका ( Cerebra or Vertibra ) में केन्द्रित होती है I आप को और आश्चर्य होगा कि हमारी कशेरुक दंड (Vertebral Cerebra) में मात्र 9 ही कशेरुकायें होती है I
ये 9 कशेरुकायें 9 ग्रहों के स्वभाव, प्रकृति, एवं क्रिया कलाप के अनुसार बनी है I प्रत्येक ग्रहों के प्रभाव के अनुरूप कार्य करने वाली कशेरुकाओ में सारी एक वर्गों एवं श्रेणियों क़ी नाड़ियाँ एकत्र हो जाती है I इस प्रकार इन 9 कशेरुकाओ से बने मेरुदंड या रीढ़रज्जू में समस्त शरीर क़ी नाड़ियाँ एकत्र होती है I
यही कारण है कि इस रीढ़रज्जू, मेरुदंड या सुषुम्ना को उपमष्तिस्क कहा जाता है I जहां से प्रतिवर्ती चाप (Reflection Arch) के द्वारा संवेदनाओं एवं संदेशो को प्रमष्तिष्क (Brain) तक भेजा जाता है I तथा प्रमष्तिष्क से प्राप्त संदेशो या संवेदनाओं (sensations) को यह सुषुम्ना इन नाड़ियो के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो को भेज कर तदनुरूप कार्य करने का आदेश प्रेषित करती है I इन विविध नाड़ियो के द्वारा शरीर के विविध अंगो या भागो पर विविध आकृतियों का निर्माण होता है I
जो तिल (Black Mole) , लहसन या लक्षण (Birth Sign), पैरो में गदा, पद्म, हथेलियो पर चक्र एवं शंख के रूप में दृष्ट होता है I आप अपनी हथेलियों को देखें, आप को अनेक छोटी छोटी एवं पतली रेखाएं दिखाई देगीं I अंगुलियों के ऊपर अंतिम सिरे पर कई आकृतिया बनाती रेखाएं दिखाई देगीं I ये विविध आकृतियाँ और कुछ नहीं बल्कि अपने आप को एक दूसरे से अलग रखने वाली नाड़ियो क़ी विभाजक रेखाएं (divider) है I जब ग्रहों का दूषित प्रभाव शरीर के किसी भाग पर पड़ता है तों पहले उस ग्रह से सम्बंधित कशेरुका (Vertebra) का धूसर द्रव्य (Grey Matter) विषाक्त (Envenomed) हो जाता है I
फिर उस नाडी से सम्बंधित अँग प्रभावित हो जाते है I उदाहरण स्वरुप इंगला नाडी क़ी उदात्त वाहिनी का सम्बन्ध राहु से होता है I इसका सम्बन्ध सुषुम्ना क़ी छठी कशेरुका से होता है I प्रत्येक नाडी-इंगला, पिंगला एवं सुषुम्ना, उदात्त, अनुदात्त एवं प्रगल्भ भेद से तीन तीन या सब मिला कर 9 होती है I यदि राहु किसी के जन्म नक्षत्र से शून्य से लेकर तीस अंशो के बीच में है तों इंगला नाडी क़ी उदात्त वाहिनी जितने अंशो पर राहु है उतने अंगुल क़ी दूरी पर अवरुद्ध हो जाती है I जैसे यदि बारह अंशो पर राहु है तों सुषुम्ना से बारहवें अंगुल क़ी दूरी पर वह उदात्त वाहिनी अवरुद्ध हो जायेगी I
वहा पर गांठ (Clot) बन जायेगी I परिणाम स्वरुप मानसिक विकृति, पागल पन, गुस्सा, मृगी आदि होगा ही तथा औरतों में योषाअपष्मार (Hysteria) ऐसी ही अवस्था में होता है I माप क़ी वर्त्तमान इकाई (Unit) का निर्धारण इसी के आधार पर तय किया गया है I इसी प्रकार यदि सूर्य किसी के जन्म नक्षत्र से 25 अंश आगे या पीछे हो तों क्योंकिः सूर्य का सम्बन्ध नवीं कशेरुका से होता है, नवीं कशेरुका इंगला नाडी क़ी ही प्रगल्भ वाहिनी होती है I
इस कशेरुका का Cerebellar Parasitic Mentholatum दृष्टि तंत्र (Ophthalmic System) से सम्बंधित होता है I अतः 25 वें अंगुल क़ी दूरी पर इस वाहिनी क़ी श्लेष्मिक झिल्ली पिघल जाती है और आदमी आँख का रोगी हो जाता है I इसी तरह यदि पिंगला नाडी क़ी उदात्त वाहिनी दोष पूर्ण नहीं होगी तों हथेली के निचले दाहिने सिरे से ऊपर क़ी और जाने वाली रेखाएं हथेली के अन्दर तक घुस जाती है I तथा शुक्राणुओ (Genital Sperms या Semen) को सान्द्र (concentrate) कर देती है और उस व्यक्ति क़ी बहुत सी संतानें होती है I पिंगला नाडी क़ी उदात्त वाहिनी का सम्बन्ध चौथी कशेरुका से होता है I
अंगुलियों के सबसे ऊपर पतली पतली रेखाओं से अनेक आकृतियाँ बनती है जिन्हें उनके प्रभाव को पहचानने के लिये विविध नाम दिये गये है I जैसे- शंख, चक्र, दंड, मूसल, पाश आदि. इन रेखाओं को आसानी से देखा जा सकता है I जो नाडी दोष पूर्ण होगी या जो नाडी शुद्ध होकर शक्ति शाली होगी उसी के अनुरूप उनकी आकृति बनती जायेगी I
उन आकृतियों के अनुसार ही पता चल जाता है कि कौन सी नाडी दूषित या उत्तम अवस्था में है I जैसे यदि दाहिने हाथ क़ी मध्यमा अंगुली में शंख का निशान है तथा अनामिका ऊंगली में चन्द्रमा है तों उसका गुरु (Jupiter) उसके अति अनुकूल है तथा वह बहुत ही बुद्धिमान, यशस्वी एवं कुशाग्र बुद्धि होगा I यह विवरण किसी भी तरह हस्त रेखा विज्ञान (Palmistry) से सम्बंधित है I साथ ही यह “रज्जुवलयम” नामक ग्रन्थ जो यजुर्वेद के “विधि निरूपणं” अध्याय का कन्नड़ भाष्य है, “ऊज्ह्यांग जो” एक चीनी भाषा क़ी शरीर विज्ञान पर लिखी पुस्तक के हिंदी अनुवाद तथा आयुर्वेद के “शरीर विज्ञान” (Human Anatomy) से लिया गया है I
मुझे हस्त रेखा विज्ञान का ज्ञान है I अतः हस्त रेखा देखने एवं विचारने वाले किस तरह या किस आधार पर व्याख्या प्रस्तुत करते है उसके विषय में मुझे जानकारी है I एक परम्परा बनी हुई है कि नीलम रत्न सदा मध्यमा अंगुली में ही धारण करना चाहिए I पन्ना केवल कनिष्ठिका अंगुली में ही धारण करना चाहिए ठीक है I यदि नीलम तराशा गया है तथा उसे शौकिया तौर पर पहनना है तों चाहे जिस किसी अंगुली में पहनिए किन्तु यदि ग्रह नक्षत्र के अनुसार पहनना है तों पहले यह देख लेना चाहिए कि किस अंगुली में “सीप” क़ी आकृति पतली रेखाएं बना रही है, उसी में पहनना चाहिए I
चाहे भले ही वह कनिष्ठिका (Small) अंगुली ही क्यों न हो? कारण यह है कि शनि का सम्बन्ध कशेरुका (Spinal Chord ) क़ी तृतीय कशेरुका से जो पिंगला नाडी क़ी अनुदात्त वाहिनी है से होता है I इस कशेरुका के धूसर द्रव्य (Grey Matter) के द्वारा क्लोरोफ्लेविडीनकैल्शियो नाईट्रायिड तथा इलियोसिंथेटाक्सीन पर नियंत्रण किया जाता है I अब जिस अंगुली में कोई ऐसा निसान न हो जिससे पता चले कि इसमें शनि क़ी कौन सी नाडी है और यदि नीलम पहन लिया जाय तों उसका संपर्क तृतीय कशेरुका से नहीं हो पाता है तों कशेरुक द्रव्य तों नहीं ही प्रभावित होता है I
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इसके विपरीत किसी और कशेरुक द्रव्य पर प्रभाव
पड़ जाता है I जिससे लाभ के विपरीत हानि होने लगती है I
नाड़ी - शरीर के अन्दर विविध पदार्थो एवं संवेदनाओं-सूचनाओं
को एक स्थान से दूसरे स्थान को लाने एवं ले जाने वाली वाहिकाओं को नाड़ी कहते हैं I रक्त को ले जाने तथा लाने वाली
वाहिकाओं को नस या Blood
Duct तथा
संवेदना-सूचना आदि को ले जाने एवं लाने वाली वाहिकाओं को नाड़ी या Nerves कहते हैं. इनकी संख्या समूचे शरीर में
साढ़े तीन लाख -350000 होती है. किन्तु उनमें प्रधानता मात्र 14 ही की होती है.–
सार्द्धलक्षत्रयं नाड्यः सन्ति देहान्तरे नृणाम
I
प्रधानभूता नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दश II
शिवसंहिता 2/13
जैसे किसी सड़े हुए पीपल के पत्ते पर साफ़ साफ़ नसें दिखाई देती हैं ठीक वैसे ही शरीर में ये नाड़ियाँ फैली हुई हैं. ये प्रधान चौदह नाड़ियाँ निम्न हैं-
सुषुम्नेडा पिंगला च गांधारी हस्तिजिह्विका I
कुहूः सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी II
वारुण्यलम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी I
एतासु त्रिस्रो मुख्याः स्युः पिंगलेडासुषुम्निकाः II
शि-सं 2/14,15
इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तजिह्वा, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी, इन चौदह नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं I इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है I इन चौदह नाड़ियों में सात ऊपर की तरफ जाने वाली तथा सात नीचे की तरफ जाने वाली होती हैं I जैसे कुहू नाड़ी सुषुम्ना के बायीं तरफ से होते हुए मेढ्रदेश तक चली जाती है जब कि यशस्विनी नाड़ी कुण्डलिनी से दाहिने पैर के अंगूठे की नोक तक जाती है I
इस प्रकार शरीर में स्थित चौदहों भुवन तक ये चौदह नाड़ियाँ विस्तारित हैं I इनका क्रम निम्न प्रकार है- ॐ भू भुव, स्व, मह, तप एवं सत्य लोक. ये ऊपर के लोक हैं I इसके नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल हैं I ॐ अर्थात कुण्डलिनी तक तो सब को जाना या वही आकर समाप्त हो जाना है I
जैसे सुषुम्ना एक स्वतंत्र नाड़ी होते हुए भी सबकी संवेदना-सूचना-आज्ञा स्वयं एकत्र करती है, वैसे भी ॐ पृथक लोक होते हुए भी यह सबमें समाहित है या सब इसी में समाहित हैं I यह नाड़ी अपनी सूचना तो रखती ही है इसके अलावा सब नाड़ियों की सूचना भी अपने पास एकत्र रखती है I जिस तरह से परमाणु का नाभिक (Nucleus) अपने अन्दर Neutron एवं Proton को तथा अपनी बाहरी कक्ष्या में Electron को रखते हुए भी उस Electron की संख्या में वृद्धि करते हुए नित नये तत्वों के निर्माण में अग्रसर है I
शरीर के विविध अंगों से विविध संवेदना या सूचना या आज्ञा छोटी छोटी नाड़ियाँ एकत्र करके अपने से श्रेष्ठ उपर्युक्त चौदह नाड़ियों तक पहुंचाती हैं I ये चौदह नाड़ियाँ उन अपनी सहायक छोटी नाड़ियों से इन सूचनाओं को एकत्र कर अपने से श्रेष्ठ प्रधान तीन नाड़ियों-इंगला आदि को प्रदान करती हैं I इन सबको सुषुम्ना एकत्र कर कुण्डलिनी पर आवरण स्वरुप कवच के रूप में उसे ढकी रहती है I
ध्यान रहे, उपर्युक्त बतायी गयीं साढ़े तीन लाख नाड़ियाँ इसी कुण्डलिनी से निकलती हैं. जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, कुण्डलिनी का स्थान मलमार्ग एवं मूत्र मार्ग जहाँ से पृथक होते हैं उसी संधि के पास कुण्डलिनी रहती है I जो समस्त नाड़ियो को जन्म देती है तथा सबसे सूचना-संवेदना एकत्र कर अपने ऊपर पर्दा या आवरण स्वरुप धारण किये रहती है I एक बात सबको लगभग ज्ञात होगी, यही वह स्थान है जहाँ से वीर्य या रज (Cemen) एक सम्पूर्ण शरीर को जन्म देने में सक्षम होता है I यह एक अतीव ज़टिल तथा रहस्यमय तंत्रिकात्मक संयंत्र (Highest Technical Machinery) है I
जिसे हम वीर्य या रज कहते हैं, वह मूल रूप में किरण रूप में कुण्डलिनी में रहता है I किन्तु उस अवस्था में यह पदार्थ तीन रूप में होता है क्योकि जो नाड़ी अर्थात इंगला का पदार्थ इंगला के स्वभाव वाला, पिंगला का पिंगला के स्वभाव वाला तथा सुषुम्ना का सुषुम्ना के प्रभाव वाला होता है I जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ, इंगला पर ऋण आवेश (Negative Charge), पिंगला पर धनावेश (Positive Charge), तथा सुषुम्ना पर कोई आवेश नहीं (Neutral) होता है I
जब नाड़ियो में विक्षोभ उत्पन्न होता है-जैसे कोई विकार स्वरुप मनोभाव नाड़ियों द्वारा इस कुण्डलिनी तक पहुँचता है तो ये किरण रूप वाले तीनो पदार्थ परस्पर मिलकर द्रव रूप में परिवर्तित होकर वीर्य या रज का रूप धारण कर लेते है और जब इनका रूप द्रव में परिवर्तित हो जाता है तब यह दूषित हो जाता है और कुण्डलिनी का अधस्रहण भाग इसे अपने पास से निकाल बाहर फेंक देता है I क्योकि कोई भी दूषित या अपवित्र वस्तु या पदार्थ इसके निकट नहीं रह सकता I नाड़ियों का सम्बन्ध इन्द्रियों से होता है I
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इन्द्रियाँ मन से संचालित होती हैं I मन की आज्ञा के अनुसार इन्द्रियाँ कार्य करती हैं I जैसा कार्य होता है उसकी सूचना नाड़ियाँ कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं. और उसके बाद कुण्डलिनी उसका उचित अनुचित निर्णय लेकर उन संग्रहीत सूचनाओं के ऊपर निर्णय लेती है I अतः जब इन्द्रियों के विक्षोभ को नाड़ियाँ कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं तो नके द्वारा एकत्र पूर्ववर्ती सूचनाओं में हलचल या विक्षोभ उत्पन्न होता है I और जब यह विक्षोभ दूषित हुआ तब यह तीनो पदार्थो से बना तत्व या पदार्थ अधस्रहण द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है I
जैसे कान के द्वारा सुना गया कोई अपशब्द पुंजीभूत होकर ज्ञानेन्द्रिय की सहायक वाहिका द्वारा मन को पहुंचाया जाता है I
मन को इससे अपनी प्रतिष्ठा पर ठेस लगता है I मन तत्काल इसके विपरीत प्रतिक्रया के लिये सम्बंधित नाड़ियों से सूचना कुण्डलिनी तक पहुंचाता है I कुण्डलिनी के पास घिरा आवरण तदनुरूप द्रवित अन्य पदार्थ का रूप धारण कर सम्बंधित या उस कार्य के लिये नियुक्त नाडी के माध्यम से मन को वापस किया जाता है और मन के द्वारा तत्काल समबन्धित कर्मेन्द्रिय जैसे झगडा करने के लिए हाथ या मुंह आदि को आदेश दिया जाता है I
इस प्रकार कुण्डलिनी के पास एकत्र पदार्थो का उपयोग मनुष्य द्वारा किया जाता है I ये ही सारे पदार्थ यदि अपना आवरण कुण्डलिनी पर से हटा दें तो कुण्डलिनी पर पड़ा दबाव स्वरुप बोझ समाप्त हो जाता है तथा कुण्डलिन हलकी होकर ऊपर उठाते हुए मूलाधार से स्वाधिष्ठान, नाभि, अनाहत, विशुद्धि एवं आज्ञाचक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र में जाकर स्थिर हो जाता है, और जब तक इस कुण्डलिनी पर विविध नाड़ियों द्वारा एकत्रित संवेदनाओं-सूचनाओं का बोझ लदा रहेगा, कुण्डलिनी वही दबी रहेगी I और मनुष्य विविध दुश्चक्र में फँस कर रह जाएगा I
संलग्न चित्र में षडचक्रों एवं नाड़ियों के स्थान को देखा जा सकता है.शरीर में नाड़ियों की सबसे ज्यादा महत्व है जिनको अंग्रेजी में Arteries कहते है, इन नाड़ियों द्वारा ही साफ किया हुआ शुद्ध रक्त समस्त शरीर की इन्द्रियों को जाता है I इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तजिह्वा, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी, इन चौदह नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं I इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है I इन चौदह नाड़ियों में सात ऊपर की तरफ जाने वाली तथा सात नीचे की तरफ जाने वाली होती हैं I
दर्शनस्पर्शनप्रश्नैः परीक्षेताथ
रोगिणम्।
रोगांश्च साध्यान्निश्चत्य ततो भैषज्यमाचरेत्।।
दर्शनान्नेत्रजिह्वादेः स्पर्शनान्नाड़िकादितः
प्रश्नाहूतादिवचनैः रोगाणां कारणादिभिः।।
यहाँ "दर्शनस्पर्शनप्रश्नैः परीक्षेताथ रोगिणम्" का अर्थ है, "दर्शन, स्पर्शन और प्रश्नों से रोगियों का परीक्षण करना चाहिए"। इसी तरह महात्मा रावण, कणाद, भूधर एवं बसवराज आदि का यह कथन है कि दीपक के सामने जैसे सब पदार्थ स्पष्ट दिखाई देते हैं, इसी प्रकार स्त्री, पुरुष, बाल-वृद्ध मूक उन्मत्तादि किसी भी अवस्था में क्यों न हो, नाड़ी इसके व्यस्त-समस्त-द्वन्द्वादि दोषों का पूरा ज्ञान करा देती है। चरक संहिता के कर्ता महर्षि अग्निवेश के सहाध्यायी महर्षि भेड़ ने भी कहा हैः-
रोगाक्रान्तशरीस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत्।
नाड़ीं जिह्वां मलं
मूत्रं त्वचं दन्तनखस्वरात्॥ (भेलसंहिता)
रोग से आक्रान्त शरीर के आठ स्थानों का परीक्षण करना चाहिये- नाड़ी, जीभ, मल, मूत्र, त्वचा, दाँत, नाखून, और स्वर (आवाज)। यहाँ स्वर-परीक्षा का तात्पर्य सभी प्रकार के यथा-नासा वाणी, फुस्फुस, हृदय, अन्त्र आदि में स्वतः उत्पन्न की गयी ध्वनियों से है। स्वर नासिका से निकली वायु को भी कहते हैं।
Aapka bahut Shukriya Ada bahut Achcha Gyan Diya
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